आम का कौन मर्द-ए-मैंदा है…

यों तो वो एक आम आदमी हैं. लेकिन आम होते हुए भी वो बेहद खास हैं. खास इसलिए कि उनके लिए आम महज आम नहीं, खासुल खास हैं. आम उनकी इबादत हैं. आम उनका सपना है, जुनून हैं, आम उनकी दिल की धड़कन हैं. दिमाग की हलचल हैं. असल में आम उनकी जिन्दगी हैं. 1957 से उनके लिए जिन्दगी में जो चीज सबसे बढ़कर है वो है आम. आम की इसी दीवानगी के चलते कुछ लोग उन्हें आम इंसान कहते हैं तो कुछ उन्हें आम का दीवाना. कुछ तो उन्हें आम का खब्ती तक कहने में भी नहीं चूकते हालांकि उनकी इसी खब्त ने उन्हें पद्मश्री बना डाला है और उनकी जुबान को इतना मीठा कि गोया सारे बागों का रस उसी में धुल गया हो.

सचिन कलीमुल्ला द्वारा विकसित आम की एक ऐसी नई नस्ल है जिसे वे क्रिकेट के बादशाह सचिन तेंदुलकर को समर्पित कर चुके हैं. नौ साल से वे इस खास नस्ल को तैयार करने में जुटे थे

आधी सदी से भी ज्यादा समय से आम की काश्तकारी करते करते कलीमुल्लाह खान आम के डाक्टर भी बन चुके हैं और इंजीनियर भी. अपनी नर्सरी में एक पेड़ पर कलमें बांध कर 300 से ज्यादा किस्म के आम पैदा करके बना उनका अपना अनूठा रिकार्ड आज उनके ही दूसरे कारनामों में कहीं खो चुका है. 72 साल की उम्र में भी लखनऊ के करीब के मलीहाबाद कस्बे के हाजी कलीमुल्लाह खान की आम के प्रति दीवानगी में कोई कमी नहीं आई है. आधी सदी से भी ज्यादा समय से आम की काश्तकारी करते करते कलीमुल्लाह खान आम के डाक्टर भी बन चुके हैं और इंजीनियर भी. अपनी नर्सरी में एक पेड़ पर कलमें बांध कर 300 से ज्यादा किस्म के आम पैदा करके बना उनका अपना अनूठा रिकार्ड आज उनके ही दूसरे कारनामों में कहीं खो चुका है.

कलीमुल्लाह खान का सबसे नया कारनामा है सचिन. सचिन उनके द्वारा विकसित आम की एक ऐसी नई नस्ल है जिसे वे क्रिकेट के बादशाह सचिन तेंदुलकर को समर्पित कर चुके हैं. नौ साल से वे इसको तैयार करने में जुटे थे. इस साल पहली बार इसमें फल आया तो उन्होंने इसका नाम सार्वजनिक कर दिया. लगभग 800 ग्राम तक आकार वाले इस आम की गुठली बहुत छोटी है, गूदा बेहद स्वादिष्ट और यह देखने में भी बहुत सुन्दर है.

कलीमुल्लाह खेलों के शौकीन हैं इसलिए उनके पास इस खास आम को सचिन नाम देने के पीछे भी एक खास वजह है. वे कहते हैं हमारा सचिन तेंदुलकर ऐसा है कि पूरी दुनिया में उसका एक अलग मुकाम है. वो एक अजूबा है और जो बात उसमें है वो किसी दूसरे में नहीं. ठीक इसी तरह हमारा ये जो सचिन आम है वो भी सबसे अलग है. अपने रंग स्वाद आकार और वजन से यह पूरी दुनिया में वैसा ही नाम कमाएगा जैसा सचिन तेंदुलकर ने कमाया है. हर जानदार चीज को एक दिन चले जाना है. हम भी नहीं रहेंगे. लेकिन फल-फूलों की नस्लें हमेशा रहेंगी. इस सचिन आम के जरिए हमारे सचिन का नाम रहती दुनिया तक बना रहे ऐसी हमारी ख्वाहिश है.

