तहलका द्वारा साहित्य पर केन्द्रित अंक का स्वागत. साथ ही तहलका का आभार, जिसके जरिये हमें युवा कथाकारों की रचानाओं और रचनाशीलता पर हिन्दी कथाजगत के बुजुर्गों की महत्वपूर्ण राय तथा एक जैसे ‘सुविचार’ जानने को मिले. युवा पीढ़ी की आलोचना होनी चाहिये,अक्सर लोग यही करते हैं, पर क्या उस आलोचना की भाषा की कोई मर्यादा नही होनी चाहिये? बुजुर्गियत की अचूक और कुठाँव मार झेल रहे इन अग्रज कथाकारो की बात और भाषा को सच मान लें तो कोई तर्क नही बचता जिसे आधार बना कर युवा लिखते रहें. अगर दिनेश कुमार द्वारा सम्पादित उस लेख का भरोसा कर लें तो हम युवाओं को अब तक अपने लिखे के अपराध का प्रायश्चित करना होगा. तानाशाह बन जाने की इच्छा पाले इन बुजुर्गों की तमन्ना पूरी करने के लिये क्या कहानी लिखना छोड़ देना ही कामचलाउ सजा होगी या कहानी के इन जमींदारों के महल के आगे हमारे आत्मदाह ही पर्याप्त होंगे – इसे जब तक कोई पता लगाये, तब तक मैं इनके महान विचारों के दूसरे कोने अँतरे खंगालता हूँ.
क्या कहानी लिखना छोड़ देना ही कामचलाउ सजा होगी या कहानी के इन जमींदारों के महल के आगे हमारे आत्मदाह ही पर्याप्त होंगे – इसे जब तक कोई पता लगाये, तब तक मैं इनके महान विचारों के दूसरे कोने अँतरे खंगालता हूँविश्वनाथ जी का यह कहना कि नये रचनाकार एक जैसे रच रहे हैं, बहुत गहरे आशय देता है. इनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर कहने की हिमाकत तो मैं नही कर सकता पर भैंस का ही उदाहरण लें तो कह सकते हैं सारी भैंसे,अपने झुंड में, हमारे लिये तो एक जैसी ही होती हैं पर जो ग्वाले हैं, जिन्होने अपना जीवन दूध व्यवसाय को समर्पित कर दिया है, जो बीसियों साल से अपनी साईकिल पर दूध के बाल्टे रामनगर से बनारस लाते है, रोज, बिला नागा, वो बन्धु दूर से देख कर ही बता सकते हैं कि अमुक भैस की क्या खासियत है और तमुक की क्या? यह दरअसल ‘इंवॉल्वमेंट’ कहलाता है. जैसा माहौल तैयार हो चुका है उसमें आसानी से त्रिपाठी जी मेरी बात का बुरा मान जायेंगे. उनके चमचे उन्हे मेरे खिलाफ भड़कायेंगे पर वो अगर अपनी आत्मा से बात करें तो पायेंगे कि उन्होने सबकी कहानियाँ पढ़ी ही नही है. और पढ़ी है तो उन्हे बताना था कि यह एक-सा पन किस किस कहानियों में उन्हे मिला.
इनकी ‘नंगातलाई का गॉव’ पढ़ कर खासा प्रभावित हुआ और एक कार्यक्रम में इन्हे सुनने गया. कार्यक्रम हजारी प्रसाद द्विवेदी पर था जो, सुनने में ही भर आता है कि, इनके गुरु थे. हजारी प्रसाद जी के सारे उपन्यास हमने पढ रखे हैं और आज तक यह समझ ही नही पाए कि अपने पूरे जीवन में चालीस से पचास कहानियाँ भी नही लिखने वाले ‘महान’ बुजुर्गों ने हजारी प्रसाद जैसे रचनाकार को किस चालाकी से पूरे परिदृश्य से ही गायब कर दिया है? उम्मीद थी कि त्रिपाठी जी इस चालाकी के खिलाफ बोलेंगे पर वो पूरी गोष्ठी में यही बोलते रह गये कि हजारी प्रसाद जी की धर्मपत्नी द्वारा बनाये गये दाल,भात और चोखे का स्वाद कितना असाधरण होता था. उनके हाथ का अचार कितना अच्छा होता था. तालियाँ, जैसा कि उनके बजने की रवायत है, बजती रहीं.
