दूरसंचार की घातक मार

मानकों से परे जाकर आम आदमी के स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसी चिंताओं को दरकिनार कर  कदम-कदम पर उग आए मोबाइल फोन टावरों द्वारा फैलाए जा रहे एक अदृश्य प्रदूषण पर तहलका का सर्वेक्षण और अतुल चौरसिया की रिपोर्ट 

लगभग महीने भर पहले दिल्ली में तहलका द्वारा  करवाया गया ईएमआर (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन) सर्वेक्षण देश के किसी महानगर में इतने बड़े पैमाने पर हुआ अपनी तरह का पहला ऐसा सर्वेक्षण था. इसके नतीजे बेहद चिंतनीय और आंख खोलने वाले भी थे. सर्वे में उजागर हुआ कि प्रगति और आधुनिकता के प्रतीक बन जगह-जगह फफूंद-कुकुरमुत्तों की तरह उग आए मोबाइल फोन टावर आज दबे-छुपे हमारे स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी खतरे का सबब बन गए हैं. गर्भवती स्त्रियों पर ईएमआर के विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंकाएं तमाम अमेरिकी चिकित्सा जर्नलों में आ चुकी हैं और शोध में लंबे समय तक इसके  सीधे संपर्क में रहने वाले पक्षियों की रिहाइश और अंडों पर विपरीत प्रभाव पड़ते पाया गया है. दिल्ली के नतीजों ने बताया कि यहां की 80 फीसदी आबादी सीधे तौर पर ईएमआर के खतरे का सामना कर रही है. महज 20 फीसदी लोग इसकी जद से बाहर हैं और इसमें भी अधिकतर वे लोग और इलाके हैं जिन्हें वीवीआईपी माना और कहा जाता है.

मधुमक्खी, गौरैया और रेडिएशन

इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन के पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव महज बौद्धिक जुगाली नहीं रह गए हैं. इसका प्रभाव जीवन के विभिन्न स्वरूपों और उसकी कार्यप्रणाली पर पड़ता है. शोध में यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि उच्च आवृत्ति वाली तरंगों के सीधे संपर्क में आने वाले पेड़ तरंगों को विद्युत तरंगों में परिवर्तित कर देते हैं जो सीधे मिट्टी में चली जाती हैं. इससे मिट्टी की इलेक्ट्रिकल कंडक्टिविटी और पीएच मान बदल जाते हैं.
यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के एक अध्ययन में पता चला है कि इंगलैंड और हॉलैंड में 1980 से अब तक मधुमक्खियों के 80 फीसदी पर्यावास (छत्ते) खत्म हो चुके हैं जबकि फ्लोरिडा में 2007-2008 के दौरान मधुमक्खियों के 35 फीसदी छत्ते गायब हो गए. हाल ही में एक भारतीय वैज्ञानिक वीपी शर्मा ने अपने पीएचडी शोध के दौरान पाया कि ईएमआर के सीधे संपर्क में रहने वाले छत्तों में रानी मक्खी के अंडे देने की दर में गंभीर गिरावट आई है. उन्हें मधुमक्खियों के पराग इकट्ठा करने और वापस छत्ते में लौटने की प्रक्रिया में भी भारी गड़बड़ी देखने को मिली. आज मैं ये मानने को विवश हूं कि मधुमक्खियों के छत्तों में आ रही गिरावट ईएमआर की वजह से ही है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ मधुमक्खियां ही इसका शिकार हो रही हैं, गौरैया को याद कीजिए. कितने दिन पहले उसने आपके घर, आंगन या बालकनी में अपना घोंसला बनाया था. याद नहीं आएगा. देखते ही देखते ये चिड़िया हमारे आस-पास से विलुप्त-सी हो गई है. कीटनाशक, रहन-सहन में बदलाव, गाड़ियों की बढ़ती संख्या जैसे तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन पूरी दुनिया में एकाएक विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई इस चिड़िया के साथ एक ही घटना जुड़ती है, दुनिया भर में देखते ही देखते खड़े हो गए सेलफोन टावर और ईएमआर.

