पैलेट, वेपन, वेलोसिटी… एक सांस में बोलने वाली 76 वर्षीया चंद्रो तोमर की बातें सुनकर जब तक हम हैरान हों तब तक वे हमारा हाथ पकड़कर हमें अहाते में ले आती हैं, यह बताने के लिए कि कैसे उन्होंने इन शब्दों का मतलब और इस्तेमाल सीखा है. टेढ़े-मेढ़े पटियों से बनाया गया तकरीबन तीन फुट ऊंचा और ढाई फुट चौड़ा प्लेटफॉर्म, प्लेटफॉर्म को लंबाई में ठीक बीच से बांटता बरगद का पेड़, सामने 10 मीटर दूर ईंट की दीवार, उसपर लगे कागज के टारगेट और टारगेट खींचने के लिए रस्सी और पुली का इंतजाम. यह है बागपत जिले की बड़ौत तहसील के एक छोटे-से गांव जोहड़ी में बनी शूटिंग रेंज. दूसरे शब्दों में कहें तो उत्तर भारत की जुगाड़ तकनीक का एक और बेहतरीन उदाहरण. प्लेटफॉर्म के पीछे खड़ी होकर दादी (चंद्रो तोमर को सारे गांववाले दादी ही कहते हैं) हमें बताती हैं कि कैसे उन्होंने 66 साल की उम्र में यहां पहली बार एयर पिस्टल चलाई थी. वे ठेठ हरियाणवी लहजे में कहती हैं, ‘पहली बार में ही सही निशाना लगा तो लोगों ने कहा तू भी कोशिश कर ले, फिर तो लगन ही लग गई.’
शुरुआत में इक्का-दुक्का लड़कियों ने जब कुछ प्रतियोगिताओं में मेडल जीते तो गांव की कई लड़कियां निशानेबाजी सीखने आने लगीं, हरियाणा से सटे इस इलाके में यह एक नई परंपरा थी
दादी इस शटिंग रेंज की सबसे उम्रदराज निशानेबाज हैं. साल 2000 में वे वरिष्ठ वर्ग की निशानेबाजी प्रतियोगिता (इसमें 55 साल से अधिक के पुरुष और महिला निशानेबाज भाग ले सकते हैं) में उत्तर भारत क्षेत्र की चैंपियन बन गई थीं. इसके बाद उन्हें कई स्कूलों मंे बच्चों को निशानेबाजी के गुर सिखाने के लिए बुलाया जाने लगा. नजर कमजोर हो जाने के कारण दादी आजकल शूटिंग तो नहीं कर पातीं लेकिन बच्चों, खास तौर पर लड़कियों की वे सबसे पसंदीदा कोच हैं.
टीन की छत के नीचे अभी काफी गर्मी है लेकिन निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे 12 से 23 साल की उम्र के इन लड़के-लड़कियों को देखकर कहीं से आभास नहीं होता कि गरमी और असुविधाओं का इनपर कोई असर है. यहां जो बच्चे अभी नए हैं वे प्लेटफॉर्म के पीछे बनी दीवार के सामने डमी पिस्टल लेकर हाथ साधने का अभ्यास कर रहे हैं. बाकी एयर पिस्टल से टारगेट पर निशाना लगा रहे हैं. एक फायर उसके बाद तीन-चार मिनट का विराम, फिर दूसरे की तैयारी. इस बीच कोई शोरगुल नहीं, कोई बातचीत नहीं. फायर होने के बाद आवाज सिर्फ टारगेट के पीछे लगे टीन के टुकड़े की आती है.
इन निशानेबाजों के पीछे खड़े होकर जब आप इनकी प्रतिभा पर आश्चर्य मिश्रित संदेह जता रहे होते हैं तब इनकी सटीक निशानेबाजी एक के बाद एक आपके कई पूर्वाग्रह तोड़ती है. जैसे शूटिंग सिर्फ राजे-महाराजाओं या उद्योगपतियों का खेल है, यह भी कि इसके लिए लाखों के खर्चे और विदेशी कोच अनिवार्य हैं.
