अनुषा रिजवी और महमूद फारूकी को लगता था कि आज की हिंदी फिल्में असल भारतीय समाज से कटी हुई हैं. इसलिए उन्होंने खुद एक कोशिश की जिसका नतीजा है पीपली लाइव. गौरव जैन की रिपोर्ट
इस साल सनडांस फिल्मोत्सव जहां फिल्म पीपली लाइव प्रतियोगिता श्रेणी में शामिल होने वाली पहली भारतीय फिल्म बनी में एक अमेरिकी किसान फिल्म की निर्देशक अनुषा रिजवी के पास आया और पूछने लगा, ‘उस बकरी का नाम क्या था?’ रिजवी को ध्यान ही नहीं आया तो उन्होंने तुरंत ही एक नाम ईजाद करके उसे बता दिया. वह किसान बोला, ‘दरअसल मेरे पास भी एक बकरी है और मुझे फिल्म पूरी तरह से समझ में आई है. हम छोटे किसानों की जिंदगी में यही सब तो होता है.’
जब अनुषा और महमूद किसी निर्माता की तलाश में पहली बार मुंबई आए थे तो सईद मिर्जा और नसीरुद्दीन शाह जैसी हस्तियों ने उनसे कहा था कि यह शहर साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए नहीं हैदिन-ब-दिन सुर्खियां बटोर रही पीपली लाइव एक बदकिस्मत किसान नत्था और उसके भाई बुधिया की कहानी है जो पीपली नाम के एक गांव में रहते हैं. कर्ज के चलते वे अपनी जमीन गंवाने ही वाले होते हैं कि एक नेता उन्हें खुदकुशी करने की सलाह देता है ताकि उन्हें सरकार से मुआवजे की रकम मिल जाए. भावी आत्महत्या की खबर फैलने लगती है और नेताओं, न्यूज चैनलों सहित हर कोई पीपली की तरफ दौड़ पड़ता है. आमिर खान द्वारा निर्मित इस फिल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश के बिडवई में हुई है. 13 अगस्त को भारत में रिलीज हो रही पीपली लाइव का प्रदर्शन बर्लिन फिल्म महोत्सव 2010 में भी हो चुका है.
34 वर्षीया अनुषा और फिल्म के सहनिर्देशक उनके 39 वर्षीय पति महमूद फारुकी का फ्लैट दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से कुछ ही दूरी पर है. आठ साल पहले हुई उनकी शादी दो अलग-अलग धाराओं के मिलने जैसी घटना थी. फारूकी इसका खास तौर पर जिक्र करते हैं कि वे गोरखपुर के पुरबिया हैं जबकि अनुषा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखती हैं, वे सुन्नी मुसलमान हैं और अनुषा शिया, उनके परिवार में कस्बाई संस्कृति रची-बसी है जबकि अनुषा जमींदारी वाले माहौल में पली-बढ़ी हैं.
थिएटर और समाचार चैनल में काम करने के बाद फिल्म बनाने की कैसे सूझी, यह पूछने पर महमूद बताते हैं कि पांच साल पहले अचानक ही अनुषा बेडरूम से बाहर निकलीं और एलान कर दिया कि उन्हें एक आइडिया मिल गया है. पिछले कुछ समय से वे कई संभावित आइडियों को अपने रजिस्टर में लिख रही थीं. उन्होंने किसान आत्महत्याओं पर एक टीवी कार्यक्रम देखा था जिसके बाद उन्हें यह विचार आया था. अनुषा कहती हैं, ‘मैं इससे हैरान थी कि मुआवजा मरने के बाद दिया जा रहा है. यानी अहमियत लाश की है, जिंदा आदमी की नहीं.’
अनुषा को एक बार में ही सूझ गया था कि कहानी क्या होगी और उसे किस तरह दिखाया जाएगा. यह भी कि बुधिया का रोल रघुबीर यादव को ही करना चाहिए. कहानी लिखने और इसे सही जगह तक पहुंचाने में उन्हें एक साल लग गया. 2006 में आमिर खान ने इसमें दिलचस्पी दिखाई और 2009 में कॉन्ट्रेक्ट साइन हुआ.
