जहां 'गोल' है जहां

इतिहास के पन्ने सम्राटों और विजेताओं की असाधारण उपलब्धियों से भरे पड़े हैं. लेकिन हमारे दौर का इतिहास जब लिखा जाएगा तो पढ़ने वालों को यह सोचकर जरूर हैरत होगी कि किस तरह एक गेंद ने थोड़े-से ही वक्त में सारी दुनिया को जीत लिया. लोकप्रिय खेल तो बहुत से हैं मगर फुटबॉल ने जिस विराटता के साथ दुनिया के हर कोने में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है वह किसी भी दूसरे खेल के हर दावे को छोटा कर देती है.

सारी दुनिया की तरह भारत में भी इन दिनों फुटबॉल विश्व कप का खुमार है. देश में खेल की लचर दशा के कारण भारतीय टीम भले ही इस प्रतिष्ठित मंच तक पहुंच नहीं पाईहो मगर उससे फुटबॉल के दीवानों का जोश कम नहीं हुआ है. यह विशेष प्रस्तुति उन उजले कोनों को देखने की कोशिश है जो अपने यहां इस खेल पर छाई नाउम्मीदी की घनी बदरी में कहीं-कहीं पर नजर आते हैं

कोलकाता से केरल तक जाबूलानी

कोलकाता के रंग इन दिनों बदले हुए हैं. जो शहर महीना भर पहले तक वाममोर्चे के लाल और तृणमूल के तिरंगे झंडों से अटा पड़ा था उसकी दीवारों पर इन दिनों या तो अर्जेंटीना की जर्सी का नीला-सफेद रंग दिखता है या फिर ब्राजील की पहचान हरा-पीला. दक्षिण अफ्रीका में चल रहे फुटबाल विश्व कप ने इस शहर की फिजा तब्दील कर दी है.

ब्राजील के तो खैर यहां के लोग बहुत पहले से ही प्रशंसक रहे हैं मगर अर्जेंटीना की लोकप्रियता तब बढ़ी जब विश्व कप में मैरेडोना ने अपने जादुई खेल का जलवा दिखाया

रेलवे में काम करने वाले अजय कार की मेहनत हर विश्व कप में बढ़ जाती है. इस दौरान वे कोलकाता की दीवारों पर फुटबॉल के सितारों की तस्वीरें बनाते हैं. इस बार उन्होंने हरीश मुखर्जी रोड पर स्थित बालीगंज शिक्षा सदन की दीवारों पर अपने रंग सजाए हैं. पिछले 28 साल से वे इस काम में लगे हैं ताकि बच्चों को फुटबॉल खेलने की प्रेरणा मिले. उनके साथी पप्पू दास कहते हैं, ‘फुटबॉल के मामले में हमें ब्राजील से अपनापा महसूस होता है. हमारी तरह वह भी गरीब देश है और फुटबॉल गरीबों का खेल है. उन्होंने दिखा दिया है कि गरीबी आपसे आपकी क्रिएटिविटी नहीं छीन सकती.

कई दशकों से कोलकाता में फुटबॉल का मतलब घोटी-बांगाल प्रतिद्वंद्विता रहा है. बांगाल यानी आजादी से पहले के पूर्वी बंगाल से यहां आए शरणार्थी और घोटी मतलब प. बंगाल के मूल लोग. मोहन-बागान और ईस्ट बंगाल के मैचों का रोमांच इसी होड़ का परिणाम होता था. ईस्ट बंगाल के प्रशंसक जर्मनी को अपना आदर्श मानते थे जबकि घोटियों का आदर्श ब्राजील हुआ करता था.

लेकिन वक्त के साथ कोलकाता भी बदला और इस प्रतिद्वंद्विता में अब पहले जैसा तीखापन नहीं दिखता. क्षेत्रीय और भाषाई दरारें धुंधली पड़ रही हैं और साल्ट लेक स्टेडियम में उमड़ने वाली भीड़ की आदर्श टीमें अब अर्जेंटीना और ब्राजील हैं. ब्राजील के तो खैर यहां के लोग बहुत पहले से ही प्रशंसक रहे हैं मगर अर्जेंटीना की लोकप्रियता तब बढ़ी जब विश्व कप में मैरेडोना ने अपने जादुई खेल का जलवा दिखाया. पेले और मैरेडोना, दोनों ही यहां आ चुके हैं. पेले 1977 में आए जबकि मैरेडोना 2008 में और इन दोनों हस्तियों का शहर ने जिस तरह स्वागत किया वह देखने लायक था. मैरेडोना तो कह भी गए कि यह अब तक की जिंदगी में उनका दूसरा सबसे भव्य स्वागत था.