तहलका के दिल्ली सर्वेक्षण में सामने आए चिंताजनक आंकड़ों को संज्ञान में लेते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने इसकी पड़ताल करने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया है. यह पैनल सेलफोन टावरों से होने वाले रेडिएशन के अस्वास्थ्यकर प्रभावों के साथ ही इससे जुड़े विरोधाभासी पहलुओं की भी जांच करेगा. इस समिति को तीन महीनों के भीतर अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपनी है.
तहलका को ईएमआर सर्वेक्षण का विचार पहली दफा दिल्ली में रहने वाले 46 वर्षीय उद्योगपति रेहान दस्तूर से मुलाकात के बाद आया. रेहान ने अपना पहला मोबाइल फोन अक्टूबर 1997 में एयरटेल द्वारा दिल्ली की पहली मोबाइल सेवा शुरू करने से पंद्रह दिन पहले ही खरीद लिया था. उस वक्त जब मोबाइल फोन की दरें 18 रुपए प्रति मिनट हुआ करती थीं, रेहान घंटों मोबाइल पर बातें किया करते थे. जल्द ही इसका दुष्प्रभाव भी देखने को मिला. तीन साल बाद 2000 में रेहान जबर्दस्त लकवे के शिकार हो गए. जांच में अपोलो अस्पताल के डॉक्टरों ने पाया कि ईएमआर ने उनके कान और तंत्रिका तंत्र के साथ ही मस्तिष्क की कोशिकाओं को भी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिया है. आज रेहान का शरीर ईएमआर नापने का चलता-फिरता उपकरण बन गया है. रेहान कहते हैं, ‘अगर आप मेरी आंख पर पट्टी बांधकर मुझे शहर में घुमाएं तो भी मैं मोबाइल फोन टावर के पास से गुजरते हुए बता सकता हूं कि यहां टावर है. टावर से निकलने वाली तरंगें मेरी तंत्रिकाओं से टकरा कर एक प्रकार का स्पंदन पैदा करती हैं.’

हम सामान्यत: दो प्रकार के रेडिएशन से पिरचित हैं. एक, न्यूक्लियर रेडिएशन जिसके बारे में हम हिरोशिमा, नागासाकी से लेकर हाल ही में दिल्ली में  कोबाल्ट-60 से हुई मौत के संदर्भ में पढ़ते-सुनते रहे हैं. इस प्रकार का रेडिएशन आयोनाइजेशन आधारित प्रक्रिया होती है जिसमें शरीर पर तुरंत ही विनाशकारी प्रभाव पड़ने और दिखने लगते हैं. आयोनाइजेशन रेडिएशन का दुष्प्रभाव व्यक्ति के डीएनए पर होता है जिसके नतीजे लंबे अरसेे तक अपना असर बनाए रहते हैं.

टेलीफोन टावर से निकलने वाला ईएमआर दूसरी तरह का रेडिएशन है जिसमें शरीर पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव लंबे अंतराल के बाद सामने आता है. यह व्यक्ति के डीएनए पर कोई असर नहीं डालता.  विशेषज्ञों के मुताबिक ईएमआर धीमे जहर की तरह है. सिरदर्द, थकान और चिड़चिड़ापन इसके प्रारंभिक लक्षण हैं और लंबे अंतराल के बाद इसके नतीजे कैंसर और ब्रेन ट्यूमर के रूप में भी सामने
आ सकते हैं.

सेलफोन टावर से खतरे की सबसे बड़ी वजह यह है कि ये रिहाइशी इलाकों में लगे हुए हैं जबकि इन्हें इनसे दूर होना चाहिए; एंटेना की ऊंचाई सुरक्षित मानकों से नीचे होती है जबकि इन्हें पर्याप्त ऊंचाई पर होना चाहिए; इनकी संख्या बहुत अधिक है जबकि काफी कम संख्या से ही काम चल सकता है.