आमिर खान कह रहे हैं कि पीपली लाइव अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उनका पहला प्रोडक्शन है. मगर अनुषा और महमूद कहते हैं कि उन्होंने फिल्म बनाते हुए पहले उन दर्शकों के बारे में सोचा था जो मल्टीप्लेक्स तक नहीं जा सकते. महमूद कहते हैं, ‘मल्टीप्लेक्सों ने आम जनता को अछूत बना दिया है. ए बी सी सेंटर जैसी चीजें तो खत्म ही हो गईं. यही वजह कि बड़ी फिल्में यूपी जैसे राज्यों में पैसा नहीं कमा पातीं. हम पीपली को उन लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं. इस देश में वास्तविक कहानियों और चरित्रों पर फिल्में बन सकती हैं. ये उन लोगों को दिखाई जा सकती हैं और लोग भी इन्हें पसंद करेंगे.’ अनुषा को भी लगता है कि ज्यादातर फिल्में वास्तविक भारत की संवेदना से नहीं जुड़तीं. वे कहती हैं, ‘हम अंग्रेजी सोच के साथ अंग्रेजी फिल्में बना रहे हैं और उनका हिंदी में अनुवाद करने की कोशिश कर रहे हैं.’
आमिर खान ने यह भी कहा है कि अपनी पहली ही फिल्म से अनुषा दूसरे निर्देशकों के लिए जलन का सबब बन सकती हैं. अनुषा के मित्र और थिएटर में काम कर रहे हिमांशु त्यागी कहते हैं, ‘थिएटर से आए ज्यादातर निर्देशक अपनी फिल्मों में कुछ कहना चाहते हैं और पीपली में भी आप यह देख सकते हैं.’ मीडिया में इसे किसानों की दशा पर व्यंग्य कहा जा रहा है, मगर अनुषा कहती हैं, ‘मैंने इसे जान-बूझकर व्यंग्य नहीं बनाया था. हकीकत ही ऐसी है. यह अतिशयोक्ति नहीं है.’ वे कहती हैं कि अगर नत्था किसान की बजाय कोई बुनकर या कुम्हार होता तब भी फिल्म यही असर छोड़ती क्योंकि अहम बात भारत के शहर और गांव के बीच की खाई को दिखाना था.
अनुषा और महमूद दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज जैसे नए फिल्मकारों के प्रशंसक हैं. हालांकि उन्हें लगता है कि आज की ज्यादातर फिल्में अपने समाज से कटी हुई हैं और उनमें उस परिपक्वता का 20वां हिस्सा भी नहीं है जो 70 के दशक के सिनेमा में दिखती थी. महमूद कहते हैं, ‘हम उस स्तर के आसपास भी नहीं हैं जब विजय तेंदुलकर ने मंथन के लिए संवाद लिखे थे.’
जब अनुषा और महमूद किसी निर्माता की तलाश में पहली बार मुंबई आए थे तो सईद मिर्जा और नसीरुद्दीन शाह जैसी हस्तियों ने उनसे कहा था कि यह शहर साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए नहीं है. महमूद कहते हैं, ’70 और 80 के दशक में अगर आपके पास पैसा नहीं होता था तो भी आपको इज्जत मिलती थी. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब ऐसा कोई नहीं है जो कहे कि कोई बात नहीं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. और मीडिया भी इस मानसिकता के लिए तमाम दूसरी चीजों जितना ही जिम्मेदार है.’
अनुषा अब फिर से दिल्ली में हैं. फिलहाल वे किसी नए प्रोजेक्ट पर काम नहीं कर रहीं. उधर, महमूद 1857 की क्रांति पर लिखी गई अपनी पहली किताब निकालने की तैयारी कर रहे हैं. उन्हें अपने संघर्ष के दौर वाले वे दिन अब भी याद हैं जब उनके पास कपड़े खरीदने और कभी-कभी तो खाने तक के पैसे नहीं होते थे. अनुषा कहती हैं, ‘हम शिद्दत से यह फिल्म बनाना चाहते थे, इसलिए हम इसे वीडियो पर भी बना लेते.’