फिल्म मिस्टर सिंह/मिसेज मेहता
निर्देशक प्रवेश भारद्वाज
कलाकार प्रशांत नारायणन, अरुणा शील्ड्स
नाम बताता है कि यह विवाहेतर संबंधों की कहानी हो सकती है. फिल्म भी कमोबेश यही बताती है. इससे आगे एक भी बात नहीं. फिल्म एक दूसरी चीज यह भी बताती है कि इस विषय पर पहले कहीं बेहतर फिल्में बन चुकी हैं, ज्यादा अच्छी ही नहीं, ज्यादा उत्तेजक भी. आप पहले बीस मिनट में फिल्म का स्तर जान लेते हैं और तब प्रचार के दौरान उड़ी उन अफवाहों को याद करते हैं जिनमें कहा गया है कि सेंसर ने इस फिल्म के कुछ नग्न दृश्यों को धुंधला करवा दिया है. मन बहलाने के लिए आप उन दृश्यों का इंतजार कर सकते हैं लेकिन यकीन मानिए, वे दृश्य भी कोई ‘मनोरंजन’ नहीं देते जिन्होंने हमारे देश में कई शशिलाल नायरों (एक छोटी सी लव स्टोरी) और मल्लिकाओं को प्रसिद्ध और मालामाल कर दिया है (कृपया नैतिकतावादी मुझे माफ करें और ईश्वर प्रवेश भारद्वाज को, जो एक्स्ट्रा-मेरिटल रिश्ते के बाकी सारे पहलुओं को छोड़कर सेक्स पर डेढ़-दो घंटे अटके रहे हैं और उसे भी ठीक से नहीं दिखा पाए हैं).
कहानी के बाद इस फिल्म की सबसे बड़ी समस्या इसकी नायिका जी हैं. अरुणा शील्ड्स जब बहुत दुखी होने का अभिनय करती हैं तब हॉल में दर्शकों की हंसी छूट पड़ती है. वे शर्माती हैं तो सहमी हुई बच्ची जैसी लगती हैं और बहुत प्यार से प्रशांत नारायणन को गले लगाती हैं तो उनके चेहरे पर ऐसे भाव होते हैं जैसे उनके साथ जबरदस्ती की जा रही हो. उन्हें चाहिए कि कुछ समय तक कैमरे से दूर रहकर एक्टिंग सीखें या म्यूजिक वीडियो करने लगें.
तीसरी समस्या बैकग्राउंड संगीत है जो इस बात की परवाह किए बिना बजता है कि स्क्रीन पर कैसा दृश्य चल रहा है. संगीत और दृश्य एक-दूसरे के पूरक होने की बजाय दुश्मन बन जाते हैं और एकाध अच्छे सीन का भी मजा किरकिरा कर देते हैं.
फिल्म उन सार्थक फिल्मों की श्रेणी में आने की नाकाम कोशिश करती है जो अपना अधिकांश अर्थ दर्शकों की समझ पर छोड़ देती हैं. फिल्म नैतिक-अनैतिक होने के बीच बेवजह डोलती है, लेकिन इतनी भी नहीं कि आप उसके बारे में सोचें. परेशान करना तो दूर, वह आपको खुद से जोड़ने की फिक्र भी नहीं करती और उसी मोड़ पर ठहरी रहती है जहां वह शुरू हुई थी. ‘दस कहानियां’ की सबसे पहली कहानी ‘मेट्रिमनी’ में संजय गुप्ता ने ऐसे ही रिश्ते की जटिलता को सिर्फ पंद्रह मिनट में कहीं ज्यादा रोचक ढंग से दिखा दिया था.
लेकिन किसी भी कीमत पर इस समीक्षा को प्रशांत नारायणन की बहुत सारी प्रशंसा किए बिना खत्म नहीं किया जा सकता. वे हर कमजोर दृश्य में भी (यानी हर दृश्य में) कीचड़ के कमल की तरह चमकते रहते हैं. यह हिंदी फिल्मों की बदकिस्मती है कि वे उनकी प्रतिभा को बार-बार ऐसी आत्माहीन फिल्मों में जाया होने दे रही हैं.
गौरव सोलंकी