देश में जाति-आधारित जनगणना को लेकर बहस थमने का नाम नहीं ले रही. कम से कम तीन तरह की राय हमारे सामने बिल्कुल स्पष्ट है. पहली राय के मुताबिक ऐसी गिनती समाज में जातिवाद को मजबूत करेगी और देश को पीछे ले जाएगी. दूसरी राय ठीक उलटी है कि जाति आधारित जनगणना के बिना हम न्याय और समतामूलक समाज बनाने का लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएंगे. तीसरी राय में कुछ दुविधा दिखती है- वह जातिमूलक गणना के पूरी तरह विरुद्ध नहीं, लेकिन इस प्रश्न पर संशयग्रस्त है कि कहीं तो किसी मोड़ पर हमें जाति की पहचान से मुक्त होकर आगे बढ़ने की कोशिश करनी होगी.
आखिर किसी आधुनिक समाज में वे निशानियां खत्म होनी चाहिए जिनसे लोग बंटते हों और उनके बीच दीवार खड़ी होती होबहरहाल, 1931 के बाद पहली बार देश में जाति गिनने की बात चल पड़ी है- हालांकि कुछ सीमित अर्थों में. क्योंकि फिलहाल जो प्रस्ताव है, वह सिर्फ ओबीसी यानी अन्य पिछड़ी जातियों की गणना का है. यही नहीं, इस पर अंतिम निर्णय मंत्रियों के समूह को लेना है. इस बीच इस मुद्दे पर नेताओं और राजनीतिक दलों की दुविधाएं भी सामने आती रही हैं. कांग्रेस के कई नेता जातिगणना के विरोध में खुलकर सामने आ चुके हैं तो बीजेपी के भीतर जातिगणना के पक्ष में उठने वाली आवाज़ें दबाई जा रही हैं. ताजा ख़बर यह है कि आरएसएस ने इस मामले में जातिगणना के साथ खड़े होने पर बीजेपी की खिंचाई की है.
इसमें शक नहीं कि जातिगणना होगी तो वह ऐतिहासिक कदम होगी जिसके दूरगामी नतीजे होंगे. यह सच है कि ऐसी गणना के पहले एक कसक हमारे भीतर पैदा होनी चाहिए कि 50 साल में हम जातिगत पूर्वाग्रहों की उस सच्चाई से ऊपर उठ नहीं पाए जिसे हमने दफन कर देने का फैसला किया था. आखिर किसी आधुनिक समाज में वे निशानियां खत्म होनी चाहिए जिनसे लोग बंटते हों और उनके बीच दीवार खड़ी होती हो.
इसीलिए आजादी के बाद हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने जातियों के आधार पर जनगणना कराना मंज़ूर नहीं किया था. तब कहीं यह खयाल था कि ऐसी गिनती जातिवाद को मज़बूत करेगी और यह सपना भी था कि नया लोकतांत्रिक भारत इन पुरानी बेड़ियों से आजाद हो जाएगा. एक अर्थ में हमारा संविधान बहुत क्रांतिकारी रहा, सदियों की मानसिक और सामाजिक गुलामी के पार जाकर हमारे संविधान निर्माताओं ने बराबरी का एक सपना देखा और लिखा जिस पर भारत चल सके. हमारी स्वतंत्रता और हमारे संविधान का एक बड़ा लक्ष्य सामाजिक और राजनीतिक आधारों पर एक समतामूलक देश बनाना ही रहा था.
लेकिन 2,000 साल की सामाजिक संरचना नए दौर के राजनीतिक और आधुनिक सपने से कहीं ज्यादा ताकतवर निकली. इसीलिए समतामूलक समाज का सपना पीछे छूट गया और जातिमूलक पूर्वाग्रहों की सच्चाई ज़्यादा बड़ी हो गई. यह एक देश के रूप में हमारी विफलता है और यही वजह है कि समाज के एक बड़े हिस्से को जातियों की गिनती जरूरी लग रही है.