हमारे यहां ईएमआर से जुड़े खतरों के मद्देनजर अपनाई जाने वाली एहतियात मुख्य रूप से जर्मनी में पंजीकृत गैर सरकारी संस्था इंटरनेशनल कमीशन ऑन नॉन आयोनाइजिंग रेडिएशन प्रोटेक्शन (आईसीआईएनआरपी) के मानकों पर आधारित है. भारत में ईएमआर के खतरों का परीक्षण कर रही कंपनी कोजेंट ईएमआर सॉल्यूशन (जिसके साथ मिलकर तहलका ईएमआर सर्वेक्षण कर रहा है) ने भी इन्हीं मानकों के आधार पर हमारे यहां ईएमआर की सुरक्षित सीमा 600 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर (मिलीवाट) निर्धारित की है. 601 से 1,000 मिलीवाट का दायरा बॉर्डरलाइन माना गया है यानी यह खतरे के आसपास है. 1,001 से 4,000 मिलीवाट खतरे वाला क्षेत्र है जबकि 4,000 मिलीवाट से ऊपर को गंभीर संकट वाले क्षेत्र में शामिल किया गया है.

दिल्ली में मिले गंभीर आंकड़ों के बाद तहलका और  कोजेंट का अगला पड़ाव स्वप्ननगरी मुंबई था जहां के आंकड़े और भी चौंकाने वाले रहे. मसलन, गंभीर संकट वाले इलाकों की संख्या यहां दिल्ली के मुकाबले कहीं ज्यादा थी. मुंबई के लगभग 65 फीसदी इलाके गंभीर संकट के दायरे में पाए गए  और  सुरक्षित और बॉर्डरलाइन इलाके 10 फीसदी से भीकम निकले.

इन गंभीर आंकड़ों के सामने आने के बाद तहलका ने अपने सर्वेक्षण का दायरा और व्यापक करने का फैसला किया जिसके तहत मंझले दर्जे के शहरों को इसमें शामिल करने की योजना बनाई गई. देश के इन इलाको में रहने वाले लोग सूचना क्रांति की मखमली चादर में छिपे दुर्गुणों की क्या कीमत चुका रहे हैं यह जानना भी बेहद जरूरी लगा. सो तहलका ने लखनऊ से लेकर बनारस और आगरा से लेकर देहरादून तक मोबाइल फोन कंपनियों द्वारा फैलाए जा रहे अदृश्य विकिरण प्रदूषण का सच जानने का फैसला किया. इसके नतीजे भी दिल्ली-मुंबई की तरह ही चौंकाने वाले निकले. बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा, और सड़क जैसे विकास के पैमाने पर भले ही ये शहर दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से काफी पीछे खड़े दिखते हों लेकिन ईएमआर प्रदूषण के मामले में ये कदम-दर-कदम इनका मुकाबला करते मिले.

आगे के कुछ पन्नों पर अलग-अलग शहरो में की गई पड़ताल के आंकड़े होंगे और साथ ही होंगी उनसे पैदा हो सकने वाली समस्याएं, बचाव के उपाय और ईएमआर संबंधित शोध के साथ इससे जुड़े तमाम छोटे-बड़े पहलू.

लखनऊ

लखनऊ के प्रतिष्ठित छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के रेडियोथेरेपी विभाग के प्रमुख प्रो मोहनचंद्र पंत कहते हैं, ‘2003 में कई अमेरिकी स्वास्थ्य जर्नलों में इस तरह की खबरें आईं कि दुनिया भर में ब्रेन ट्यूमर के मामले तेजी से बढ़े हैं. इसकी वजहों पर विचार के दौरान हाल के समय में आए प्रमुख बदलावों पर ध्यान केंद्रित किया गया. लगभग सभी जर्नलों की एक राय थी कि बीते दो दशकों के दौरान सबसे बड़े बदलाव का प्रतीक रहे हैं मोबाइल फोन और उसके टावर. इसमें भी एक दिलचस्प तथ्य यह उभरकर सामने आया कि मस्तिष्क के उस हिस्से में ट्यूमर के मामले कहीं ज्यादा सामने आ रहे थे जिस तरफ वाले कान से फोन लगाकर लोग बातें किया करते हैं. इसने हमारा ध्यान ईएमआर से होने वाले रेडिएशन की तरफ खींचा. दिलचस्प तथ्य यह है कि हमारे यहां भी उसी तरह के नतीजे सामने आए हैं. हालांकि अभी तक ईएमआर से इसका सीधा संबंध स्थापित नहीं हुआ है, लेकिन तमाम शोध और स्थितियां इसी ओर इशारा करती हैं.’

