जिंदगी की कीमत, मुनाफे का टीका

प्रख्यात अमेरिकी मनोविज्ञानी इडा लेशान ने कहा था, ’एक बच्चे का जन्म नई शुरुआत है- आश्चर्य की, उम्मीद की, सपने की और संभावनाओं की.’ लेकिन यदि बच्चा भारतीय है तो कुछ लोगों के लिए यह एक और शुरुआत हो सकती है- मुनाफे की. इस गारंटी के साथ कि मुनाफा हमेशा बढ़ता रहेगा क्योंकि हमारे यहां हर साल करीब दो करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं और उनका टीकाकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके लिए मां-बाप कोई समझौता नहीं करते.

डब्‍़ल्यूएचओ जिन वैक्सीनों को टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करने की पैरवी कर रही है उनकी गुणवत्ता ही संदेह के घेरे में है. इसके अलावा सरकार को इन वैक्सीनों की खरीद के लिए वर्तमान से 35 गुना ज्यादा राशि भी खर्च करनी पड़ेगी

बच्चे के जन्म के बाद उसे कुल कितने टीके लगें, इस बारे में भारत सरकार जल्दी ही एक नया फैसला करने वाली है. इस फैसले का जो असर होगा उसके तार सीधे अभिभावकों से जुड़ते हैं और कुछ अलग संदर्भों में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ)  से भी. डब्ल्यूएचओ का जिक्र यहां इसलिए किया गया है कि पिछले कुछ महीनों से यह संस्था काफी कोशिश कर रही है कि कुछ और ‘जरूरी’ वैक्सीनों को टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल किया जाए.

लेकिन अगर ऐसा होता है तो एक तरह से यह देश के नवजात शिशुओं की जान जोखिम में डालने जैसा होगा. दरअसल, संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी यह अंतर्राष्ट्रीय संस्था जिन वैक्सीनों को टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करने की पैरवी कर रही है उनकी गुणवत्ता ही संदेह के घेरे में है. इससे जुड़ी चिंताएं और भी हैं- सरकार को इन वैक्सीनों की खरीद के लिए वर्तमान से 35 गुना ज्यादा राशि खर्च करनी पड़ेगी. इसके अलावा अभी तक जो लोग अपने बच्चों को निजी अस्पतालों में टीके लगवाते हैं, उनके लिए यह बेहद महंगा विकल्प होगा. इस फैसले से भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र के उन विदेशी कंपनियों के और भी ज्यादा नियंत्रण में जाने का खतरा पैदा हो जाएगा. साथ ही देश में इस समय जो सरकारी कंपनियां वैक्सीनों का निर्माण कर रही हैं उन्हें नए सिरे से वैक्सीनों के शोध और विकास के लिए भारी खर्च करना पड़ेगा. डब्ल्यूएचओ पर संदेह करने की और भी वजहें हैं. पिछले कुछ समय से यह संस्था बीमारियों का डर पैदा करने और फिर उन बीमारियों की दवाओं की पैरवी करने के लिए विवादों में रही है. हाल ही में ब्रिटिश मीडिया में एक खबर आई थी कि एच1एन1 इन्फ्लुएंजा (स्वाइन फ्लू) पर संस्था द्वारा दुनिया भर में जारी चेतावनी फर्जी थी. कहा गया कि संस्था ने एच1एन1 वैक्सीन और एंटीवायरल बनाने वाली कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए दुनिया भर में इस बीमारी का खतरा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया. इन खबरों की पुष्टि जून के पहले सप्ताह में तब हो गई जब डब्ल्यूएचओ ने माना कि वह एच1एन1 इन्फ्लुएंजा पर इसे सलाह देने वाले वैज्ञानिकों के हितों को समझने में नाकाम रहा. अब लगता है कि ऐसा ही कुछ गड़बड़झाला भारत में भी होने जा रहा है.

सरकारी टीकाकरण

भारत में टीकाकरण की कोई सुस्पष्ट नीति नहीं है. देश में राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के तहत व्यापक टीकाकरण कार्यक्रम (ईपीआई) चलाया जाता है. हमारे यहां हर साल तकरीबन 2 करोड़ 5 लाख बच्चे जन्म लेते हैं. इनमें से सिर्फ 53 फीसदी बच्चों का टीकाकरण होने के बावजूद भारत दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन बाजार है. इसका मतलब है कि लगभग एक करोड़ दस लाख बच्चे, जो जाहिर तौर पर गरीब परिवारों के होते हैं, टीकाकरण से वंचित रह जाते हैं. भारत में 85 फीसदी टीकाकरण सरकारी तंत्र द्वारा होता है, शेष 15 फीसदी निजी अस्पतालों में.

