फिल्म : रेड अलर्ट
निर्देशक : अनंत महादेवन
कलाकार : सुनील शेट्टी, सीमा बिस्वास, समीरा रेड्डी
आप सुनील शेट्टी से इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकते और करते हैं तो यह शुद्ध अत्याचार ही होगा. उनके चेहरे पर इतने जटिल भाव एक साथ थे और अगर आपको उनके कृत्रिम-सी बेवकूफी वाले किरदार पर हंसी आती है तो यह उनका नहीं, कहानी और डायलॉग लिखने वाले लोगों का दोष है. नक्सलियों की जिंदगी पर बनी इस फिल्म में गुस्से, प्रतिशोध, दुख या क्रांति का एक भी डायलॉग ऐसा नहीं जो आपको जरा भी परेशान करे और इसीलिए इतना खूबसूरत जंगल और बढ़िया सिनेमेटोग्राफी बिल्कुल बेकार चली गई है. न ही कोई बड़ा तनाव या दुविधा है. कुछ वर्षों से फिल्मों में कंक्रीट के जंगल देखने की आदत पड़ने के बाद यह सच्चा जंगल आपको देर तक याद रहता है और यही इस फिल्म की एक सफलता है. नसीरुद्दीन शाह ने न जाने क्यों एक छोटा-सा रोल किया है और वे इतने सतही डायलॉग बोलते हैं कि उनकी दमदार एक्टिंग ओढ़ी हुई लगने लगती है. सीमा बिस्वास ही हैं जो उस कमजोरी में से भी अपना मजबूत रास्ता बना लेती हैं.
बेवकूफियां बहुत हैं. एक लड़की, जिससे रात भर पुलिसवालों ने बलात्कार किया है, उसे छुड़ाकर लाने के बाद हीरो उससे पूछता है कि उसे बंद क्यों किया गया था. चूंकि निर्देशक को दर्शकों को कहानी बताने का यही एक तरीका पता है, इसलिए वह अपनी व्यथा सुनाती है और एक-दो मिनट बाद मुस्कुराते हुए पूछती है कि ‘क्या तुम्हारी शादी हो गई?’ हीरो शर्मा जाता है क्योंकि उसकी जिन भाग्यश्री से शादी हुई है उनके पास बच्चों की फीस के पैसे और खाने को अनाज नहीं है, लेकिन वे हर रात सज-धज कर गजरा लगाकर सो रही होती हैं और अपने हर दृश्य में एक ही भाव से रात को लौटे पति का स्वागत करती हैं. सुनील शेट्टी एलान करते हैं कि अब फलां आदमी को मारना ही होगा और फिर उसे मारने का लंबा दृश्य आता है.
फिल्म राजनीतिक रूप से जंगल में अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे लोगों के साथ है और अच्छी बात यह है कि उसके पास इसके लिए तर्क हैं. वह इतनी हिम्मत करती है कि पुलिस को आदिवासी गांवों में अत्याचार करते दिखा सके और नक्सलियों को किसी स्कूल में छिपे पुलिसवालों पर हमला करने से पहले बच्चों को बाहर निकालने की फिक्र करते हुए दिखा सके. मुख्यधारा की कोई फिल्म यह कहानी चुनकर उसका विद्रोही संस्करण दिखा रही हो, इस मल्टीप्लेक्सीय समय में यही बहुत है. हां, फिल्म उस दुनिया और पूरी लड़ाई को उसी रूप में जानती है जिस रूप में रोज अखबार पढ़ने वाला कोई भी आदमी जानता होगा. उससे गहरी एक भी परत नहीं. लेकिन फिल्म अंत में बदलाव के लिए नया रास्ता चुनने के संदेश की घुट्टी पिलाने की कोशिश करती है और अपने मूल रास्ते से भटककर अंधेरे में खो जाती है. शायद सुख-शांति से रिलीज हो पाने के लिए यह जरूरी भी रहा हो.