खेल की खामोश क्रांति

रांची के पास दो गुमनाम-से गांवों रुक्का और हुतु के बीच सड़क किनारे बने एक मैदान में हर सुबह एक शोर सुनाई देता है. यहां मुंह अंधेरे युवा आदिवासी लड़कियां अपनी फुटबॉल प्रैक्टिस से पहले जॉगिंग करती हैं. उनके साथ फ्रैंज गेसलर सबसे आगे भागते दिखते हैं. अमेरिका में मिनेसोटा के इस निवासी ने इस छोटी-सी जगह को अपना घर बना लिया है. अपने इस काम को वे मजाक में रिवर्स सोशल मोबिलिटी कहते हैं. गेसलर 27 साल के हैं. हावर्ड विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने कोका कोला, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप और ऊषा मार्टिन जैसी चर्चित कंपनियों के लिए काम किया. लेकिन जो काम अब वे कर रहे हैं वह उनकी अब तक की सर्वश्रेष्ठ रणनीति हो सकती है. आदिवासी लड़कियों के इस झुंड को उन्होंने फुटबॉल की एक असाधारण टीम बना दिया है.

गेसलर को सबसे ज्यादा विरोध उन मांओं से झेलना पड़ा जिन्हें यह एतराज था कि लड़कियां खेलने जाएंगी तो घर के काम में उनका हाथ कौन बंटाएगा

गौर करें कि यह ऐसी जगह है जहां लड़कियों की जिंदगी का दायरा मुश्किल से ही रसोई या घर के कामों के बाहर जा पाता है. ऐसे में गेसलर की यह उपलब्धि काफी बड़ी लगती है. इसके बावजूद वे विनम्रता से कहते हैं कि उन्होंने तो महज क्षमताओं को दिशा दी है. उनके शब्दों में ‘लड़कियों में प्रतिभा थी. मैंने तो उसे बस फुटबॉल के साथ जोड़ दिया है.’

लेकिन पिछले साल तक उन्हें यह काम खासा मुश्किल नजर आ रहा था. लड़कियों के मां-बाप उन्हें फुटबॉल खेलने की इजाजत देने के लिए तैयार ही नहीं थे. महीनों तक उन्हें समझाने के बाद गेसलर को सफलता मिल ही गई. वे बताते हैं, ‘पहले-पहल तो ऐसा हुआ कि मेरी कितनी भी कोशिशों के बावजूद सब कभी भी एक तय वक्त पर मैदान में नहीं पहुंचतीं. फिर एक दिन मैंने उनसे पूछा कि क्या उनके घर में घड़ी है. सिर्फ एक के ही घर में थी और वह भी टूटी हुई.’

शुरुआत में लोगों को गेसलर पर शक भी हुआ. कुछ को वे धर्मपरिवर्तन के मकसद से यहां आए मिशनरी लगे. किसी को लगा कि वे माइनिंग कंपनियों के लिए काम करते हैं. गेसलर के साथ काम करने वाली एक स्वयंसेविका हेलेना टेटे बताती हैं, ‘हाल ही में एक खिलाड़ी ने हमें बताया कि उसके गांव के कुछ लोगों ने उसके घरवालों को चेतावनी दी थी कि हम उसका अपहरण कर उसे अमेरिका भेज देंगे. देखा जाए तो इस अंदेशे में कुछ अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि राज्य से हर साल औसतन 30,000 लड़कियों की तस्करी होती है.’
मगर गेसलर को सबसे ज्यादा विरोध उन मांओं से झेलना पड़ा जिन्हें यह एतराज था कि लड़कियां खेलने जाएंगी तो घर के काम में उनका हाथ कौन बंटाएगा. लेकिन आज वही मांएं अपनी बेटियों का उत्साह बढ़ाती हैं.

खिलाड़ियों की जो लिस्ट तीन नामों के साथ शुरू हुई थी आज उसमें 100 से भी ज्यादा लड़कियां हैं. इनमें गीता, सीता और नीता झारखंड की अंडर 13 टीम में हैं. इस टीम ने पिछले राष्ट्रीय खेलों में दिल्ली की टीम को 8-1 से रौंदा. उत्साह के साथ सीता कहती है, ‘दिल्ली की गोलकीपर को तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है.’ फुटबॉल ने इन लड़कियों को बराबरी का मैदान दिया है. नीता कुमारी कहती है, ‘हमें पूरा विश्वास है कि हमारा जूनियर टीम में सलेक्शन हो जाएगा और अगर वे (गेसलर) हमारे साथ रहे तो यह पक्का है कि हम राष्ट्रीय टीम के लिए कई अच्छे पल लेकर आएंगे. हमें उस दिन का इंतजार है.’

लेकिन गेसलर को अहसास है कि पहाड़ सरीखी चुनौतियां आगे भी हैं. वे न विश्वस्तरीय खिलाड़ी हैं न कोच. बल्कि वे तो हॉकी खेला करते थे. लड़कियों को फुटबॉल सिखाने के लिए वे इंटरनेट का सहारा लेते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं एलेक्स फर्गुसन नहीं हूं लेकिन मेरी क्षमताएं उनकी सीमाएं नहीं होनी चाहिए. और सबसे बढ़िया कोच तो खुद खेल ही होता है. हम एक ऐसा माहौल बना रहे हैं जिसमें वे खुद ही बेहतर होती रहें.’ इस मकसद को चलायमान रखने के लिए गेसलर को हर साल करीब 20 लाख रुपए की जरूरत है. खिलाड़ी बढ़ते जा रहे हैं और वे कोशिश कर रहे हैं कि पैसा इकट्ठा करके वे फुटबॉल के मैदान के लिए जमीन खरीद लें. राज्य सरकार और निजी कंपनी कोका-कोला द्वारा उनकी मदद की संभावनाएं बन रही हैं.

राह भले ही कठिन हो लेकिन गेसलर के समर्पण में कोई कमी नहीं. एक अन्य कोच आनंद गोप बताते हैं, ‘प्रैक्टिस के लिए वे सबसे पहले मैदान पर पहुंचते हैं. सुबह साढ़े चार बजे. तब उनके साथ गांव के कुत्ते ही होते हैं.’ गेसलर मानते हैं कि मिनेसोटा की ठंडी आबोहवा उन्हें  याद आती है, मगर जब वे खुले आसमान के नीचे लड़कियों के माता-पिता के साथ खाना खाने बैठते हैं तो माहौल में पसरी शांति उन्हें बहुत भाती है.

उनकी मेहनत कई तरह से रंग ला रही है. कुछ समय पहले जब 17 साल की पूनम टोपो की सगाई हुई तो उसने गेसलर से आग्रह किया कि वे उसके होने वाले पति से बात करें ताकि शादी के बाद भी उसका खेल जारी रह सके. उसके मंगेतर राजेश ओरांव कहते हैं, ‘अगर उसे यह अच्छा लगता है तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है.’ सीता कुमारी की मां सावित्री कहती हैं, ‘फुटबॉल नहीं होता तो सीता मेरे साथ रसोई में काम कर रही होती. उसकी जिंदगी गुमनाम होती.’ गेसलर का काम ऐसी जिंदगियों को नए नाम और आयाम दे रहा है.