भारतीय विशेषज्ञों के मुताबिक हेपेटाइटिस बी और हिब बीमारियों का हौव्वा खड़ा करने के पीछे इन वैक्सीनों का निर्माण करने वाली ग्लैक्सो-स्मिथक्लाइन फार्मास्युटिकल्स जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हाथ हैभारत में ईपीआई के तहत पांच प्राथमिक वैक्सीनों को इस्तेमाल होता है- बीसीजी (टीबी से बचाव का टीका), डीपीटी (इसे ट्राइवेलेंट वैक्सीन भी कहते हैं क्योंकि इसमें तीन वैक्सीनों का मिश्रण होता है, इसे कुकुर खांसी और टिटनेस से बचाव के लिए लगाया जाता है), डीटी (इसे डिप्थीरिया और टिटनेस से बचाव के लिए लगाया जाता है), टीटी (इसे आम तौर पर डीपीटी के रूप में लगा दिया जाता है या फिर अलग से भी), खसरा और पोलियो.

जो लोग भारत में निजी क्लीनिक का खर्च (यह आम तौर पर सरकारी टीकाकरण से काफी महंगा है) उठा सकते हैं वे अपने बच्चों का टीकाकरण निजी अस्पतालों में कराते हैं. निजी अस्पतालों का  टीकाकरण आम तौर पर राष्ट्रीय टीकाकरण नीति से अलग होता है. उदाहरण के लिए, कई क्लीनिक हेपेटाइटिस बी और हिब (हीमोफीलियस इन्फ्लुएंजा टाइप बी) वैक्सीन भी लगाते हैं. ये दोनों वैक्सीनें राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं और  इनकी कीमत 1,500 से 4,000 रुपए तक हो सकती है. जानकार बताते हैं कि दवा कंपनियों द्वारा डॉक्टरों को बेची जाने वाली पैंटावेलेंट (पांच वैक्सीनों का मिश्रण) वैक्सीन पर डॉक्टर काफी मुनाफा कमाते हैं.
अभी सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम के तहत बच्चों को ट्राइवेलेंट (तीन वैक्सीनों का मिश्रण) वैक्सीन डीपीटी लगाया जाता है. डब्ल्यूएचओ इसकी जगह पैंटावेलेंट वैक्सीन, जिसमें हेपेटाइटिस बी और हिब बीमारियों से लड़ने की वैक्सीन शामिल हो, को राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करवाना चाहता है.

मुनाफे का गणित

भारत की जन स्वास्थ्य नीति में पैंटावेलेंट वैक्सीन को शामिल कराने के लिए डब्ल्यूएचओ ने दो तर्कों को आधार बनाया है – पहला यह कि भारत में हिब और हेपेटाइटिस बी बीमारियां व्यापक स्तर पर फैल चुकी हैं. दूसरा यह कि पैंटावेलेंट वैक्सीन दूसरे एशियाई देशों खास तौर पर श्रीलंका और भूटान में कारगर रही हैं और भारत भी इसी भौगोलिक क्षेत्र में आता है.

भारतीय विशेषज्ञों के मुताबिक हेपेटाइटिस बी और हिब बीमारियों का हौव्वा खड़ा करने के पीछे इन वैक्सीनों का निर्माण करने वाली ग्लैक्सो-स्मिथक्लाइन फार्मास्युटिकल्स जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हाथ है. विशेषज्ञ मानते हैं कि इस वैक्सीन के निर्माण और बिक्री में काफी मुनाफा है इसलिए कंपनियां डब्ल्यूएचओ के जरिए भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में बदलाव करवाना चाहती हैं.

भारत सरकार इस समय घरेलू कंपनियों से ट्राइवेलेंट वैक्सीन 15 रुपए की दर से खरीदती है. जबकि डब्लयूएचओ जिस पैंटावेलेंट वैक्सीन को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है उसकी कीमत 525 रुपए प्रति वैक्सीन होगी. इसके अलावा सुरक्षित भंडारण और आवाजाही की लागत मिलाकर कीमत ट्राइवेलेंट वैक्सीन से 35 गुना ज्यादा हो जाएगी. इसका मतलब है सरकार को सालाना 735 करोड़ रुपए विदेशी फर्मों को देने होंगे. बाद में महंगाई बढ़ने के साथ-साथ इनकी कीमत भी बढ़ती रहेगी, जिसपर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा.