लेकिन क्या इन संसाधनों से औसत प्रतिभाओं के इतर चैंपियन तैयार किए जा सकते हैं? अपने इस सवाल का उत्तर पाने के लिए हमें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. बाकी निशानेबाजों से अलग प्लेटफॉर्म के पीछे बैठे रवि जाटव से हमारी बात शुरू होती है. वे यहां रायफल के अकेले निशानेबाज हैं. कुर्सी पर बैठकर अपनी रायफल (यह उन्होंने दिल्ली के एक लड़के से कुछ दिनों के लिए उधार ली है) ठीक कर रहा 23 साल का यह युवा जर्मनी, सिंगापुर, थाइलैंड और चेक रिपब्लिक में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय निशानेबाजी प्रतियोगिताओं में भाग ले चुका है. नवीन जिंदल के साथ उनकी टीम लगातार तीन साल से राष्ट्रीय निशानेबाजी का सिल्वर मेडल जीत रही है. खुद रवि 2004 में सिंगापुर शूटिंग फेस्टिवल में गोल्ड मेडल जीत चुके हैं. एक भट्टा मजदूर के आठ बच्चों में तीसरे रवि की कहानी उन सभी खिलाड़ियों के लिए एक मिसाल हो सकती है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने घटिया प्रदर्शन के लिए संसाधनों की कमी का रोना रोते हैं. निशानेबाजी कोटे के दम पर दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ने वाले रवि के पास एक समय अभ्यास के लिए छर्रे नहीं होते थे. तब वे अंडे बेचकर छर्रे खरीदते थे. स्नातक के अंतिम साल में पढ़ रहे रवि इस समय पढ़ाई को लेकर काफी गंभीर हैं. हमसे बात करते हुए वे कहते हैं, ‘ये मेरी पढ़ाई का आखिरी साल है और इस बार ग्रैजुएशन के लिए काफी मेहनत कर रहा हूं, इसके बाद पूरा ध्यान शूटिंग पर दूंगा.’
दादी के अलावा हमारी नजर यहां एक और उम्रदराज व्यक्ति पर जाती है. खादी का धोती-कुर्ता, हट्टा-कट्टा शरीर और निशानेबाजों पर बारीक नजर. ये डॉ राजपाल सिंह हैं, इस शूटिंग रेंज और इस इलाके के लड़के-लड़कियों के सपनों को हकीकत में बदलने वाले शख्स. पेशे से आयुर्वेदिक चिकित्सक और दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में सुपरिटेंडेंट 59 वर्षीय सिंह ने 1998 में बागपत के जोहड़ी गांव में शूटिंग रेंज की स्थापना की थी. राहुल गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित कई दिग्गजों को निशानेबाजी के गुर सिखा चुके सिंह दिल्ली या एनसीआर की बजाय अपने पुश्तैैनी गांव में शूटिंग रेंज बनाने की वजह बताते हुए कहते हैं, ‘शहर गांव की ओर, मेरा मिशन है. मेरी पूरी कोशिश है कि गांवों की प्रतिभाओं को तराशा जाए. यदि किसी शहर में रहने वाले को मुझसे शूटिंग सीखनी है तो उसे भी जोहड़ी आकर ही सीखना होगा.’
‘मैं पापा से हर बार पूछती हूं कि ऐसा कब होगा जब छर्रे, पिस्टल, टारगेट जैसा मन मेरा पढ़ाई में भी लगेगा’
1986 में सिओल एशियाड में निशानेबाजी प्रतियोगिता (यहां उनका छठा स्थान था) में भाग ले चुके सिंह के लिए जोहड़ी में शूटिंग रेंज खोलना कोई बड़ा काम नहीं था. लेकिन इस रेंज में बच्चों को बुलाना सबसे बड़ी चुनौती था. अपराधों के लिए कुख्यात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस गांव में शूटिंग रेंज का शुरू में काफी विरोध किया गया. गांववालों का कहना था कि इसके बाद तो बच्चा-बच्चा कट्टे से निशाना लगाना सीख जाएगा. इस बारे में डॉ सिंह बताते हैं, ‘गांववालों को मैं इस मायने में ज्यादा समझदार मानता हूं कि उन्हें हर नफे-नुकसान का साक्षात प्रमाण चाहिए. यहां बातें कह देने भर से काम नहीं चलता. इसलिए मैंने गांववालों के विरोध पर कान न देकर उन्हें प्रमाण देने की बात ठान ली.’
