यह 1975 की बात है. 22 साल की कुमकुम सक्सेना को यकीन ही नहीं हो रहा था कि उन्हें यूनियन कार्बाइड जैसी बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई है. भोपाल निवासी और अब अमेरिका में रह रही कुमकुम कहती हैं, ‘मैं हमेशा से किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने का सपना देखती थी. इसलिए इतना बढ़िया मौका मिलने पर मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.’ लेकिन सात साल बीतते-बीतते उनके सपनों की चमक उतरने लगी. संभावित खतरों, नियमों के पालन में लापरवाही और सुरक्षा उपकरणों के प्रति उपेक्षा के बारे में उनकी बार-बार की चेतावनियों ने उन्हें मैनेजमेंट की आंखों की किरकिरी बना दिया. कुमकुम बताती हैं, ‘वे तो सब-कुछ अच्छा ही अच्छा बता रहे थे और मैं सिलिका की धूल और हाइड्रोकार्बन लेवल जैसी चीजों का शोर मचा रही थी. मैं जितना आवाज उठाती, मुझे उतना ही दरकिनार किया जाता. मेरी तनख्वाह नहीं बढ़ाई गई और जल्दी ही मुझे मैनेजमेंट की बैठकों में हिस्सा लेने से भी रोक दिया गया.’ 1982 के आखिर में कुमकुम ने फैसला किया कि अब बहुत हो चुका और उन्होंने कंपनी से इस्तीफा दे दिया.
3 दिसंबर 1984 की रात, कुमकुम ईदगाह पहाड़ी पर बने अपने मकान में बैठी पढ़ रही थीं. अगले दिन उनका न्यूरॉलॉजी का पेपर था. किताब खोले कुछ ही वक्त हुआ था कि फोन की घंटी बजी. दूसरी तरफ से लोग चीखते हुए उनसे कह रहे थे कि फैक्टरी में कैमिकल लीक हो गया है और वे कुछ करें. कुमकुम बताती हैं, ‘मैंने सोचा कि हे भगवान, फिर वही मुसीबत.’ कैमिकल रिसाव की बात सुनना उनके लिए नई बात नहीं था. उन्होंने यूनियन कार्बाइड इसी वजह से जो छोड़ी थी. वे बताती हैं, ‘मैंने कहा कि हवा की उलटी दिशा में भागो, अपने चेहरे को गीले कपड़े से ढक लो ताकि गैस घुल जाए.’
गैस रिसाव की छोटी-मोटी घटनाएं तो हमेशा ही होती रहती थीं. कोई महीना ऐसा नहीं जाता था जब फैक्टरी परिसर में लगा अलार्म सायरन न बजता होलेकिन कुमकुम को अंदाजा नहीं था कि मुसीबत ने इस बार कितना विकराल रूप धारण कर लिया है. फैक्टरी से निकली जहरीली मिथाइल आइसोसायनेट गैस बड़े पैमाने पर हवा में घुल गई थी और लोगों की सांसें उखाड़ रही थी. कुमकुम बताती हैं, ‘गैस इतनी ज्यादा थी कि मेरे घर के बाहर लगे पौधों की पत्तियां तक जल गईं. अगर मैं घबरा गई होती और दरवाजा खोल लिया होता तो मेरी भी जान चली जाती.’लेकिन भोपाल के 20,000 लोग उनके जितने किस्मतवाले नहीं थे. अगली सुबह शहर के लिए सबसे भयानक सुबह थी. लेकिन इस त्रासदी को टाला जा सकता था. कुमकुम कहती हैं, ‘अगर यूनियन कार्बाइड ने लोगों को यह बता दिया होता कि गैस से अपना बचाव कैसे करना है तो असमंजस में इधर-उधर भागने की बजाय हजारों लोग अपने घर के भीतर ही रहते.’
यूनियन कार्बाइड में नौकरी के दौरान कुमकुम हमेशा खतरे से आगाह करती रहीं पर कंपनी ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया. वे बताती हैं कि उनकी नौकरी किसी स्कूल नर्स की तरह थी जहां उन्हें चार बेड वाला एक मेडिकल सेंटर चलाना था और घायल वर्करों का इलाज करना था. अपनी ट्रेनिंग के तहत जब वे फैक्टरी की शोध एवं विकास प्रयोगशालाओं में गईं तो उन्हें पता चला कि फैक्ट्री में बेहद जहरीले रसायन बन रहे हैं. यहीं उन्हें यह भी पता चला कि एक सीमा के बाद इन रसायनों के साथ इनसान का संपर्क उसके लिए घातक हो सकता है. कुमकुम बताती हैं, ‘लेकिन यहां तो यह संपर्क उस हद तक हो रहा था जिसे कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता था. सिलिका और हाइड्रोकार्बन का स्तर निर्धारित से ज्यादा था. कभी-कभी तो ऐसा होता था कि गैस रिसाव की समस्या अभी ठीक से हल भी नहीं हुई होती थी और वर्करों को वहां काम करने भेज दिया जाता था.’