भारत में हेपेटाइटिस बी से हो रही मौतों का आंकड़ा दस हजार प्रति वर्ष बैठता है. भारत में हर साल अलग-अलग वजहों से होने वाली 2 करोड़ 50 लाख मौतों का यह बहुत ही छोटा हिस्सा है. इसके लिए टीकाकरण कार्यक्रम में हेपेटाइटिस बी वैक्सीन को शामिल नहीं किया जा सकता

अहम सवाल यह भी है कि अभी देश में तकरीबन एक करोड़ बच्चों का टीकाकरण नहीं हो पाता क्योंकि निजी क्लीनिक का खर्च उनकी पहुंच से काफी दूर है और सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम अभी तक उन इलाकों तक नहीं पहुंच पाया है. इस स्थिति में पैंटावेलेंट वैक्सीन को टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करना क्या सिर्फ खर्च बढ़ाना नहीं होगा? सामाजिक चिकित्सा के क्षेत्र में काम कर रहे और दिल्ली में कई अस्पतालों के सलाहकार डॉ संजीव सिंह इस मसले पर कहते हैं, ‘हम अभी उपलब्ध वैक्सीन का ही सही ढंग से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे. ऐसे में 35 गुना महंगे विकल्प के बारे में सोचने की क्या जरूरत है? भारत में हेपेटाइटिस बी और हिब के मुकाबले डिप्थीरिया, टिटनेस और कुकुर खांसी कहीं बड़ी चुनौतियां हैं?’

सिंह भारत में ट्राइवेलेंट वैक्सीन के असरदार  साबित न हो पाने के तर्क पर कहते हैं, ‘वैक्सीन को एक निश्चित तापमान पर रखना पड़ता है. यहां कंपनियों से वैक्सीन सरकार को मिलती है. फिर राज्य, जिला, गांव और आंगनवाड़ी के स्तर पर पहुंचती है. लेकिन हर स्तर पर कोल्ड स्टोरेज नहीं हैं. इसलिए ये वैक्सीन असरदार साबित नहीं होतीं. इसके अलावा देश में पर्याप्त डॉक्टर, नर्स और कार्यकर्ताओं की कमी है. जो हैं उनमें सभी प्रशिक्षित नहीं हैं. इस कमी पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.’

यदि सरकार पैंटावेलेंट वैक्सीन को अनुमति देती है तब ऐसी एजेंसी का होना जरूरी है जो भारत में इसकी लगातार सप्लाई कर सके. भारत में ट्राइवेलेंट वैक्सीन बनाने वाली घरेलू कंपनियों को यूपीए सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल बंद कर दिया था. हाल ही में विशेषज्ञों के दबाव में इन्हें दोबारा चालू किया गया है. लेकिन इन कंपनियों के पास पैंटावेलेंट वैक्सीन बनाने की विशेषज्ञता नहीं है. इस स्थिति में जब भारत को वैक्सीन सप्लाई करने की बात आएगी तो डब्ल्यूएचओ की सहायक या मित्र कंपनियों (जो ज्यादातर अमेरिका में स्थित हैं) को ये ठेके मिलेंगे. इनपर सरकार की कोई निगरानी या नियंत्रण
नहीं होगा.

‘कीमत’ जो चुकानी होगी भारत को

पैंटावेलेंट वैक्सीन पर भारी खर्च इस मसले से जुड़ी एक बड़ी चिंता है, लेकिन श्रीलंका और भूटान में इसके इस्तेमाल के बाद देखे गए दुष्प्रभावों ने जो चिंता जगाई है वह पहली चिंता से कहीं बड़ी है.

भूटान में अक्टूबर, 2009 में पैंटावेलेंट वैक्सीन को टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल किया गया था. लेकिन इसके दो महीने बाद ही भूटान के स्वास्थ्य मंत्रालय ने इससे जुड़े सभी केंद्रों और क्लीनिकों को एक सर्कुलर भेजा. इसमें कहा गया था कि कुछ दुष्प्रभावों के चलते पैंटावेलेंट वैक्सीन का इस्तेमाल रोक दिया जाए और टीकाकरण के बाद के सभी विपरीत प्रभावों (एईएफआई) की सूचना देते हुए उनकी जांच की जाए. भूटान में इसके बाद वैक्सीन पर प्रतिबंध लगा दिया गया जो आज भी जारी है. सरकार ने वहां फिर से ट्राइवेलेंट वैक्सीन वाला टीकाकरण शुरू कर दिया है.