अभी शूटिंग रेंज को खुले हुए तीन महीने ही हुए थे कि यहां के बच्चों ने शिमला के बिशप कॉटन स्कूल में आयोजित ऑल इंडिया इंटर स्कूल चैंपियनशिप में कई मेडल जीत लिए. इस प्रदर्शन के आधार पर एयरइंडिया ने तुरंत ही चार बच्चों को स्पांसर कर दिया और उन्हें कंपनी से वजीफा मिलने लगा. इसी साल जोहड़ी की एक लड़की सीमा तोमर का निशानेबाजी की राष्ट्रीय टीम में चयन हुआ और उसने गोल्ड मेडल जीत लिया. ये उपलब्धियां जोहड़ी की शूटिंग रेंज को सिर्फ छह महीने में मिली थीं. इसका पहला परिणाम यह हुआ कि शूटिंग रेंज को लेकर गांववालों का विरोध पूरी तरह खत्म हो गया. इसके अलावा जोहड़ी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सीमा से लगे इस इलाके में एक और नई शुरुआत की. परंपरागत रूप जो इलाका लड़कियों और महिलाओं पर कई तरह की पाबंदियों के लिए जाना जाता था, वहां जोहड़ी शूटिंग रेंज से शुरुआत में इक्का-दुक्का लड़कियों ने जब कुछ प्रतियोगिताओं में गोल्ड मेडल जीता तो यह परंपरा भी दरकने लगी और गांव की कई लड़कियां यहां निशानेबाजी सीखने आने लगीं. दादी ने भी इसी समय निशानेबाजी सीखनी शुरू की थी. वे यहां अपनी पोतियों को निशानेबाजी सिखाने लाई थीं. एक दिन पिस्टल लोडिंग में अपनी पोती की मदद करते हुए उन्हें निशानेबाजी का ऐसा चस्का लगा कि बाद में निशानेबाजी की कई प्रतियोगिताओं में उन्होंने सेना के अधिकारियों को हराकर मेडल जीते.
इसी बीच एक और घटना हुई जिसने शूटिंग रेंज को पश्चिमी उत्तर प्रदेश सहित हरियाणा में खासी प्रतिष्ठा दिला दी. साल 2002 में सेना के एक लेफ्टिनेंट जनरल अशोक वासुदेवन यहां आए थे. वासुदेवन को सेना के लिए कुछ अच्छे निशानेबाजों की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने यहां से छह लड़कों और दो लड़कियों को सेना में सीधे भर्ती कर लिया. इस घटना के बाद इलाके भर में जोहड़ी को ऐसा केंद्र समझा जाने लगा जहां बच्चों की किस्मत बदल जाती है. उस समय आर्मी में यहां की एक लड़की सीमा तोमर का भी चयन हुआ था. सीमा ने हाल ही में डोरसेट में (इंग्लैंड) आयोजित निशानेबाजी विश्व कप में ट्रैप इवेंट का सिल्वर मेडल जीता है. इस समय जोहड़ी गांव की यह लड़की विश्व महिला निशानेबाजों में चौथी रैंकिंग पर है, किसी भी भारतीय महिला निशानेबाज की यह अब तक की सबसे ऊंची रैंकिंग है.
2002 में इस रेंज को भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) ने मान्यता दे दी. साई द्वारा यहां नियुक्त कोच फारुक पठान सरकार से मान्यता मिलने का फायदा बताते हुए कहते हैं, ‘अब यहां प्रशिक्षण ले रहे बच्चों को हर महीने 900 रुपए का वजीफा मिलता है जिससे निशानेबाजी के लिए छर्रों का खर्च पूरा करने में आसानी होती है. लेकिन साई ने हमें अभी तक एक ही पिस्टल दी है, जबकि हमें उनसे आठ पिस्टल मिलनी थीं.’
