हर चार साल बाद फुटबॉल का विश्व कप आता है और देश में इस खेल की दुर्दशा के बारे में कुछ सवाल छोड़ जाता है. लेकिन वह भी वक्त था जब हालात आज के उलट थे. कभी भारत एशिया की सबसे तगड़ी फुटबॉल टीम हुआ करता था और यह टीम 1950 के विश्व कप में हिस्सा लेते-लेते रह गई थी.
मेलबर्न ओलंपिक में टीम चौथे स्थान पर रही. ऐसा पहली बार हुआ था कि कोई एशियाई टीम ओलंपिक के सेमीफाइनल में पहुंची हो
1950 का विश्व कप जब आयोजित हो रहा था तो दुनिया दूसरे विश्व युद्ध की त्रासदी से उबर ही रही थी. उम्मीद की जा रही थी कि खेमों में बंट चुकी दुनिया के लिए यह आयोजन एक होकर जश्न मनाने का मौका लेकर आएगा. भारत को एशिया की सबसे मजबूत टीम होने के नाते इसमें शामिल होने का निमंत्रण मिला. लेकिन कहते हैं कि ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) ने यह निमंत्रण ठुकरा दिया क्योंकि उन दिनों भारतीय खिलाड़ी नंगे पैरों से खेलते थे और एआईएफएफ को लगा कि अगर फीफा के नियमों के मुताबिक उन्हें जूते पहनकर खेलना पड़ा तो वे अच्छा नहीं खेल पाएंगे.
लेकिन बहुत-से लोग मानते हैं कि वजह सिर्फ यही नहीं थी. भारत तब एक नया-नया आजाद हुआ देश था और उसके पास टीम पर खर्च करने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं थी. पानी के जहाज से ब्राजील तक की समुद्री यात्रा भी बहुत लंबी होती. इसके अलावा एक बात और भी है. 1970 तक भारत में फुटबॉल के मैच 90 की बजाय 70 मिनट के हुआ करते थे, इसलिए यह भी लगा कि मैच के आखिर तक टीम थक जाएगी और गोल खा बैठेगी. अब यह कहा जाता है कि अगर भारत ने 1950 के विश्व कप में भाग ले लिया होता तो देश में इस खेल को एक दूसरी ही दिशा मिल गई होती. फुटबॉल को अब तक एक व्यापक और पेशेवर स्वरूप मिल चुका होता और भारत के लोग विश्व कप में शायद अपनी ही टीम का उत्साह बढ़ा रहे होते.
फुटबॉल में भारत के करीब डेढ़ दशक लंबे स्वर्णयुग की शुरुआत 1948 में लंदन ओलंपिक से हुई. तब सैय्यद अब्दुल रहीम टीम के कप्तान थे. भारत क्वार्टरफाइनल तक पहुंचा जहां उसे फ्रांस जैसी मजबूत टीम से 2-1 से शिकस्त खानी पड़ी थी. इस मैच में भारतीय टीम दो पेनल्टी किकों का फायदा नहीं उठा पाई थी क्योंकि खिलाड़ी ठिठुराती ठंड में नंगे पांव खेल रहे थे. इसके बावजूद भारतीय खिलाड़ियों का खेल इतना रंग जमा गया था कि मैच के बाद किंग जार्ज षष्ठम ने इस टीम को अपने महल में आमंत्रित किया था.
1951 में नई दिल्ली में एशियाई खेलों का आयोजन हुआ. भारत ने फुटबॉल में स्वर्ण पदक जीता और एशिया में अपनी श्रेष्ठता पर मुहर लगाई. इसके बाद था 1952 का हेलसिंकी ओलंपिक. यहां टीम को कड़कड़ाती ठंड में नंगे पांव खेलने का खामियाजा भुगतना पड़ा और उसे यूगोस्लाविया ने 10-1 से रौंद डाला. इसका नतीजा यह हुआ कि अगले साल से एआईएफएफ ने खिलाड़ियों के लिए जूते पहनना जरूरी कर दिया.
1956 का साल भारतीय फुटबॉल के लिए एक बड़ी उपलब्धि लेकर आया. मेलबर्न ओलंपिक में टीम चौथे स्थान पर रही. ऐसा पहली बार हुआ था कि कोई एशियाई टीम ओलंपिक के सेमीफाइनल में पहुंची हो. भारत ने ऑस्ट्रेलिया को 4-2 से हराया था और नेविल डिसूजा ओलंपिक में हैट्रिक जमाने वाले पहले और अकेले एशियाई बने. सेमीफाइनल में भी भारत का खेल शानदार था और यह मैच खत्म होने से दस मिनट पहले तक टीम 1-0 की बढ़त बनाए हुए थी.
वह ऐसा दौर था जब भारतीय खिलाड़ियों के ड्रिबल, पास और मैदान पर उनकी रफ्तार देखते ही बनती थी. फॉरवर्ड चुन्नी गोस्वामी, तुलसीदास बलराम, पीके बनर्जी, साहू मेवालाल और अहमद खान, मिडफील्डर नूर मोहम्मद, केंपिया और यूसुफ खान, डिफेंडर अजीज, लतीफ और जरनैल सिंह और गोलकीपर टी आओ और बाद में पीटर थंगराज का खेल एशिया में मानक माना जाता था.
1962 में जकार्ता में हुए एशियाई खेलों में मिले स्वर्ण कप को भारतीय फुटबॉल की आखिरी बड़ी उपलब्धि माना जाता है. खासकर उन परिस्थितियों के संदर्भ में जिनमें यह खेला गया था. दरअसल तब राजनीतिक कारणों से इजराएल और ताइवान को इस आयोजन से बाहर रखा गया था और इसके लिए भारत ने मेजबान देश की आलोचना की थी. इसके बाद तो स्थानीय प्रशंसकों की भीड़ मानो भारत की दुश्मन हो गई. हालत यह थी कि जरनैल सिंह बस के फर्श पर बैठते थे ताकि बाहर लोगों को उनकी पगड़ी न दिखे. बाद में एक साक्षात्कार में जरनैल ने याद करते हुए बताया था, ‘स्टेडियम में एक लाख से भी ज्यादा लोग हमें हूट कर रहे थे. यहां तक कि हमारे राष्ट्रगान को भी सम्मान नहीं दिया गया. जब बॉल हमारे किसी खिलाड़ी के पास आती तो स्टेडियम में इतना शोर होता कि रेफरी की सीटी सुनना भी मुश्किल हो जाता.’
इसके बावजूद भारतीय टीम ने असाधारण खेल दिखाया और फाइनल में दक्षिण कोरिया को 2-1 से मात दी. इससे पहले एक लीग मैच में दक्षिण कोरिया भारत को हरा चुका था. यह जीत इसलिए भी खास थी कि कई खिलाड़ी बीमारी और चोटों के बावजूद खेले थे. गोलकीपर थंगराज को फ्लू था, अंगूठे का नाखून उखड़ने की वजह से राइट बैक त्रिलोक सिंह को बहुत तकलीफ हो रही थी, जरनैल के माथे में चोट लगी थी. मगर ये सभी खिलाड़ी यह सब भूलकर खेले. मैच के आखिरी क्षणों तक तो जरनैल के माथे का घाव खुल गया और उससे खून बहने लगा. लेकिन उन्होंने मैदान छोड़ने से इनकार कर दिया क्योंकि उन दिनों खिलाड़ी बदलने का नियम नहीं था और उनके मैदान से बाहर जाने का मतलब होता टीम का दस खिलाड़ियों के साथ खेलना. ऐसा था उस टीम का जुनून.
(लेखक जाने-माने फुटबॉल विशेषज्ञ हैं)