1970 के साल का सुब्रतो कप फाइनल तो पूरी तरह से ही देहरादून के नाम रहा. उस साल देहरादून की गोरखा ब्वॉयज कंपनी ने यहीं के गोरखा मिलेट्री स्कूल को 2-1 से हराकर सुब्रतो कप जीता उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में एक इलाका है गढ़ी कैंट. इसके आसपास बसे गांवों के बच्चों के बारे में कभी कहावत थी कि वे पैदा ही फुटबॉल के जूते पहनकर होते हैं. वह ऐसा दौर था जब शहर की फुटबॉल टीमें राष्ट्रीय स्तर पर अपने से कहीं मजबूत कद-काठी वाले खिलाड़ियों की टीमों को रौंद देती थी. राष्ट्रीय टीम में भी देहरादून के कई खिलाड़ी होते थे. इनमें से कइयों की तो पांचवीं पीढ़ी फुटबॉल खेल रही है. आज भी इन गांवों के बच्चों में फुटबॉल के लिए दीवानगी जिंदा है. हालांकि अब मौकों की कमी और खेल को व्यावसायिक स्वरूप न दे पाने जैसी वजहों ने शहर को इस खेल के मामले में पीछे धकेल दिया है.
देहरादून में फुटबॉल 1872 में यहां के वीरपुर और घंघोड़ा इलाके में गोरखा पल्टन के सेंटर खुलने के साथ आया. उस समय अंग्रेज सैनिकों के लिए दूनघाटी में मनोरंजन का एकमात्र साधन यह खेल ही था. समय के साथ इसकी लोकप्रियता बढ़ती रही. 1939 से तो देहरादून जिला खेल संघ ने यहां लाला नेमीदास फुटबॉल लीग मैच भी शुरू करा दिए थे. 60 का दशक आते-आते देहरादून देश के प्रमुख फुटबॉल केंद्रों में से एक बन गया.गोरखा ब्रिगेड तथा गोरखा मिलिट्री स्कूल के खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन के चलते उम्दा फुटबॉल के लिए शहर का नाम कलकत्ता के बाद लिया जाने लगा था. आजादी के बाद देहरादून के फुटबॉल को पहली बड़ी सफलता तब मिली जब 58वीं गोरखा ब्रिगेड 1950 में डीसीएम कप के फाइनल में पहुंची. वहां यह देश की प्रमुख टीम ईस्ट बंगाल से हार गई मगर इसका प्रदर्शन हर जगह चर्चा का विषय बना. फिर लगातार तीन साल तक देहरादून की यह टीम डीसीएम कप की रनर-अप रही.
शहर के फुटबॉल को समर्पित वेबसाइट देहरादूनफुटबॉल.कॉम के संचालक, पत्रकार राजू गुसांई बताते हैं कि उस समय देहरादून के लीग मैचों का स्तर भी उम्दा हुआ करता था. वे कहते हैं, ‘वर्ष 1953 में डूरंड कप के फाइनल में पहुंचकर मोहन बगान की टीम से पराजित आईएमए देहरादून की फुटबॉल टीम वहां से वापस आते ही देहरादून लीग मैचों में दून के एक क्लब से मैच हार गई.’ 1958 में गोरखा ब्रिगेड की टीम डूरंड कप के फाइनल में पंहुचने वाली दून की दूसरी टीम बनी जहां उसने सिक्ख रेजीमेंट को 2-0 से हराया. राजू गुसांई बताते हैं, ‘वर्ष 1969 में गोरखा ब्रिगेड ने बीएसएफ को हराकर फिर डूरंड कप जीता.’
उस दौर में देहरादून के जूनियर खिलाड़ियों ने भी अपना जलवा बिखेरना शुरू कर दिया था. वर्ष 1960 से शुरू हुए जूनियर सुब्रतो कप में 1972 तक 12 सालों में देहरादून की टीमें सात बार फाइनल में पहुंचीं. जिसमें दून के गोरखा मिलेट्री स्कूल की टीम 1964 व 1965 में तथा गोरखा ब्वॉयज कंपनी 1969, 1970 व 1972 में चैंपियन बनीं. 1970 के साल का सुब्रतो कप फाइनल तो पूरी तरह से ही देहरादून के नाम रहा. उस साल देहरादून की गोरखा ब्वॉयज कंपनी ने यहीं के गोरखा मिलेट्री स्कूल को 2-1 से हराकर सुब्रतो कप जीता.