डॉ. पंत ने यह लंबा-चौड़ा बयान उन आंकड़ों के सामने रखे जाने के बाद दिया जिन्हें तहलका ने लखनऊ शहर के अलग-अलग स्थानों से इकट्ठा किया था. लखनऊ के हालात चौंकाने वाले हैं. शहर के 15 फीसदी इलाके ईएमआर के गंभीर संकट वाले दायरे में आते हैं जिसका मतलब यह है कि इन इलाकों में ईएमआर का स्तर 4,000 मिलीवाट से अधिक है. 

यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जिन इलाकों में ईएमआर का स्तर 4,000 मिलीवाट से अधिक है वे शहर के सबसे भीड़-भाड़ वाले इलाके हैं. लखनऊ का मुख्य चारबाग रेलवे स्टेशन गंभीर संकट वाले इसी क्षेत्र में आता है. यहां आने-जाने वालों का तांता कभी टूटता ही नहीं है. स्टेशन के मुख्य भवन के साथ ही आसपास स्थित सभी घरों की छतों पर सेल टावर लगे हुए हैं. यहां ईएमआर का स्तर इतना अधिक था कि इसे नापने के लिए इस्तेमाल होने वाला उपकरण हाई फ्रीक्वेंसी एनलाइज़र चालू करते ही क्रैश हो गया. शहर का एक और पॉश इलाका है गोमतीनगर का पत्रकारपुरम चौराहा. यहां भी सर्वेक्षण गंभीर संकट की स्थितियों की ओर इशारा करता है. ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण पुराने लखनऊ का चौक इलाका भी आम भाषा में कहें तो मानो ईएमआर से खचाखच भरा हुआ है. यहां की घनी आबादी, पतली गलियां, भीड़-भाड़ भरे पुराने लखनऊ के बाज़ार और हर दिन आने वाले कामगारों का हुजूम इस संकट को और विषम बना रहे हैं.

शहर के दूसरे बाजारों, रिहाइशी और वीआईपी इलाकों में भी स्थितियां कमोबेश ऐसी ही हैं. तहलका के सर्वेक्षण में 30 फीसदी से ज्यादा इलाके असुरक्षित दायरे में पाए गए. इनमें छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय, प्रदेश सचिवालय, बापू भवन, संजय गांधी परास्नातक चिकित्सा विज्ञान संस्थान (पीजीआई) से लेकर सेंट फ्रांसिस स्कूल तक शामिल हैं. इन इलाकों में ईएमआर का स्तर 1,000 से 4,000 मिलीवाट तक है. पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में एम्स के विकल्प के रूप में मशहूर पीजीआई के मुख्य द्वार पर ईएमआर का स्तर 1,524 मिलीवाट था जबकि परिसर के भीतर यह बढ़कर 1,880 तक हो गया था. शहर के कुछ प्रतिष्ठित इलाकों में भी ईएमआर का स्तर असुरक्षित सीमा में है जिनमें हाई कोर्ट की पीठ और जिलाधिकारी कार्यालय भी शामिल हैं. यहां ईएमआर 1530 मिलीवाट तक है.

सर्वेक्षण के तीसरे स्तर में वे इलाके हैं जहां रेडिएशन का स्तर बॉर्डरलाइन यानी कगार पर है.  प्रदेश की सत्ता की धुरी 5 कालीदास मार्ग यानी मुख्यमंत्री मायावती के निवास स्थान के आसपास रेडिएशन 930 मिलीवाट था. इसी तरह समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के आवास 6 विक्रमादित्य मार्ग पर भी रेडिएशन 960 मिलीवाट यानी असुरक्षित होने की कगार पर ही पाया गया. जिन इलाकों में तहलका ने ईएमआर सर्वे किया उनमें से लगभग 20 फीसदी की जनता विकिरण के इसी बॉर्डरलाइन इलाके में रहती है. शहर के सबसे पुराने और ऐतिहासिक बाजारों में शुमार हजरतगंज चौराहा भी इसी दायरे में आता है. 