इसे पेटेंट करवाने के साथ ही उन्होंने सचिन तेंदुलकर को मलीहाबाद आने का न्योता भी भेजा है. सचिन के खाने के लिए भी वो इस आम को भिजवाना चाहते हैं. आम की कई दर्जन नस्लें विकसित कर चुके कलीमुल्लाह अब एक ब्रांड नेम बन चुके हैं. उनकी नर्सरी की पौध में उनके नाम की गारंटी जो जुड़ी होती है. सचिन के चर्चा में आ जाने के बाद कलीमुल्लाह खुश तो बहुत हैं मगर उन्हें थोड़ा अफसोस भी है. अफसोस इस बात का कि वे अब तक महात्मा गांधी के नाम से आम की नस्ल विकसित नहीं कर पाए. वे कहते हैं, हम ठहरे काश्तकार आदमी पॉलिटिक्स- वालिटिक्स हम कुछ जानते नहीं. लेकिन हमें सबसे पहले महात्मा गांधी के नाम पर बापू के नाम से एक नए आम का नाम रखना था. गांधी जी ने हमको गुलामी से आजाद करवाया था. हमसे बड़ी गलती हो गई. कलीमुल्लाह की तमन्ना पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के नाम से भी आम की एक नस्ल बनाने की है. मुल्क से उनकी मोहब्बत का आलम यह है कि 80 के दशक में सऊदी अरब के एक शेख ने उन्हें वजन के बराबर सोना देने के एवज में वहीं रहकर आम के बागान लगाने का ऑफर दिया था. मगर कलीमुल्लाह ने अपनी मिट्टी की मोहब्बत में उसे भी ठुकरा दिया.

उसका स्वाद सबसे अलग था और फकीर के पास आने वालों के जरिए उस आम की शोहरत दूर-दूर तक पहुंच गई. धीरे-धीरे उस लंगड़े फकीर के नाम पर उस आम का नाम ही लंगड़ा पड़ गया

लखनऊ के आस पास की मिट्टी और आबोहवा आम के लिए खास है. उत्तर भारत का सबसे प्रसिद्व दशहरी आम काकोरी के पास दशहरी गांव से ही सारी दुनिया में मशहूर हुआ. दशहरी गांव में दशहरी आम का सबसे पुराना पहला पेड़ अब भी फल दे रहा है. इस पेड़ पर कभी अवध में नवाबों के खानदान का मालिकाना हक था. तब फलों के मौसम में इस पेड़ पर जाल डाल दिया जाता था. पेड़ से फल कोई चुरा न ले इसके लिए उस पर पहरा बैठा दिया जाता था. उन दिनों अगर ये दशहरी आम किसी को तोहफे में भेजा भी जाता था तो उसमें छेद कर दिया जाता था ताकि कोई और उसके बीज से नया पेड़ न बना ले. मलीहाबाद के एक पठान जमींदार ईसा खान ने लगभग डेढ़ सौ साल पहले नवाबों के एक पासी गुडै़ते की मदद से इसका एक पेड़ हासिल किया और फिर मलीहाबाद से फैलकर दशहरी ने सारी दुनिया में अपना सिक्का जमा दिया. आज भी मलीहाबाद के गांवों मे बड़े बूढ़ों की जुबान से दशहरी को लेकर तरह तरह के किस्से सुनने को मिल जाते हैं.

मलीहाबाद के इलाके में ही आम की एक और लाजवाब नस्ल चौसा विकसित हुई. संडीला के पास एक गांव है चौसा. वहां एक बार एक जिलेदार ने अपने दौरे के दौरान गांव के एक पेड़ का आम खाया. खास स्वाद और खुशबू के कारण उसे यह आम बहुत पसन्द आया. उसने गांव वालों से उसका एक पेड़ हासिल कर लिया और बाद में नवाब सण्डीला को इसकी खबर दी. फिर नवाब सण्डीला के जरिए चैसा की नस्ल कई जगह फैल गई.

