'दुविधाएं और सुविधाएं'

शायद हिंदी के किसी भी साहित्य विशेषांक के लिए यह पहला प्रयास होगा कि इस अंक में हमने विभिन्न प्रकाशकों, साहित्यकारों और समालोचकों आदि से अनुरोध करके, उनसे बात करके तमाम तरह की सर्वेक्षणनुमा जानकारियां भी संकलित की हैंएक समाचार पत्रिका – वह भी पाक्षिक – द्वारा साहित्य विशेषांक निकालने की अपनी ही दुविधाएं हैं. इस विशेषांक का विचार तो काफी पहले बन गया था मगर इसके बनते ही तहलका के उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड संस्करण की योजना भी बन गई. विशेषांक को आपाधापी में निकालने से इसके साथ अनचाहे अन्याय का खतरा तो था ही साथ ही नए संस्करण के लांच हो जाने के बाद यह और भी ज्यादा लोगों तक पहुंच सकेगा ऐसा लालच भी था. हमें इसका प्रकाशन टालना पड़ा.

इसके बाद कई बार हम इस संस्करण को निकालने की योजना के अंतिम चरण में पहुंचे और ठिठके क्योंकि उसी दौरान देश में कुछ बेहद महत्वपूर्ण घटित हो गया था. उदाहरण के तौर पर, इससे पहले हम इस निर्णय पर पहुंचे ही थे कि दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने 76 जवानों की हत्या कर दी. एक समाचार पत्रिका होने के धर्म की पूर्ति के लिए साहित्य विशेषांक को थोड़े समय के लिए स्थगित करने के अलावा कोई और चारा ही नहीं था.

हाल ही में भोपाल त्रासदी पर आए अदालत के फैसले और उस पर उठे विवाद ने हमें एक बार फिर धर्मसंकट में धकेल दिया. किंतु अंत में यह सोचकर कि एक तो हम अपने पाठकों से पिछले अंक में इस विशेषांक का वादा कर चुके हैं; दूसरा भोपाल त्रासदी के बारे में हम पहले भी कई रपटें छाप चुके हैं और तीसरा पानी के बुलबुलों सी क्षण में मिटने को उठती खबरों वाले इस दौर में न्याय की ऐसी लड़ाइयों से जुड़ी खबरों की एकसाथ भीड़ लगना ही नहीं बल्कि उनका समय-समय पर आते रहना भी ज़रूरी है, हम इस विशेषांक को बिना और विलंब किए छापने के निर्णय पर पहुंच गए.

मगर सोचें तो समाचार पत्रिका के साहित्य विशेषांक के अपने कुछ फायदे भी हैं. इस अंक में न केवल दस्तावेज़ और अन्यान्य जैसी बहुपयोगी श्रेणियां मौजूद हैं बल्कि इसे लोकतांत्रिक और सर्वसमावेशी बनाने की ओर भी विशेष ध्यान रखा गया है: इसमें अनुभवी दिग्गजों को समुचित सम्मान देते हुए साहित्यिक संभावनाओं के नए संकेतों का भी उतनी ही गर्मजोशी से स्वागत किया गया है; अंक में यह सोच साफ नज़र आती है कि साहित्य की साधना के केंद्र दिल्ली या कुछेक बड़े-मझोले शहर ही नहीं हैं. जहां इसमें स्वयं प्रकाश जी और काशीनाथ जी जैसे साहित्य के मूर्धन्य और प्रसून जोशी और जावेद अख्तर जैसे प्रचलित संस्कृति के ख्यातिनाम स्तंभ हैं वहीं दुर्ग के कैलाश बनवासी और दरभंगा के मनोज कुमार झा सरीखी अपेक्षाकृत कम जाने-पहचाने शहरों की प्रतिभाएं भी हैं; इसमें अंग्रेजी के प्रख्यात रचनाकार रस्किन बॉन्ड की रचना – जो उन्होंने खास तौर पर तहलका के लिए लिखी थी – को भी शामिल किया गया है.

इसके अलावा हालांकि यह बहुत सोचा-समझा नहीं है मगर शायद यह तहलका की मूल प्रवृत्ति से ही उपजा होगा कि हमारी ओर से इस अंक में लिखने के लिए महिला रचनाकारों को भी पर्याप्त संख्या में आमंत्रित किया गया था जिनमें से कई की रचनाएं इसमें शामिल हैं.

शायद हिंदी के किसी भी साहित्य विशेषांक के लिए यह पहला प्रयास होगा कि इस अंक में हमने विभिन्न प्रकाशकों, साहित्यकारों और समालोचकों आदि से अनुरोध करके, उनसे बात करके तमाम तरह की सर्वेक्षणनुमा जानकारियां भी संकलित की हैं. इससे न केवल यह अंक और भी ज्यादा पठनीय और रोचक बनेगा बल्कि पाठकों की जानकारी को कुछ और समृद्ध कर उन्हें लाभान्वित करेगा, ऐसी तहलका में हम सभी को उम्मीद है.

हमारे इस प्रयास का स्वरूप हिंदी के वरिष्ठ रचनाकार भगवानदास मोरवाल जी के नि:स्वार्थ सहयोग के बिना ऐसा हो ही नहीं सकता था. उनका आभार.

यहां तहलका में मेरे सहयोगी और विलक्षण लेखन प्रतिभा गौरव सोलंकी का उल्लेख करना भी आवश्यक है जिनका इस विशेषांक के संपादन में उतना ही योगदान है जितना कि मेरा.

अंत में अन्य समाचार पत्रिकाओं के कुछ रोचक और कुछ उत्तेजक (विचारोत्तेजक नहीं) विशेषांकों वाले इस दौर में ‘पठन-पाठन’ जैसे गंभीर आयोजनों की कितनी प्रासंगिकता है, इसे तय करने का अधिकार आपका है. इस अधिकार से लिखी आपकी प्रतिक्रियाओं का हमें इंतज़ार रहेगा. 

संजय दुबे, वरिष्ठ संपादक