सर्वेक्षण में एक और महत्वपूर्ण बात यह सामने आई कि शहर के ऐतिहासिक महत्व वाले लगभग सभी स्थानों पर रेडिएशन का स्तर सुरक्षित दायरे में है. बड़ा इमामबाड़ा और रूमी दरवाजा ईएमआर के लिहाज से शहर के सबसे सुरक्षित इलाके हैं. यहां इसका स्तर 115 और 120 मिलीवाट तक है. प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी के निवास स्थान राजभवन के पास भी यह 223 मिलीवाट के सुरक्षित स्तर पर है. सहारा शहर के आसपास का इलाका भी सुरक्षित दायरे में ही पाया गया. प्रदेश की शीर्ष पंचायत विधानसभा भवन के मुख्य द्वार पर भी रेडिएशन 580 मिलीवाट यानी सुरक्षित सीमा के भीतर ही था.

बनारस

बनारस में हमारे सर्वेक्षण की शुरुआत ही हाहाकारी तरीके से हुई. जिन तीन जगहों पर हमने पहले-पहल एचएफ एनालाइज़र लगाया उन सभी जगहों पर एनालाइज़र क्रैश कर गया यानी इन स्थानों पर रेडिएशन का स्तर 4,000 मिलीवाट की सीमा से पार था. रही-सही कसर सारनाथ के पास चाय की दुकान पर बैठे सुजीत कुमार ने हमारा ज्ञानवर्धन करके पूरी कर दी. मंदिरों और गलियों के इतर अगर इस शहर की किसी और पहचान की बात की जाए तो वह है अध्यात्म और शांति की खोज में पश्चिम से खेप की खेप आनेवाली विदेशियों की जमात. ये लोग यहां स्थानीय लोगों के बीच उन्हीं के घरों में रहते हैं. यह एक अलग किस्म की अर्थव्यवस्था है जिसमें स्थानीय लोगों को फायदा हो जाता है और विदेशियों का काम उनके हिसाब से सस्ते में निपट जाता है.

सुजीत कुमार कहते हैं, ‘बनारस में पश्चिमी देशों से  आए लोग स्थानीय लोगों के घरों में रहते हैं जबकि सारनाथ के आस-पास के इलाकों में चीन, जापान जैसे बौद्ध धर्म से प्रभावित देशों के नागरिक स्थानीय लोगों के घरों में रहते हैं. मगर बीते चार-पांच सालों से यहां आने वाले पर्यटकों में एक खास बात देखने को यह मिल रही है कि यह उन घरों के आस-पास रहना ही नहीं चाहते जहां सेलफोन टावर लगे हुए हैं.’ इस बातचीत के बाद जब हमने पूरे दिन में इकट्ठा किए आंकड़ों का विश्लेषण करना शुरू किया तो हमारी आंखें खुली-की-खुली रह गईं. यहां के हालात मुंबई की तरह गंभीर होने का संकेत देते हैं. अगर गंभीर संकट और असुरक्षित क्षेत्रों की बात बनारसी लहजे में ही करें तो शिव की नगरी के 65 फीसदी इलाके और यहां के निवासी भांग-धतूरे की बजाय ईएमआर के नशे में जी रहे हैं. इनमें सिगरा स्थित आईपी मॉल, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, कैंट रेलवे स्टेशन और पाण्डेयपुर नई बस्ती स्थित नवजीवन अस्पताल के आसपास रेडिएशन का स्तर गंभीर संकट के दायरे में पाया गया. यानी यहां रेडिशन का स्तर 4,000 मिलीवाट के पार गंभीर संकट के क्षेत्र में अपना डेरा डाले हुए है. इसके अतिरिक्त भी शहर के ज्यादातर इलाको में रेडिएशन का स्तर असुरक्षित सीमा में ही पाया गया. कुबेर कांप्लेक्स, रथयात्रा, दुर्गाकुंड, नई सड़क, बांस फाटक, गदौलिया चौराहा, लहुराबीर से लेकर बीएचयू मुख्य द्वार तक सभी जगहों पर रेडिएशन का स्तर असुरक्षित सीमा में है. इन क्षेत्रों में औसतन ईएमआर 1,075 से 1,500 मिलीवाट के बीच पाया गया. काशी विश्वनाथ मंदिर के मुख्य द्वार पर भी रेडिएशन स्तर 1,088 मिलीवाट था. ये शहर के वे इलाके हैं जो व्यावसायिक और धार्मिक गतिविधियों के केंद्र हैं. इसके अलावा शहर की भीड़ और घनी आबादी वाली बसावट को देखते हुए रेडिएशन का असुरक्षित स्तर चिंता का विषय है.