आम की कई और किस्मों के नामकरण के भी अलग-अलग किस्से हैं. आम की एक और जाएकेदार नस्ल लंगड़ा के लिए कहा जाता है कि बनारस के एक लंगड़े फकीर के घर के पिछवाड़े में आम का एक पेड़ उगा था. उसका स्वाद सबसे अलग था और फकीर के पास आने वालों के जरिए उस आम की शोहरत दूर-दूर तक पहुंच गई. धीरे-धीरे उस लंगड़े फकीर के नाम पर उस आम का नाम ही लंगड़ा पड़ गया. इसी तरह बिहार में भागलपुर के एक गांव में फजली नाम की एक औरत के घर पैदा हुए एक और खास आम का नाम उसी औरत के कारण फजली पड़ गया.

भारतीय जनमानस में अनेक किस्से कहानियों से जुड़े आम की जन्मभूमि भी मूलतः पूर्वी भारत में असम बांग्लादेश व म्यांमार मानी जाती है. भारत से ही आम पूरी दुनिया में फैला. चौथी-पांचवी सदी में बौद्ध धर्म प्रचारकों के साथ आम मलेशिया और पूर्वी एशिया के देशों तक पहुंचा. पारसी लोग 10वीं सदी में इसे पूर्वी अफ्रीका ले गए. पुर्तगाली 16वीं सदी में इसे ब्राजील ले गए. वहीं से यह वेस्ट इंण्डीज व मैक्सिको पहुंचा. अमेरिका में यह सन् 1861 में पहली बार उगाया गया. आम का अंग्रेजी नाम मैंगो एक मलयालम शब्द मंगा से विकसित हुआ है. पुर्तगालियों ने इस शब्द को अपनाया और 1510 में पहली बार पोर्तुगीज में आम के लिए मैंगा शब्द लिखा गया जो अंग्रेजी में मैंगो हो गया.

बारे आमों का कुछ बयां हो जाए  

ख़ामां नख़्ले रतबफ़िशां हो जाए

भारत में रामायण- महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों में आम का उल्लेख मिलता है. इस बात का भी जिक्र मिलता है कि सन् 327 ईसा पूर्व में सिकन्दर के सैनिकों ने सिंधु घाटी में आम के पेड़ देखे थे. हुएनसांग ने भी आम का जिक्र किया है और इब्नबतूता के विवरणों में तो कच्चे आम का अचार बनाने और पके आम को चूस कर अथवा काट कर खाने का उल्लेख मिलता है. मुगल बादशाहों को भी आम बहुत प्रिय था. कहा जाता है कि अकबर ने दरभंगा में एक लाख आम के पेड़ लगवाए थे. मुगलवंश के संस्थापक जलालुद्दीन बाबर को भी आम पंसद थे. बाबरनामा में जिक्र है कि आम अच्छे हों तो बहुत ही बढ़िया होते हैं पर बहुत खाओ तो थोडे़ से ही बढ़िया वाले मिलेंगे. अक्सर कच्ची केरियां तोड़ लेते हैं और पाल डाल कर पकाते हैं. गदरी केरियों का कातीक (मुरब्बा) लाजवाब बनता है. शीरे में भी अच्छा रहता है. कुल मिलाकर यहां का सबसे बढ़िया फल यही है. कुछ लोग तो सरदे के सिवा किसी और फल को इसके आगे कुछ मानते ही नहीं.