इस समय जोहड़ी शूटिंग रेंज में बाहर के युवा भी प्रशिक्षण ले रहे हैं. बीकानेर की 20 वर्षीया भावना शर्मा कुछ दिन पहले ही यहां आई हैं. जूनियर पिस्टल शूटिंग में भारतीय रिकॉर्ड की बराबरी करने वाली और शूटिंग की राष्ट्रीय खिलाड़ी भावना हमसे बात करते हुए कहती हैं, ‘यहां का प्रतियोगी माहौल सबसे बड़ी खासियत है. यहां आपके पास नेशनल, इंटरनेशनल खिलाड़ी प्रैक्टिस करते हैं. इनसे काफी कुछ सीखने को मिलता है, लेकिन फिर भी कोई दिक्कत हो तो डॉ अंकल तो हैं ही.’
एक दूसरे से सीखने की ललक इस रेंज की सबसे बड़ी खासियत है. भावना जूनियर स्तर पर अपने राष्ट्रीय रिकॉर्ड पर बात करते हुए कहती हैं, ‘मैं चाहती हूं कि मेरा रिकॉर्ड जोहड़ी की ही कोई शूटर तोड़े.’ उनका इशारा सुल्तानपुर की एक और निशानेबाज वर्तिका की ओर है. 15 साल की यह लड़की इंटर स्कूल चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीत चुकी है.
इस शूटिंग रेंज का हर एक निशानेबाज डॉ सिंह की एक खास तकनीक का मुरीद है. वे निशाना लगाने के लिए तैयार निशानेबाज का हाथ पकड़कर उसकी आंखों की पुतली में देखकर अपने हाथ से पिस्टल का ट्रिगर दबाते हैं और लगभग हर बार छर्रा सही निशाने पर लगता है. डॉ सिंह की इस तकनीक से अभिभूत यहां की एक निशानेबाज रुचि सिंह हमें बताती हैं, ‘इससे हमारी ग्रुपिंग (एक ही जगह निशाना लगाना) अच्छी होती है.’ सुल्तानपुर के गांव धरौरा की रुचि यहां अभ्यास कर रही एक और अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी हैं. एक सीमांत किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाली 17 साल की यह लड़की पिछले पांच साल से निशानेबाजी की राष्ट्रीय चैंपियनशिप में शामिल हो रही है. पिछले साल दिसंबर में दोहा में आयोजित यूथ ओलंपिक ट्रायल में रुचि को ओलंपिक को कोटा मिला है. एयर पिस्टल में यूथ ओलंपिक का कोटा पाने वाली यह भारत की पहली निशानेबाज है. 11वीं की इस छात्रा से बात करते हुए आपको बिल्कुल भी एहसास नहीं होता कि उसने ‘भारत की पहली महिला शूटर’ के तमगे को बहुत गंभीरता से लिया है, उसकी बातों में अभी भी स्कूली छात्रों वाली झिझक और मसखरापन बाकी है. अपनी पढ़ाई के बारे में वह हंसते हुए कहती है, ‘मैं पापा से हर बार पूछती हूं कि ऐसा कब होगा जब छर्रे, पिस्टल, टारगेट जैसा मन मेरा पढ़ाई में भी लगेगा.’
जोहड़ी में आज इन लड़कियों का आखिरी दिन है. कुछ दिन अपने घर पर रहने के बाद इन्हें पुणे जाना है. यहां निशानेबाजी के विश्व कप का ट्रायल आयोजित किया गया है. जोहड़ी की इस शूटिंग रेंज में दोपहर बीत चुकी है. लड़के-लड़कियां दूसरे सत्र में निशानेबाजी के अभ्यास के लिए फिर जुट रहे हैं. हम जाते-जाते रुचि से पूछते हैं, ‘तो अगले वर्ल्ड कप का लक्ष्य क्या है?’ जवाब हमारे सोचे हुए ‘गोल्ड मेडल’ से कहीं ज्यादा सकारात्मक और उम्मीद से भरा है. रुचि कहती हैं, ‘बस दूसरों से लंबी लकीर खींचनी है.’
(जयप्रकाश त्रिपाठी के योगदान के साथ)