बनारस में सिर्फ दो जगहें ऐसी मिलीं जो कगार पर यानी खतरे की सीमा के आस-पास थींं. ये हैं पहड़िया कॉलोनी और वाराणसी छावनी इलाके में स्थित जेएचवी मॉल जहां इन दिनों शहर के नौजवान दिल्ली मार्का बनारस बनाने में लगे हुए हैं. रेडिएशन के प्रकोप से सुरक्षित इलाकों की बात करें तो पूरे शहर में ऐसे करीब 25 फीसदी क्षेत्र ही हैं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण दो स्थल हैं, अस्सी घाट और सारनाथ बौद्ध स्तूप. ये दोनों ही जगहें विदेशियों की आमद से गुलजार रहती हैं और यहां रेडिएशन 30 और 280 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर है. इसी तरह दशाश्वमेध घाट और बीएचयू कैंपस में भी रेडिएशन का स्तर सुरक्षित सीमा में है. शहर भर में असुरक्षित स्तर की बात करते हुए जब हम संकट मोचन मंदिर पहुंचे तो वहां सुरक्षित स्तर पाकर हैरानी हुई. अब तक चुपचाप हमारी बातें सुन रहे हमारी गाड़ी के ड्राइवर त्रिपाठी जी कहते हैं, ‘सब बजरंग बली की कृपा है. यहां कौन प्रदूषण फैला सकता है.’

सेहत पर असर

ईएमआर के दुष्परिणाम अल्पकालिक और दीर्घकालिक हो सकते हैं. आज सिरदर्द कल ब्रेन ट्यूमर की शक्ल ले सकता है

1. शुरुआती पेसमेकर की कार्यप्रणाली को नुकसान पहुंचा सकता है.

2. इसका मरीज पर घातक असर हो सकता है तीन वर्ष बाद भूख न लगना, अनिद्रा, सिरदर्द और थोड़े समय के लिए याददाश्त चले जाना

3. 4-5 साल बाद टिनिटस, मांसपेशियों में अकड़न, दृष्टिदोष, चर्मरोग

5. 5-10 साल बाद शुक्राणुओं की संख्या में कमी, हृदय एवं सांस संबंधी तकलीफें

6. 8-10 साल बाद तंत्रिकाओं में स्पंदन, ब्रेन ट्यूमर, ल्यूकीमिया

आगरा

लखनऊ के मिले-जुले और बनारस के एकतरफा असुरक्षित आंकड़ों के बाद रेडिएशन को लेकर आगरा के प्रति कोई तस्वीर नहीं बन पा रही थी. इसी उधेड़बुन के बीच आगरा में सर्वेक्षण की शुरुआत की गई. बार-बार चौंकाने वाली भारतीय नगरों की कला से आगरा ने एक बार फिर रूबरू करवाया. आश्चर्यजनक रूप से आगरा में सिर्फ दो स्थान ऐसे मिले जहां स्थितियां गंभीर संकट में फंसी हुई हैं. इनमें से एक सदर बाजार का इलाका है और दूसरा यहां का अदालती परिसर यानी दीवानी कचहरी. यहां अहम बात यह है कि ये दोनों ही जगहें भीड़-भाड़ और गतिविधियों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं. एक जगह पूरे जिले से लोग अपना झगड़ा निपटाने के लिए जुटते हैं तो दूसरी जगह शहर के संपन्न तबके की आमद हमेशा बनी रहती है.