भारत आज भी आम की पैदावार के मामले में दुनिया में सरताज है. पूरी दुनिया में हर साल लगभग साढ़े तीन करोड़ टन आम पैदा होता है. इसमें से करीब डेढ़ करोड़ टन अकेले भारत में होता है. भारत के बाद क्रमशः चीन मैक्सिको थाइलैण्ड और पाकिस्तान का स्थान आता है. यूरोप में स्पेन में सबसे अधिक आम होता है और वहां का आम अपनी खास तीखी महक के कारण अलग पहचाना जाता है. अफ्रीकी देशों के आम के रंग बेहद आकर्षक होते हैं.

जिस तरह आम को फलों का राजा कहा जाता है उसी तरह दशहरी को आमों का राजा माना जाता है. दशहरी के दीवानों की भारत के बाहर भी कमी नहीं है. इसलिए अब इसका निर्यात भी बढ़ रहा है. मलीहाबाद के आस पास के इलाके के लिए तो दशहरी उपर वाले की सबसे बड़ी नियामत है. इस पूरे इलाके की अर्थव्यवस्था शादी-ब्याह उत्सव. खरीदादारी और तमाम खुशियां सब कुछ दशहरी की फसल के अच्छे- बुरे होने से जुड़ी हैं. आम इस पूरे इलाके के लिए खुशियों की बहार हैं. गालिब ने कहीं आम की तारीफ में कहा था.

     बारे आमों का कुछ बयां हो जाए 
     ख़ामां नख़्ले रतबफ़िशां हो जाए

     आम का कौन मर्द-ए-मैंदा है
     समर-ओ-शाख गुवे-ओ-चैंगा है 

मलीहाबाद में जन्मे क्रान्तिकारी शायर जोश मलीहाबादी भी हिन्दुस्तान छोड़ते समय मलीहाबाद के आमों को भुला नहीं पाए थे –    

आम के बागों में जब बरसात होगी पुरखरोश 
    मेरी फुरकत में लहू रोएगी चश्मे मय फरामोश
    रस की बूदें जब उड़ा देंगी गुलिस्तानों के होश
    कुंज-ए-रंगी में पुकारेंगी हवांए जोश-जोश
    सुन के मेरा नाम मौसम गम जदा हो जाएगा
    एक महशर सा महफिल में गुलिस्तांये बयां हो जाएगा 
    ए मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा.

नए जमाने के जानदार शायर गुलजार ने तो एक कविता में आम के दरख्त के बहाने जिन्दगी का पूरा फलसफा ही कह डाला है-

    मोड़ पर देखा है वो बूढ़ा इक आम का पेड़ कभी 
    मेरा वाकिफ है, बहुत सालों से मैं जानता हूं.
    सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले 
    मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको

लेकिन आम के बागों की सेहत दुरूस्त रखने के लिए बूढ़े पेड़ों का विछोह भी जरूरी है. आम के इनसाइक्लोपीडिया कलीमुल्लाह मानते हैं कि आज आम की सबसे बड़ी बीमारी सबसे बड़ी समस्या इनका घनाव है. वे कहते हैं, आज बागों में आम के पेडों के बीच दूरी बढ़ा दी जाए, बीच के पेड़ काट दिए जाएं तो हर पेड़ का दायरा फैलेगा और पेड़ चैड़ाई में जितना फैलेगा उतना ही उसमें ज्यादा जान होगी, उतनी ही ज्यादा पैदावार होगी. इसलिए कटाई और छटाई जरूरी है. कभी मलीहाबाद के आम के बागों में आम की दावतें हुआ करती थीं. शेरो शायरी की महफिलें सजा करती थीं.  डालों पे झूले पड़ते थे. परिन्दे चहका करते थे और जिन्दगी में सचमुच बहार आ जाती थी . बदलते जमाने की रफ्तार में बाग तो बरकरार हैं मगर बहार नदारत हो गई है. फिर भी जिस किसी को आम की प्यास बुझाने का कोई उपाय ढूंढ़ना हो और आम की असली लज्जत का मजा लेना हो, उसे आम के दिनों में मलीहाबाद का एक चक्कर तो जरूर लगाना चाहिए.