कुमकुम सक्सेना |
कुमकुम ने खुद पहल करते हुए नियमित रूप से खून के नमूनों की जांच शुरू की. अक्सर उन्हें चिंताजनक परिणाम मिलते. वे बताती हैं, ‘मैं उन कर्मचारियों को वहां से हटवा देती और तब तक उनका इलाज चलता जब तक उनके खून के नमूने सामान्य नहीं हो जाते.’ वे यह भी कहती हैं कि गैस रिसाव की छोटी-मोटी घटनाएं तो हमेशा ही होती रहती थीं. कोई महीना ऐसा नहीं जाता था जब फैक्टरी में लगा अलार्म सायरन न बजता हो. लेकिन ऐसी घटनाओं को जान-माल का नुकसान हुए बगैर काबू कर लिया जाता था.
लेकिन भविष्य में कोई बड़ा हादसा हो सकता है, इसकी एक अहम चेतावनी 1981 में तब मिली जब गैस रिसाव की ऐसी ही एक घटना में एक व्यक्ति की जान चली गई. अशरफ मुहम्मद नाम का एक वर्कर फॉस्जीन नाम की जहरीली गैस का शिकार हो गया. कुमकुम बताती हैं, ‘हम जब तक कुछ कर पाते तब तक बहुत देर हो चुकी थी.’ इस मौत ने कुमकुम को झकझोर कर रख दिया. उन्हें आशंका थी कि अगर जरूरी कदम फौरन नहीं उठाए गए तो कई लोगों का हश्र अशरफ जैसा हो सकता है. वे कहती हैं, ‘अशरफ की मौत के बाद चेतावनी की घंटी बज जानी चाहिए थी. इस घटना के बाद मैं इस बात पर जोर देती रही कि हमारे पास बड़े पैमाने पर लोगों से इलाका खाली कराने की प्रक्रिया की स्पष्ट योजना होनी चाहिए. किसी खतरनाक फैक्टरी के आसपास रहने वाले लोगों को यह जानने का हक है कि अगर कोई हादसा हो जाए तो उन्हें क्या करना चाहिए.
लेकिन जैसी कि आशंका थी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया. कुमकुम को इससे हैरानी नहीं हुई. वे कहती हैं, ‘ऐसे उपाय करने में, जिनसे लोग सुरक्षित रहें, काफी पैसे खर्च होते हैं और घाटे में चल रही किसी फैक्ट्री के लिए तो यह और भी ज्यादा झंझट है.’
वे गलत नहीं कह रहीं. 1983 यूनियन कार्बाइड के लिए जबर्दस्त घाटे का साल था. उस साल मॉनसून देरी से आया था, कपास की फसल चौपट हो गई थी और कार्बाइड के कीटनाशक सेविन की मांग बहुत घट गई थी. कुमकुम बताती हैं, ‘सेविन से लदे ट्रक के ट्रक वापस आ रहे थे. घाटा इतना ज्यादा हुआ कि कंपनी ने रखरखाव से संबंधित खर्चों में कटौती कर दी. उनकी किसी भी चीज में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी.’
कुल मिलाकर एक भीषण हादसे के लिए सारी परिस्थितियां पैदा हो चुकी थीं. जहरीले रसायनों से भरी एक फैक्टरी, जीर्ण-शीर्ण ढांचे, रखरखाव की कमी, निराश कर्मचारी और उदासीनता. जमा किए गए एमआईसी की मात्रा (तीन पूरे भरे हुए टैंक) पहले ही निर्धारित सीमा के पार पहुंच गई थी. कुमकुम बताती हैं कि फैक्टरी में उत्पादन रुका हुआ था इसलिए फ्लेयर टावर, सेफ्टी वाल्व आदि जैसे सारे सुरक्षा उपाय जो 3 दिसंबर को रिसी गैस को काबू कर सकते थे, बंद थे.
भोपाल त्रासदी के बाद जल्दी ही कुमकुम अमेरिका चली गई थीं. आज वे कनेक्टिकट में बतौर प्राइमरी हेल्थ फिजीशियन काम कर रही हैं. उनकी स्मृतियों से वह दिन गया नहीं है जिसकी भयावहता को समय रहते टाला जा सकता था. हालांकि अपनी तरफ से जितना हो सकता था, उन्होंने किया. वे कहती हैं, ‘उस दिन मेरे सामने दो विकल्प थे. या तो अपना पेपर देने जाती या फिर अस्पताल. मैंने दूसरा विकल्प चुना. मुझे लग रहा था कि वहां डॉक्टरों की जरूरत होगी.’ वे याद करती हैं, ‘मेरे हाथ में पांच इंजेक्शन थे. मैं उस चायवाले को बचाने की कोशिश कर रही थी जो मुझे समोसे खिलाता था. एक नेपाली लड़का था, एक हलवाई और उसकी पत्नी भी थे जो सांस लेने के लिए जूझ रहे थे.’ आज उन्हें लगता है कि काश समय रहते कुछ कर लिया गया होता.