हमारे द्वारा सर्वेक्षण किए गए इलाकों में से आगरा में असुरक्षित सीमा के दायरे में करीब 38 फीसदी इलाके आते हैं. लखनऊ और बनारस की तुलना में देखे तो आगरा गंभीर संकट वाले क्षेत्रों के साथ ही असुरक्षित सीमा के मामले में भी कुछ हद तक बचा हुआ है. हालांकि इसी असुरक्षित दायरे में शहर के ऐतिहासिक महत्व वाले इलाके आते हैं, शहर का सबसे बड़ा मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल आता है, और शहर की व्यवस्था का संचालन करने वाली संस्थाओं के कार्यालय भी.

ताज महोत्सव सहित आगरा में होने वाले बड़े-बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजित किए जाने की जगह सूर सदन – जो आगरा नगर निगम के मुख्यालय के पड़ोस में स्थित है – के आसपास रेडिएशन का स्तर 1,374 मिलीवाट के असुरक्षित दायरे में था. यही हालात मशहूर भगवान टाकीज चौराहे पर भी हैं. मेडिकल कॉलेज के पास स्थित किनारी बाजार में रेडिएशन 1,014 मिलीवाट था. इसी तरह शम्साबाद स्थित राजेश्वर मंदिर के पास की रिहाइशी कॉलोनी में ईएमआर 1,048 मिलीवाट के स्तर पर था. इन जगहों पर स्थितियां खराब होने की वजह है यहां छोटे-बड़े ढेर सारे मोबाइल टावरों का जाल-सा बिछा होना. शहर के प्रतिष्ठित एसएन मेडिकल कॉलेज परिसर और मैटरनिटी केंद्र के पास भी रेडिएशन 1,421 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर के स्तर पर पाया गया.

कैंट स्थित रेलवे स्टेशन और सिकंदरा के आसपास का इलाका असुरक्षित सीमा के कगार पर है. इन  जगहों पर ईएमआर 630 और 923 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर तक है. अगर सुरक्षित क्षेत्रों की बात करें तो आगरा अकेला ऐसा शहर है जहां ये असुरक्षित क्षेत्रों के करीब-करीब बराबर हैं यानी शहर के करीब 38 फीसदी इलाके अभी भी ईएमआर की चपेट में आने से बचे हुए हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण है जगप्रसिद्ध ताजमहल जहां रेडिएशन का स्तर महज 43 मिलीवाट है. इसी तरह फतेहाबाद रोड स्थित टीडीआई मॉल, राजा मंडी और लाल किला के आसपास के इलाके भी अभी सुरक्षित सीमा में हैं. आगरा के जिलाधिकारी कार्यालय के आसपास के इलाके भी सुरक्षित दायरे में हैं. लखनऊ और बनारस की तुलना में देखें तो आगरा में अभी स्थिति कुछ हद तक नियंत्रण में है.

देहरादून

उत्तर प्रदेश के बाद बारी उत्तराखंड की थी. यहां तहलका ने देहरादून को सर्वेक्षण के लिए चुना. देहरादून के आंकड़े लखनऊ, वाराणसी और आगरा सर्वेक्षण में मिले आंकड़ों के विपरीत कहानी बयान करते हैं. लिहाजा हमने देहरादून की कथा उल्टी दिशा शुरू करने का फैसला किया यानी गंभीर संकट वाले इलाकों की बजाय सुरक्षित सीमा वाले क्षेत्रों से. देहरादून पहला ऐसा शहर था जहां सुरक्षित सीमा में आने वाले क्षेत्र 45 फीसदी थे, आधे से थोड़ा ही कम. हालांकि देहरादून की पहचान और इसके अतीत को देखते हुए यह आंकड़ा कम ही है, पर बाकी शहरों के मुकाबले स्थिति कुछ हद तक संतोषजनक है. मुख्यमंत्री आवास, भारतीय सैन्य अकादमी, ओएनजीसी भवन, प्रदेश सचिवालय और राज्यपाल निवास जैसे ज्यादातर महत्वपूर्ण स्थानों पर ईएमआर का स्तर 185 से 35 मिलीवाट के बीच ही पाया गया. यहां एक बात गौर करने वाली है कि मुख्यमंत्री आवास के पास ही यमुना कॉलोनी स्थित है. वीआईपी इलाका होने की वजह से इसके स्वरूप में ज्यादा बदलाव नहीं आया है. वेलहम स्कूल के आसपास का इलाका भी सुरक्षित दायरे में हैं, महज 49 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर. यह शहर का पुराना और काफी हरा-भरा इलाका है जो अपेक्षाकृत शांत रहता है.  विधानसभा भवन और शहर के प्रतिष्ठित दून हॉस्पिटल के आस-पास भी रेडिएशन का स्तर सुरक्षित सीमा में ही पाया गया.