साफ है कि हम जातिगणना से जिस पुराने राक्षस के फिर से जीवित होने का डर दिखा रहे हैं वह कभी मरा ही नहीं. उसने अपना स्थूल रूप भले नष्ट कर लिया, लेकिन ज्यादा बारीक और सूक्ष्म स्तरों पर बचा रहा. दरअसल, जाति के आधार पर गिनती की अहमियत यहीं से दिखाई पड़ती है. कानून के हिसाब से जातियों का फर्क भले ख़त्म हो गया हो वह सामाजिक व्यवहार में, खासकर बेटी और रोटी के रिश्ते में खुलेआम बचा रहा और राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवहार में छुपे तौर पर कायम रहा.
यह सच्चाई है कि जाति गिनने से जाति ख़त्म नहीं होगी. लेकिन वह पिछले 70 साल से जाति न गिनने से भी खत्म नहीं हुईइस प्रक्रिया के कई नतीजे रहे. एक नतीजा देश के संसाधनों और संस्थानों पर अगड़ी जातियों के वर्चस्व और कब्जे के रूप में दिखता है तो दूसरा नतीजा संसदीय लोकतंत्र और चुनावी राजनीति की जातिवादी जकड़नों में नज़र आता है. दुर्भाग्य से प्रशासनिक और सामाजिक नेतृत्व की बड़े पैमाने पर नाकामी ने जातिवाद को नए तर्क भी दिए नई खुराक भी. कई लोगों को लगता है कि 1990 में वीपी सिंह की राजनीति से पैदा हुई मंडल की परिघटना ने भारतीय समाज की दरार बढ़ाई. लेकिन सच्चाई यह है कि मंडल ने बस वह कालीन हटा दी जिसके नीचे जातिवाद की दरारों से भरा भारतीय समाज का फर्श दिखने लगा. यह दरार मौजूद थी, इसीलिए मंडल की मांग ने इतना तूफ़ान पैदा किया. साफ तौर पर यह सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मामला भर नहीं था, देश के संसाधनों पर बराबरी के हक का मामला था. यह अनायास नहीं है कि मंडल के बाद पिछड़ा राजनीति लगभग पूरी तरह स्वायत्त हो गई. बेशक मंडल में आमूलचूल बदलाव की जो संभावना थी उसे उसके नेता समझ नहीं पाए और उन्होंने एक नई यथास्थिति के निर्माण में उसे जाया भर कर दिया. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि मंडल ने भारतीय समाज की दरारों को बिल्कुल प्रत्यक्ष कर दिया. यही नहीं मंडल ने यह भी समझाया कि अंतत: देश और समाज को बदलना है तो सत्ता के सूत्र अपने हाथ में लेने होंगे.
इसी समझ का नतीजा है कि जिन पिछड़ी जातियों को अपनी जाति कभी ढकनी-छुपानी पड़ती थी वे मांग कर रहे हैं कि जनगणना के दौरान लोगों की जाति भी पूछी जाए और जिन लोगों का सारा जीवन अपनी जाति के अभिमान में बीता, अपने सजातीयों को नौकरी या सुविधा देते गुजरा, अपनी बेटी के लिए जाति के भीतर अच्छे वर खोजते कटा वे यह उपदेश दे रहे हैं कि जाति समाज को तोड़ेगी.
निश्चय ही जाति समाज को तोड़ती है. लेकिन यह किन लोगों की जाति है जो समाज को तोड़ रही है? इस देश के सबसे पढ़े-लिखे लोग, सबसे ज्यादा साधनों पर काबिज लोग अब भी अपनी जाति के बाहर देखने को तैयार नहीं हैं. महानगरों में जो एक नया खाता-पीता भारत बन रहा है उसके यहां जाति टूटी है तो बस अगड़ों के बीच, यहां तक कि अगड़े हिंदू और अगड़े मुसलमान भी साथ दिख रहे हैं. लेकिन अब भी अगड़ी और पिछड़ी जातियों की शादियां नहीं के बराबर नज़र आती हैं.