दिल्ली स्थित दवा निर्माण कंपनी पेनेशिया बॉयोटेक ने भूटान को पैंटावेलेंट वैक्सीन की सप्लाई की थी. लेकिन टीकाकरण के बाद चार बच्चों की मौत का मामला सामने आने की वजह से वैक्सीन का स्टॉक वापस ले लिया गया. इस कंपनी को यूनिसेफ से 2012 तक के लिए 22.20 करोड़ डॉलर का ठेका मिला है. भूटान की  घटना के बाद भारत के दवा नियंत्रक महानिदेशक (डीजीसीआई) ने देश में बालरोग विशेषज्ञों को कहा है कि ईजीफाइव का सावधानी से इस्तेमाल किया जाए और दुष्प्रभाव सामने आने पर सूचना दी जाए.
पैंटावेलेंट वैक्सीन से जुड़े कुछ ऐसे ही मामले श्रीलंका में भी सामने आए थे. डब्ल्यूएचओ के कहने पर श्रीलंका सरकार ने जनवरी, 2008 में वैक्सीन लगाने की अनुमति दे दी थी, लेकिन तीन महीनों के दौरान ही पांच बच्चों की मौत और 20 मामलों में गंभीर दुष्प्रभाव सामने आने के बाद अप्रैल, 2008 में श्रीलंका ने इसका इस्तेमाल रोक दिया.

जब किसी वैक्सीन के दुष्प्रभावों की बात सामने आती है तो डब्ल्यूएचओ ऐसे मामलों की जांच करता है. जांच दस्तावेज के आधार पर वैक्सीन और दुष्प्रभाव के बीच संबंध को देखा जाता है. इस दस्तावेज में छह श्रेणियां होती हैं- निश्चित, अति संभावित, संभावित, न्यूनतम संभावित, गैरसंबंधित, और वर्गीकरण के योग्य नहीं (जहां जांच के लिए जरूरी सूचनाओं का अभाव है).
श्रीलंका में डब्ल्यूएचओ की एक विशेषज्ञ टीम जांच के लिए गई थी. लेकिन इस जांच दल ने मौतों और दुष्प्रभावों की सिर्फ चार श्रेणियों- निश्चित, न्यूनतम संभावित, गैरसंबंधित और वर्गीकरण के योग्य नहीं- के तहत जांच की. इस दस्तावेज में दो श्रेणियां- अति संभावित, संभावित हटा दी गई थीं. ऐसे में इन मामलों को आसानी से वैक्सीन के दुष्प्रभाव से अलग किया जा सकता था. इसके बाद जैसा कि स्वाभाविक था जांच दल ने अपनी रिपोर्ट में इन मामलों में से किसी के लिए वैक्सीन को जिम्मेदार नहीं माना. चिंताजनक बात यह है कि इस साल तीन अप्रैल को पैंटावेलेंट वैक्सीन को अनावश्यक बताते हुए दाखिल की गई एक जनहित याचिका पर जवाब देते हुए सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट को बताया कि यह वैक्सीन सुरक्षित है और उसने अपने दावे के समर्थन में श्रीलंका गए डब्ल्यूएचओ के इसी पैनल की रिपोर्ट पेश की.

इन श्रेणियों में बदलाव के मसले पर तहलका ने डब्ल्यूएचओ में वैक्सीन सुरक्षा से संबंधित समूह के प्रमुख पैट्रिक जुबेर से बात की तो उनका कहना था कि डब्ल्यूएचओ वैक्सीन दुष्प्रभाव को जांचने के लिए छह श्रेणियों वाली निर्देशिका जारी करता है. लेकिन जरूरी नहीं कि हर मामले में इन सभी श्रेणियों का इस्तेमाल किया जाए. वे बताते हैं कि फील्ड में अपने अनुभवों के आधार पर श्रीलंका गए पैनल के सदस्यों ने प्रस्ताव किया था कि श्रेणियों का सरलीकरण किया जाए. जुबेर यह भी तर्क देते हैं कि पैनल को अति संभावित और संभावित श्रेणी में रखे जा सकने वाली घटनाएं मिली ही नहीं.