केरल में कोच्चिकोड़े के पास बसे एक गांव निननवलप्पु में भी इन दिनों फुटबॉल विश्व कप के रंग बिखरे हैं. समुद्र के पास स्थित निननवलप्पु में घूमते हुए आपको जगह-जगह पर खिलाड़ियों के कट-आउट, बैनर और होर्डिंग लगे दिख जाएंगे. युवाओं का इन दिनों अपनी पसंदीदा टीम की जर्सी में दिखना आम बात है. निननवलप्पु फुटबॉल फैंस एसोसिएशन के सेक्रेटरी एनवी सुबैर कहते हैं, ‘अर्जेंटीना से लेकर न्यूजीलैंड तक हमारे यहां सभी 32 देशों के प्रशंसक हैं.यह खेल हमारे यहां दिलों को जोड़ता है और सांप्रदायिक तनाव पर लगाम रखता है.उनकी एसोसिएशन का जलवा यह है कि वह फीफा से जुड़ी हुई है और इस अंतर्राष्ट्रीय संस्था की तरफ से उसे नए नियमों, ब्रॉशरों और मिनियेचरों की एक कॉपी भी भेजी गई है.

सिर्फ निननवलप्पु ही नहीं बल्कि केरल के समूचे उत्तरी हिस्से पर इन दिनों फुटबॉल का खुमार छाया हुआ है. मलप्पुरम इस खुमार का केंद्र है. यहां पीके मैरेडोना भी रहते हैं. 24 साल के मैरेडोना एक प्राइवेट फर्म में काम करते हैं. 1986 के विश्व कप में मैरेडोना का शानदार प्रदर्शन देखकर उनके पिता छथुकुट्टी ने उनका नामकरण इस स्टार के नाम पर कर दिया. इन दिनों लियोनेल मेसी के प्रशंसक मैरेडोना याद करते हैं, ‘स्कूल में टीचरों को इसके लिए मनाना कि वे मुझे इसी नाम से पुकारें, सबसे मुश्किल काम रहा.हंसते हुए वे कहते हैं कि वे भी अपने बच्चों का नाम फुटबॉल के सितारों के नाम पर ही रखना चाहेंगे बशर्ते उनकी पत्नी इसके लिए राजी हो जाए. मलप्पुरम में एक फूड फेस्टिवल भी चल रहा है जिसमें फुटबॉल खिलाड़ियों के नाम पर व्यंजन परोसे जा रहे हैं. चिकन मेसी मैजिक, क्रिस्टियानो डोसा जैसे इन व्यंजनों के प्रति लोगों में खूब उत्साह भी है. सिर्फ खाने ही नहीं, पीने में भी फुटबॉल का जलवा है. पेले डांस शेक, मैराडोनास गॉड्स हैंड, अफ्रीकन ब्लैक ब्वॉयज जैसे पेय खूब बिक रहे हैं और फुटबॉल के दीवाने इनका आनंद ले रहे हैं. कोच्चि के तेवरा में आपको डॉन अडोनी, रॉबर्टो बैजियो और जमोरानो नाम के तीन भाई मिलेंगे. उनके पिता स्नेहजन दिहाड़ी मजदूर हैं. वे चाहते हैं कि फुटबॉल के इन सितारों की तरह उनके बेटे भी इस खेल से अपनी रोजी कमाएं.

भारत के पूर्व कप्तान आईएम विजयन कभी त्रिशूर में होने वाले स्थानीय मैचों के दौरान मूंगफली और सोडा बेचकर गुजारा करते थे.  वे कहते हैं, ‘यहां फुटबॉल सिर्फ एक खेल नहीं बल्कि जिंदगी है. यहां तो एक बच्चा भी हर टीम और खिलाड़ी के बारे में अपनी राय रखता है.केरल की तरह गोवा में भी फुटबॉल को लेकर दीवानगी देखने को मिलती है. यहां फुटबॉल बड़ा खेल है और बड़ा कारोबार भी. देश के तमाम मशहूर फुटबॉल क्लब यहां हैं. मसलन सलगांवकर, डेंपो, चर्चिल ब्रदर्स, वॉस्को स्पोर्ट्स क्लब और स्पोर्टिंग क्लब डि गोआ. भारत के इस सबसे छोटे राज्य ने हाल के वर्षों में खुद को राष्ट्रीय फुटबाल परिदृश्य में चोटी पर ला खड़ा किया है. गोवा में फुटबॉल की परंपरा काफी पुरानी है. यह लगभग 450 साल तक पुर्तगाल का उपनिवेश रहा और इसी दौरान यह खेल यहां आया और खूब फला-फूला.

इसलिए आश्चर्य नहीं कि इन दिनों गोवा में हर तरफ पुर्तगाली टीम की जर्सी वाला लाल और हरा रंग दिखता है. गोवा फुटबॉल एसोसिएशन के सेक्रेटरी सेवियो मेसियास कहते हैं, ‘गोवा में आप जहां भी जाएं आपको पुर्तगाल का प्रभाव देखने को मिलेगा. हमारे घरों में, संगीत में, खाने में, तो फिर फुटबॉल भला कैसे पीछे रहे.‘