आप स्वाद में इस कदर उलझे पड़े है सर जी कि आपको पता ही नही – हम उन कहानीकारों की श्रेणी से नही आते जो टारगेट बना कर एक कहानी स्त्री विमर्श पर, अगली कहानी दलित विमर्श पर और फिर अगली कहानी साम्प्रयादियकता पर(जिसमें यह निश्चित है कि वो प्रेम कहानी ही होगी और हिन्दू बहुलता का ख्याल रखते हुए पुरुष पात्र हिन्दू होगा तथा स्त्री माईनॉरिटी ग्रुप से होगी, इसे गदर सिंड्रोम कहते हैं, जिसे पढ़ते हुए हिन्दू और ‘सॉफ्ट हिन्दू’ आँख मूँद मूँद कर यह सोचते और सोच कर खुश हो लेते है कि गनीमत है जो मुसलमान नायक नही है वरना वो हिन्दू की लड़की के साथ यह सब करता…).सर जी, स्त्री हमारी कहानियों में प्रमुखतम पात्र के तौर पर आती है. वह स्त्री अपने सारे निर्णय खुद लेती है. ऐसे ही दलित भी आयेंगे और जब आयेंगे तो सवर्ण कुकर्मियों के लिये विलाप से अलग दूसरा कोई चारा नही बचेगा. आपको हमारे लेखन पर पछताने की जरूरत नही है जैसा कि श्रद्धेय कथाकार काशीनाथ जी इन दिनों लगातार पछता रहे हैं.
पाठक के कम होते जाने का जो सिलसिला, जाने कैसे, हिन्दी कहानी पर आप लोगों के शासन काल से शुरु हुआ वो बदस्तूर जारी है और इस सच से हम खूब वाकिफ हैं. बाजार का असर तो तब होता जब पाठक बढ़ते
डॉक्टर काशीनाथ जी की हालत उस अमीर इंसान की हो गई है जिसकी दी हुई खराब कमीज को उसके गरीब मित्र ने साफ सुथरा कर, इस्त्री लगा पहन लिया था. अब वो दोनो जहाँ भी जायें, लोग गरीब मित्र के कमीज की तारीफ कर दें तब फिर बेचारा अमीर मित्र तुरंत कहता- ये कमीज मैने ही इसे दी है. इनके पछतावे से हम डरे हुए हैं. अगर किसी बुजुर्ग लेखक को अपने लिखे का इस कदर पश्चाताप हो तो हमारा दु:ख जायज है. जिसने पूरा जीवन, कम से कम कहा तो यही जायेगा, रचते हुए गुजार दिया उसे एकाएक अपने लिखे पर शक होने लगे तो उस बेचारे लेखक के लिये कितनी दु:ख की बात है. हम नही चाहते कि आप अपनी दूसरी रचनायें भी दुबारा पढ़े ताकि आपको यही समस्या अपनी कहनियों के बारे में घेर ले. रही बात आपके वागर्थ वाले लेख की तो कहाँ फंसे पड़े हैं महाराज? किसी के लिखने से कोई कहानीकार स्थापित होता है भला! आपके साथ ही ज्ञानरंजन जी भी लिखने वाले थे,पर उन्होने नही लिखा तो क्या हमने लिखना बन्द कर दिया? पर आपको यह जरूर बताना चाहिये कि आप कौन सी विज्ञापन विधि से अपरिचित थे जिससे हम परिचित हो गये हैं? ये कोई अन्धा भी जानता है कि जिस दौर में आप लोग साहित्य साहित्य खेल रहे थे वह हिन्दी साहित्य का स्वर्णिम दौर था और जिसे आप सब ने यों ही बीत जाने दिया. आपके समय पत्रिकाओं की लाख प्रतियाँ छपती थी, दो घंटे की मास्टरी के बाद लिखने के नाम भर पर उस समय के लोगों को कितना अफराद समय मिलता था?