यह देखते हुए स्वाभाविक ही था कि राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहे देहरादून के खिलाड़ी राष्ट्रीय फुटबॉल टीम का महत्वपूर्ण हिस्सा बनने लगे. भारत द्वारा जीते गए अंतर्राष्ट्रीय मैचों में देहरादून के फुटबॉलरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही. 1969 में मलेशिया में खेले गए मड्रेका कप में भारत की ओर से तीन खिलाड़ी अमर बहादुर गुरंग, भूपेन्द्र रावत तथा रणजीत थापा खेले तो 1970 व 1971 में मड्रेका कप में भी दून के तीन-तीन खिलाड़ियों ने देश का प्रतिनिधित्व किया. देहरादून के अजय सूद, कमलनयन बर्तवाल आदि जूनियर इंडिया फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों में रहे.
लेकिन 1976 के बाद देहरादून से गोरखा सेंटरों के देश के अन्य शहरों में जाने के बाद दून के फुटबॉल की दुर्दशा शुरू हो गई. अंतर्राष्ट्रीय फुटबॉल प्रतियोगिताओं में कई बार भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके अमर बहादुर गुरंग बताते हैं कि देहरादून का फुटबॉल उस समय सेना के इर्द-गिर्द आगे बढ़ता था. बचपन की यादों को ताजा करते हुए वे बताते हैं कि उस समय के बच्चे गोरखा सेंटरों के नामी खिलाड़ियों को अपने आसपास खेलते देख बड़े होते थे. उन्हें अपना हीरो मानकर ये बच्चे भी फुटबॉल किट पहनकर खेलना शुरू कर देते थे. गोरखा मिलेट्री स्कूल में फुटबॉल के गुर सीखने के बाद ये सेना में भर्ती हो जाते थे. इस स्वाभाविक प्रक्रिया में युवा खिलाड़ियों को भविष्य में रोजी-रोटी के संकट की चिंता नहीं रहती थी. सेना के अलावा ओएनजीसी, सर्वे आफ इंडिया, ऑर्डिनेंस फैक्टरी जैसे प्रतिष्ठान भी तब अच्छे खिलाड़ियों को अपने यहां भर्ती कर लेते थे. इन सभी की अच्छी फुटबॉल टीमें थीं. अब सालों से इन्होंने खिलाड़ी भर्ती नहीं किए हैं. अमर बहादुर कहते हैं, ‘पेट की चिंता से जूझ रहे खिलाड़ियों से चमत्कार की आशा नहीं की जा सकती.’
लेकिन फिर भी कुछ चीजें आने वाले कल के लिए उम्मीदें जगाती हैं. देहरादूनफुटबाल.कॉम को ही लीजिए. दुनिया और नए खिलाड़ियों को इस शहर के फुटबॉल का स्वर्णिम इतिहास बताने के लिए देहरादून के चार युवाओं राजू गुसांई, एलपी थापा, रोहित गोयल और नीलेश राणा ने 2005 में देश में शहरी फुटबॉल पर यह पहली वेबसाइट बनाई. इन युवाओं के प्रयासों से मोहन बागान सेल फुटबॉल अकादमी, दुर्गापुर, 2006 में फुटबॉल खेलने देहरादून आई. जिला फुटबॉल संघ के सचिव देवेंद्र बिष्ट बताते हैं, ‘30 सालों के बाद देहरादून के निवासियों को फिर एक बार स्तरीय खेल देखने को मिला.’ इसी प्रयास के तहत 27 जून 2009 में भारत की पहली मुफ्त एसएमएस फुटबॉल सेवा शुरू की गई जिसके माध्यम से देश भर के फुटबॉल प्रेमियों, खेल पत्रकारों व खिलाड़ियों को रोज देश में हो रही महत्वपूर्ण फुटबॉल प्रतियोगिताओं के नतीजे देहरादून से एसएमएस करके भेजे जाते हैं. अखिल भारतीय फुटबॉल संघ (एआईएफएफ) भी देहरादून फुटबॉल लीग के नतीजों को अपनी वेबसाइट पर प्रदर्शित करता है. देहरादूनफुटबाल.कॉम के प्रशंसकों में इतिहासकार रामचंद्र गुहा और फुटबॉल कंमेंट्रेटर और डूरंड कप सोसाइटी के नोवी कपाड़िया जैसे जाने-माने लोग हैं. कपाड़िया ने तो इस साल देहरादून की दो टीमों को डूरंड कप के क्वालीफाइंग मैचों में सीधा प्रवेश देने का वादा भी किया है. देहरादून जिला फुटबॉल एसोसिएशन में रजिस्टर्ड लगभग 900 खिलाड़ियों की संख्या बताती है कि उपेक्षा के बावजूद दून घाटी में फुटबॉल के लिए ललक जिंदा है. इसीलिए जिला फुटबॉल संघ के अध्यक्ष जोगिंदर पुंडीर को आशा है कि देहरादून का फुटबॉल अपना स्वर्णिम काल दोहराएगा. l