हाशिए की आवाजें

समाचार चैनलों खासकर हिंदी चैनलों पर भारतीय समाज की मुख्यधारा के सभी चरित्र किसी-न-किसी रूप में दिख ही जाते हैं- चाहे वे नेता हों या अभिनेता या फिर नायक-नायिकाएं और खलनायक. आजकल मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने वाला ‘आम आदमी’ भी वहां दिखता है. तात्पर्य यह कि शायद ही कोई छूटा हो. यहां तक कि भूत-प्रेत, एलियंस और पशु-पक्षियों को भी समाचार चैनलों पर अच्छा-खासा समय मिल जाता है. लेकिन यही बात देश के करोड़ों दलितों और आदिवासियों के बारे में नहीं कही जा सकती. आश्चर्य नहीं कि हमारे ‘सबसे तेज’ से लेकर ‘खबर हर कीमत पर’ देने का दावा करने वाले लगभग एक दर्जन से अधिक चैनलों पर या तो वे बिलकुल नहीं दिखते या फिर कभी-कभार छोटे-मोटे अपराधों में शामिल अपराधियों और कभी सामंती-पुलिसिया उत्पीड़न के निरीह शिकारों की तरह दिख जाते हैं. आदिवासियों को तो वास्तव में एलियंस की तरह ही ट्रीट किया जाता है जो चैनलों पर कभी-कभार किसी दूसरे ग्रह के नागरिक की तरह सुदूर जंगलों में घूमते दिख जाते हैं.

चैनलों पर दलितों-आदिवासियों के चित्रण में एक खास तरह का स्टीरियोटाइप हावी रहता हैजाहिर है कि दलितों-आदिवासियों के चित्रण में एक खास तरह का स्टीरियोटाइप हावी रहता है. समाचार चैनलों पर उन्हें सेलिब्रेटेड ‘आम आदमी’ से भी कई पायदान नीचे गरीबी, भुखमरी, बलात्कार और हिंसा के शिकार निरीह प्राणियों या अपराधियों या फिर सीधे राज्यसत्ता को चुनौती देते बागियों (नक्सलियों/माओवादियों) की तरह पेश किया जाता है. गोया ‘आम आदमियों’ की तरह वे पढ़ते-लिखते नहीं, नौकरी-चाकरी नहीं करते, प्रेम-शादी-विवाह नहीं करते, घूमते-फिरते नहीं, नाचते-गाते नहीं, शापिंग मॉलों में खाते-पीते-खरीदारी नहीं करते और पर्व-त्योहार नहीं मनाते.

ऐसे में, अगर कभी इस स्टीरियोटाइप छवि को तोड़ते हुए इनमें से कोई मायावती या शिबू सोरेन जैसा निकल आए तो चैनलों के लिए वह एक चमत्कार होता है जिसे वे कुछ हैरत, कुछ झिझक और कुछ घृणा के मिले-जुले भाव के साथ दिखाते हैं. चैनलों को देखकर ऐसा लगता है कि वे न सिर्फ दलित-आदिवासी समुदाय के उभरते हुए मध्यवर्ग और उसकी आकांक्षाओं से पूरी तरह से अपरिचित हैं बल्कि उन्हें अपने हक के लिए सजग और लड़ने-मरने को तैयार दलित-आदिवासी भी नहीं दिख रहे. यही कारण है कि हमारे समाचार चैनलों पर दलितों-आदिवासियों की वे बहुरंगी छवियां नहीं दिखाई पड़तीं जो किसी भी जीवंत और अपने सम्मान-पहचान और हकों के लिए लड़ और बढ़ रहे समुदाय की निशानी होती हैं. निश्चय ही, चैनलों पर दलितों-आदिवासियों की वास्तविक छवियों की अनुपस्थिति की एक बड़ी वजह खुद न्यूजरूम में दलित-आदिवासी पत्रकारों-संपादकों की अत्यंत विरल या न के बराबर मौजूदगी है. यह भारतीय समाचार मीडिया के साथ-साथ चैनलों की भी सबसे बड़ी ‘लोकतांत्रिक कमियों’ में से एक है. खुद चैनलों की लच्छेदार भाषा में कहें तो आज़ादी के 63 साल बाद भी हमारे जनसंचार माध्यमों के समाचार कक्षों में देश की कुल आबादी के 23 प्रतिशत हिस्से की भागीदारी 5 प्रतिशत से भी कम है.

क्या चैनलों के न्यूजरूम में दलितों-आदिवासियों की संख्या बढ़ने और उन्हें निर्णय लेने वाले पदों पर बैठाने से उन समुदायों की वास्तविक तस्वीर पेश करने में कोई मदद मिलेगी? जवाब है- हां. इसके बेहतरीन उदाहरण हैं एनडीटीवी-इंडिया के रवीश कुमार. यह कहना गलत नहीं कि वे इस समय हिंदी समाचार चैनलों की छोटी-सी दुनिया में कुछ सबसे संवेदनशील, संजीदा, साहसी और चैनलों की मुख्यधारा से परे हमेशा कुछ नया करने को बेचैन पत्रकारों में से एक हैं. ब्रेकिंग न्यूज धुन पर नाचने वाले पत्रकारों में से नहीं हैं. उनकी पहचान भी है और शक्ति भी. उनकी रिपोर्टों में आप वंचित समुदायों खासकर दलित मध्यम वर्ग और उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं और संघर्षों-उपलब्धियों को मुखरित होते देख सकते हैं. हाल में पंजाब के लुधियाना में दलित समुदाय के बीच नए उभार और उसकी अभिव्यक्ति में जातिसूचक पहचान के साथ बन और बज रहे गीतों पर तैयार रिपोर्ट हो या दलित समुदाय के बीच से खामोशी से उभर रहे उद्योगपति-बिजनेसमैन तबके की कथा, उनकी रिपोर्टें न सिर्फ दलित समुदाय की कशमकश को दर्शाती हैं बल्कि उन्हें मौजूदा दौर में इस समुदाय के सबसे महत्वपूर्ण आख्यानकर्ताओं (क्रॉनिकलरों) में से एक भी बनाती हं.

वास्तव में, रवीश का होना सिर्फ हिंदी ही नहीं समूची पत्रकारिता के उस ‘लोकतांत्रिक घाटे’ को कुछ हद तक कम करता है जो अपनी इस कमी के कारण खुद से लड़ते, बढ़ते और बदलते भारत की नब्ज को पकड़ पाने में बार-बार नाकामयाब हो रहा है. कहने की जरूरत नहीं कि हमें एक नहीं, ऐसे दर्जनों रवीश कुमारों की जरूरत है. और हां, एक आदिवासी रवीश कुमार की कमी तो बहुत दिनों से खल रही है. कोई सुन रहा है?