लेकिन इस मामले से जुड़ा सबसे बड़ा पेंच यह है  कि श्रीलंका में हुई मौतों का कोई दूसरा स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया. ऐसे में इन मामलों पर सीधा यह कहना कि ये वैक्सीन से जुड़े नहीं है, तर्कसंगत नहीं है. गोलमाल जो किया जा रहा है. भारत में पैंटावेलेंट वैक्सीन के इस्तेमाल को शुरू करवाने के लिए यह जरूरी है कि यहां हेपेटाइटिस बी और हिब को इतना बड़ा खतरा बताया जाए जिससे वैक्सीन सरकारी टीकाकरण में शामिल कर ली जाए. यह काम बेहद खतरनाक तरीके से किया जा रहा है. साल 2000 में हेल्थ इकॉनॉमिक्स नाम के एक जर्नल में  अटलांटा (अमेरिका) के मार्क मिलर का आलेख छपा था. इसमें दावा किया गया था कि भारत में हर साल 2 लाख 25 हजार लोगों की मौत ‌लिवर कैंसर से होती है, जिसके लिए हेपेटाइटिस बी जिम्मेदार है. मिलर के निष्कर्ष से जुड़ी सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसमें ताइवान से मिले प्राथमिक आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया था. जबकि ताइवान में पाया जाने वाला हेपेटाइटिस बी वायरस भारत में पाए जाने वाले वायरस से अलग है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) भी इस बात की पुष्टि करती है कि भारत में हेपेटाइटिस से जुड़े सौ मामलों में से सिर्फ एक को लिवर कैंसर होने की संभावना होती है. इस हिसाब से भारत में हेपेटाइटिस बी से हो रही मौतों का आंकड़ा दस हजार प्रति वर्ष बैठता है. भारत में हर साल अलग-अलग वजहों से होने वाली 2 करोड़ 50 लाख मौतों का यह बहुत ही छोटा हिस्सा है. इसके लिए टीकाकरण कार्यक्रम में हेपेटाइटिस बी वैक्सीन को शामिल नहीं किया जा सकता.  दिल्ली के सेंट स्टीफन हॉस्पिटल के बाल रोग विशेषज्ञ जैकब पुलियेल मिलर के आंकड़ों को बकवास करार देते हैं. मिलर भी यह कहकर कि जिस मॉडल के आधार पर उन्होंने अपने आंकड़े दिए थे वह गुम हो गया है, अपनी बात को साबित करने में असफल रहे हैं. इस मामले से जुड़ी सबसे खतरनाक बात यह है कि डब्ल्यूएचओ मिलर के आलेख से मिलते-जुलते आंकड़ों के आधार पर ही भारत के टीकाकरण कार्यक्रम में हेपेटाइटिस बी वैक्सीन को शामिल कराना चाहता है.
हिब वैक्सीन के लिए डब्ल्यूएचओ साल 2006 में प्रकाशित हुई यूनिसेफ की रिपोर्ट को आधार बताता है. न्यूमोनिया: द फॉरगॉटन किलर ऑफ चिल्ड्रन नाम से प्रकाशित इस रिपोर्ट में दावा किया गया था कि भारत में हर साल पांच साल से कम आयु के 1,000 में से 14 बच्चे न्यूमोनिया के कारण मौत का शिकार होते हैं. जबकि आईसीएमआर का साल 2005 का अध्ययन बताता है कि भारत में न्यूमोनिया से संबंधित मृत्यु दर प्रति हजार मात्र 0.26 है. यह आंकड़ा हिब वैक्सीन को टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल कराने के लिए काफी छोटा है.

इस तरह से देखा जाए तो पैंटावेलेंट वैक्सीन के पक्ष में दिए गए सारे तर्क संदेह के दायरे में हैं. इसके अलावा  वैक्सीन प्रभावी है, यह भी अब तक साबित नहीं हो पाया है. कुछ ही दिनों में आईसीएमआर को पैंटावेलेंट वैक्सीन पर निर्णय लेना है. अब तक इस मसले पर तीन बैठकें आयोजित की जा चुकी हैं. देश को उम्मीद है कि चिकित्सा अनुसंधान की यह सबसे बड़ी संस्था मुनाफे के ऊपर जिंदगी को तरजीह देगी.