हम पर बाजार का कोई दबाव नहीं है गुरुवर. जब भी यह खबर मिलती है कि हम युवा रचनाकारों की किताबों के तीसरे या चौथे संस्करण आ रहे हैं तो मुझे हैरानी इस बात की होती है कि क्या इतने पाठक हैं? पाठक के कम होते जाने का जो सिलसिला, जाने कैसे, हिन्दी कहानी पर आप लोगों के शासन काल से शुरु हुआ वो बदस्तूर जारी है और इस सच से हम खूब वाकिफ हैं. बाजार का असर तो तब होता जब पाठक बढ़ते. उल्टे इससे हमें यह सबक मिला कि जो भी लिखो ईमानदारी से लिखो क्योंकि जो पाठक ऐसे समय में भी साहित्य के साथ है वो बहुत जेनुईन है, वो समझदार है, उसके कंसंर्स हवाई नही है. हमारा पाठक दिन में तारे देखना पसन्द नही करता, उसे ठोस सच्चाईयॉ जानने का जुनून है. रही अपनी बात तो अगर हम युवा आपको अपना कलेजा चीर के भी दिखा दें तब भी आपको यकीन नही होगा कि सिर्फ और सिर्फ अच्छी रचना ही हम सबका मकसद है. आपको भरोसा वैसे ही नही होगा जैसे किसी धार्मिक को इसका भरोसा नही होता कि ईश्वर नही है, जैसे किसी अफसर को इस बात का भरोसा नही होता कि घूस लेना अपराध है. मुझे उदय प्रकाश की डिबिया याद आ रही है.
हमारी इस चिंता से जाहिर होता है कि हम मनुष्य विरोधी नही है जैसा कि ज्ञानरंजन जी ने सत्य उद्घाटित करने के अन्दाज में बताया है.. पर ये हमारे इतने प्रिय कथाकार हैं कि एक बार तो ‘बेनेफिट ऑफ डॉऊट’ इन्हे देना ही होगा और इनकी स्थापना माननी होगी कि यह सचमुच की नई और युवा पीढ़ी मनुष्य विरोधी है.. पर इसे मानते ही दु:खद समस्या खड़ी होती है.क्योंकि यह विश्वास करने का कोई कारण नही है कि ज्ञान जी को यह ‘रिवेलेशन’ अचानक से हुआ होगा, पहल जैसी अनोखी पत्रिका के सम्पादक की वैज्ञानिकता पर जायें तो इन्हे ये बात हमारी रचनाओं को इधर उधर पढ़ कर पहले ही मालूम पड़ गई होगी कि यह पीढ़ी हिंसक और मनुष्य विरोधी है. फिर भी आपने हमारी कहानियाँ अपनी पत्रिका पहल में प्रकाशित किया. क्यों? क्यों फिर आपने पहल जैसी नामधारी और प्रतिबद्ध पत्रिका के पाठकों, जिसके पाठक, जिनमें मैं भी एक हूँ, पहल को एक किताब का दर्जा देते हुए उसमें छपी एक एक रचना पढ़ जाते हैं, के साथ ऐसा खिलवाड़ किया?
सर, कहीं ऐसा तो नही कि आपने कहानी प्रकाशित करने से पहले ही उसके मनुष्यविरोधी और क्रूर होने को जान लिया हो और इस उम्मीद में कहानियाँ प्रकाशित किये हो कि लोग हम युवाओं पर हसेंगे, हमारे लिखे का मजाक उड़ायेंगे. पर हो इसका उल्टा गया. लोगों ने उन कहानी में मनुष्यता के सार्थक चिन्ह ढूंढ लिये होंगे. तब हार पीछ कर आपने इस सत्योघाटन का जिम्मा लिया हो. जो भी हो, हम बहुत दु:खी हैं यह जानकर कि पहल जैसी सचमुच की अच्छी पत्रिका में छपने की हमारी क्षमता नही थी. फिर भी आपने…? आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप आगे कि किसी बात चीत को ऐसे तोड़ मरोड़ देंगे जिससे आप, हमें मनुष्यविरोधी घोषित करने के अपने तुर्की फैसले, पर कुछ भी कहने से बचे रहे. आप हमारा यकीन करिये हम आपसे पूछेंगे ही नही कि आखिर हम सब मनुष्य विरोधी कैसे हो गये? हमें खूब पता है कि हम ऐसे हर्गिज नहीं है.