असुरक्षित सीमा के कगार पर खड़ी जगहों की बात करें तो श्री महंत इंद्रेश अस्पताल, घंटाघर और पुलिस मुख्यालय प्रमुख हैं. घंटाघर को देहरादून का दिल माना जाता है. यहां रेडिएशन का स्तर 957 मिलीवाट था. घंटाघर से सटे हुए ही राजपुर रोड और पल्टन बाजार जैसे व्यस्त बाजार भी हैं.

हमारे द्वारा सर्वेक्षित इलाकों में देहरादून के गंभीर संकट वाले और असुरक्षित क्षेत्रों को एक साथ रखें तो ये करीब 40 फीसदी के आसपास हैं. इनमें गंभीर संकट वाले क्षेत्र महज 3 हैं. इनमें धर्मपुर स्थित नेहरू कॉलोनी और दर्शनलाल चौक के इलाके आते हैं जो कि आबादी और बसाहट के लिहाज से बेहद घने और भीड़-भाड़ वाले इलाके है. लालपुल, फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट, किशन नगर चौक, बिरला कॉम्प्लेक्स, सर्वे चौक आदि ऐसे नाम हैं जो शहर में दैनिक गतिविधियों के केंद्र हैं. रेडिएशन के लिहाज से ये इलाके असुरक्षित सीमा में हैं यानी यहां पर ईएमआर 1,000 से 4,000 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर के बीच है. सर्वे चौक की बात करें तो इसके आसपास ही डीएवी और डीबीएस कॉलेज हैं. सर्वे चौक पर आंकड़े इकट्ठा करने के दौरान पास ही बड़ी उत्सुकता से सारी गतिविधि पर नजर रख रहे सुरेश नौटियाल को जब पता चला कि हम यहां सेलफोन टावर से होने वाले रेडिएशन की जांच कर रहे हैं तो वे अपनी नाराजगी छिपा नहीं सके, ‘डिस्कवरी चैनल पर भी टावरों से निकलने वाली तरंगों के नुकसान के बारे में दिखाया जाता है. अमेरिका में तो रिहाइशी इलाकों, अस्पतालों, स्कूलों, बाजारों के आसपास इनके लगाने की मनाही है. पर हमारे यहां न तो सरकार को चिंता है न मोबाइल कंपनियों को.’

हाल ही में दिल्ली नगर निगम ने अपने अधिकार क्षेत्र में खड़े अवैध टावरों को सील करना शुरू किया था. यहां इस घालमेल को साफ समझने की जरूरत है कि दिल्ली नगर निगम की कार्रवाई स्वास्थ्यगत चिंताओं से कतई जुड़ी नहीं है. ऊपर से ये कार्रवाइयां भी एक हल्ले में शुरू होकर दूसरे हल्ले में दम तोड़ देती हैं क्योंकि भूमंडलीकरण के दौर में कॉर्पोरेट की आर्थिक भुजाएं कानून और सरकार के लंबे-लंबे हाथों से कहीं बड़ी हो चुकी हैं. ‘दिल की बात दिन रात’ वाले दावे रेहान दस्तूर और इस अदृश्य प्रदूषण की मार झेल रहे उनके जैसे तमाम लोगों के लिए नहीं बने हैं. अपना योगदान पूरा कर फिलहाल वे कीमत चुका रहे हैं. इधर दुनिया को मुट्ठी में करने के सपने दिनों दिन और मजबूत होते जा रहे हैं.