वाकई समाज को बचाने के लिए जाति को तोड़ना होगा. लेकिन जाति आसानी से नहीं टूटती. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि जाति तोड़नी है तो भारत को रोटी और बेटी का नाता जोड़ना होगा. रोटी का नाता मन मारकर सामाजिक मजबूरियों में हम जोड़ने को तैयार हो गए, बेटी का नाता जोड़ने में अब भी हिचक दिखाई पड़ती है. सारे अगर-मगर के बावजूद फिलहाल हमें मानना होगा कि जाति अब भी एक बड़ी संरचना है जिससे हमारे निजी, पारिवारिक, सामाजिक और यहां तक कि राजनीतिक रिश्ते तय होते हैं. इस संरचना का विद्रूप यही है कि अगड़ी जातियों का एक छोटा-सा तबका राष्ट्रीय संपत्ति के बड़े हिस्से पर काबिज है.
कई लोगों का दावा है कि यह सच्चाई नहीं है. 1931 के जिस आंकड़े को हमारी आबादी के जातिगत अनुपात का आधार बनाया जाता है उसमें बहुत परिवर्तन हो चुके हैं. उसका कोई नया आंकड़ा नहीं है जिसके आधार पर जाति और संपत्ति का, जाति और संसाधनों का अनुपात तय किया जा सके. लेकिन यह तर्क भी अंतत: जातिगत आधार पर जनगणना के पक्ष में खड़ा होता है. अगर हम नया आंकड़ा चाहते हैं- जो हमें इसलिए भी चाहिए कि अपने समाज में पिछड़ी जातियों और पिछड़े समुदायों का ठीक-ठीक अनुमान लगा सकें और उनके लिए जरूरी उपक्रम कर सकें- तो हमें जातियों के आधार पर लोगों की गिनती करनी होगी. जाति अगर हमारी सामाजिक संरचना का अविभाज्य हिस्सा बनी हुई है तो इसे तोड़ने के लिए ही पहले इसे समझना होगा. अपने समाज की बुनावट और बनावट को ठीक से नहीं समझेंगे तो कौन-सी बराबरी लाएंगे, कैसा विकास लाएंगे?
दरअसल, जो लोग यह दुहाई देते हैं कि जाति के आधार पर जनगणना से समाज बंटेगा वे या तो समाज से आंख चुराना चाहते हैं या फिर समाज को ज्यों का त्यों बनाए रखना चाहते हैं. हम एक बंटे हुए समाज इसलिए बने रहे कि हमने अपनी दरारें भरने की जगह उन पर परदा डाल दिया. जाहिर है इसके पीछे नादानी नहीं सयानापन है. उन लोगों का सयानापन जो जाति की चर्चा उठाना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे जातिगत यथास्थिति के सारे लाभ अपने पास बनाए रखना चाहते हैं. निश्चय ही जाति की गणना होगी तो उसका पहला लाभ जाति की राजनीति करने वालों को मिलेगा. लालू, शरद या मुलायम सिंह यादव इसलिए भी यह गिनती चाहते हैं. लेकिन इस छोटे-से ख़तरे को टालने के लिए हम एक ज्यादा बड़ी सामाजिक प्रक्रिया को समझने की जरूरत से इनकार नहीं कर सकते.
यह सच्चाई है कि जाति गिनने से जाति ख़त्म नहीं होगी. लेकिन वह पिछले 70 साल से जाति न गिनने से भी खत्म नहीं हुई. जाति को खत्म करने के लिए एक ज़्यादा बड़ी लड़ाई ज़रूरी है. और सूचना के हक के इस दौर में यह समझाने की जरूरत नहीं कि इस लड़ाई के लिए भी जाति के बारे में हमारे पास ज़्यादा से ज्यादा सूचनाएं होनी चाहिए, अपनी सामाजिक समरभूमि का एक साफ नक्शा होना चाहिए.
हैरान करने वाली बात है कि इस बार की जनगणना के साथ जुड़े विशिष्ट पहचान पत्र के लिए हम अपनी दसों उंगलियों के निशान और अपनी आंखों की बायोमेट्रिक पहचान देने को तैयार हैं- बिना यह सवाल उठाए कि इससे पुलिस राज्य की मजबूती के अलावा और क्या हासिल होगा. लेकिन जाति की जिस गिनती से आखिरकार हमारी एक बड़ी लड़ाई का वास्ता है, उसके लिए हम
तैयार नहीं हैं.