संजीव जी से खौफ खाते हुए, डरते हुए अगर यह मान लिया जाये कि हम विवादस्पद और खराब लोग हैं तो उन्होने ही इस राज का भी सनसनीखेज खुलासा किया है कि ऐसे भी कहानीकार हैं जिन्हें संजीव जी तो जानते हैं पर वो कम चर्चित है या उन सचमुच के अच्छे कहानीकारों का रास्ता हम जैसे विवादास्पद और विज्ञापनबाज (काशीनाथ जी के पछताये शब्दों में) कहानीकारों ने छेंक रखा है. तो फिर आपने ऐसा ‘अपराध’ क्यों कर दिया संजीव जी? आपको तहलका ने मंच दिया. यहाँ से गूंजी आवाज बहुत ज्यादा फैलेगी यह आपको पता तो था फिर आपने भी उन अच्छे युवा रचनाकरों को गुमनाम रहने दिया. आपको यहाँ, तहलका के इस बेहतरीन मंच पर, उनके नामों की घोषणा करनी चाहिये थी ताकि वो आगे आ सके. पर आपने नही किया और बड़ी चालाकी से आपने उन बेहतरीन नगीनो को गुमनामी के अन्धेरे मे डूबे रहने के लिये छोड़ दिया? यह जान बूझ कर किया गया और ज्यादा सघन ‘अपराध’ है संजीव जी जिसके लिये थीसिस फेंकने की भी जरूरत नही पड़ी.कितने चालाक हैं आप! कहीं रवीन्द्र कालिया जी ने आप सबों की गहरे कहीं डूबती नब्ज पर तो हाथ नही रख दिया यह कहते हुए कि- नई पीढ़ी के आने के बाद पुरानी पीढ़ी असुरक्षित हो गई है.
हालात यह हैं कि अगर यह बताय जाये आपको कि हम युवा लोग तो आप सबकी कहानियों/कविताओं/ उपन्यासों को पढ़ते, दुहराते, तिहराते बड़े हुये हैं. आप सब लोग, कम से कम मेरे लिये, द्रोणाचार्य सरीखे हैं. पर आपकी चाहत ययाति बन जाने की दीख रही है. आपकी बातों से तिरस्कार और बे-ईमानी की बू आ रही है. मेरी प्यारी भोजपुरी में जिसे चोरहथई कहते हैं. इसलिये ही मैं कहना चाहता हूँ कि मोल जीवन और गोल भाषा के आदी हो चुके आप लोगों ने जिस गोल-मोल अन्दाज में सकारात्मक प्रचुर अपवाद का जिक्र किया है मैं उसमे से एक नही होना चाहता.खासकर जैसे अकाट्य सत्यों के पक्ष में आप खड़े हुए हैं उसे जान कर तो हर्गिज नहीं. मुझे यह भी यकीन है कि आप अपने पैने शाब्दिक नाखून लेकर मेरे पीछे पड़ जायेंगे. आपके स्टील, लोहे, चाँदी और नकली सोने के चमचे मुझे उचित-अनुचित तरीकों से नुकसान पहुँचाने मे भिड़ जायेंगे. मेरी भाषा/कहानी में तम्बाकू की अमर गन्ध की तलाश कर उसे खारिज करने में लग जायेंगे पर इन सब के बावजूद अगर आप सब ही हिन्दी के अवधराज हुए तो विभीषण के प्रति सच्ची सहानुभूति रखते हुए भी मैं अपने लिये कुम्भकर्ण का किरदार चुनता हूँ.