महान जर्मन कवि ब्रेख्त ने कोई आधी सदी से भी पहले के अपने समय के बारे में लिखा था, ‘मैं अंधेरे युग में जी रहा हूं.’ अगर आज की तारीख में कोई मुझसे पूछे, इस समय के बारे में, तो मैं कहूंगा, यह अंधेरे का नहीं, बल्कि अभूतपूर्व रोशनियों में अभूतपूर्व छल का समय है, झूठ का समय है, नक्कालों का समय है, और हमारे ठगे जाने का समय है. एक सेल्समैन जिस वाक्पटुता से, जिस आत्मविश्वास से अपनी चीजों की विशेषताएं बता रहा होता है मैं उसके बहुत सच लगते सरासर झूठ से कांपता रहता हूं. या मॉडल्स जिस खुशी और चहक से अपनी वस्तु का विज्ञापन कर रहे होते हैं, मुझे उसमें उतना ही कोई गहरा षड्यंत्र छिपा हुआ लगता है. दूसरे, चीजें आज इतनी ज्यादा हो गई हैं, और दिल-दिमाग में इस तरह काबिज कि हमें हमारे होश का पता नहीं होता. भाई लोगों ने आज यही नुस्खा अपना लिया है कि ग्राहक आया है तो उसे प्रेम से फटका लगाओ. उसके दुबारा आने की कोई गारंटी नहीं, जैसे अपने सामान की कोई गारंटी नहीं.
लड़के ने मेरे सामने ट्यूब में हवा भरी और धमेले के गंदले पानी में चेक किया. पंक्चर तो नहीं था, लेकिन ट्यूब का आधा भाग यों सूजा हुआ था जैसे फ्रैक्चर होने के बाद पैर सूज जाता है
मुझ बेचारे की यह भाव-दशा इसलिए है कि अभी ताजा-ताजा इस छल का शिकार हुआ हूं और अपने ठगे जाने की आशंकाएं कहीं से कम होती नहीं दिखतीं. पंद्रह दिन पहले की बात है, मुझे निजी काम से शहर के बाहर जाना पड़ा था. पत्नी साथ में थी. हम अपनी मोटरसाइकिल पर राष्ट्रीय राजमार्ग में थे फिर भी गाड़ी का पिछला पहिया पंक्चर हो गया. इधर शाम हो रही थी इसलिए जितनी जल्द गाड़ी का पंक्चर बन जाए उतना ही अच्छा था. कुछ ही आगे एक पंक्चर बनाने की दुकान थी. मेकेनिक ने मेरी मोटरसाइकिल का पिछला पहिया चेक किया तो बताया – नलकी उखड़ गई है. नया ट्यूब लगाना पड़ेगा. मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था. उस सांवले मेकेनिक ने अपनी दुकान में उपलब्ध ट्यूब दिखाया. ट्यूब का रैपर लाल रंग का अति चमकीला था.
देखते ही शक हुआ कि लोकल है. मैंने उससे दूसरे किसी और कंपनी की ट्यूब दिखाने के लिए कहा, तो उसने कहा कि उसके पास सिर्फ यही है. मुश्किल यह थी कि आस-पास कोई दुकान भी नहीं थी ऑटो-पार्ट्स की. कितने का? तो बताया डेढ़ सौ का.
फिट करने का बीस रुपया अलग. एक सौ सत्तर लगेगा. मैंने कहा लगा दो. मरता क्या नहीं करता! और भई, नहीं मामा से काना मामा अच्छा! तो मेकेनिक ने ट्यूब बदल दिया. उस दिन तो चल गया, मगर दूसरे ही दिन ट्यूब की असलियत सामने आ गई, और इस बार भी मैं बाहर ही फंसा. मैं जिस गांव के स्कूल में पढ़ाता हूं वह शहर से चौबीस किलोमीटर दूर है. मोटरसाइकिल से आना-जाना करता हूं. गाड़ी के उसी पहिए के पंक्चर हो जाने का पता स्कूल की छुट्टी होने के बाद ही चला. गांव में ले देकर रिपेरिंग और पंक्चर बनाने की एक ही दुकान है, सो भी गनीमत है कि है. गांव से बाहर मेन रोड पर. यह अच्छा था कि स्कूल के क्लर्क वर्मा जी मेरे साथ थे, अपनी खुद की बाइक में. खैर पंक्चर बनाने गाड़ी दुकान तक ले आए. दुकान के मिस्त्री – जो पंद्रह साल का एक लड़का था – ने पिछला ट्यूब चेक किया. बताया नलकी उखड़ गई है ये नहीं बन सकता. ट्यूब बदलना पड़ेगा. अब मेरी जो स्थिति हुई होगी, आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं. मन में गालियों का अंबार लग गया. मुश्किल यह कि भन्नाऊं तो भन्नाऊं किस पर? कर ही क्या सकता था सिवा सिर धुनने के! लड़के से पूछा, ट्यूब रखे हो? दिखाओ. लड़के ने दुकान के रैक से निकालकर एक चमकदार नीले रैपर वाला ट्यूब दिखाया. मैं इसमें भी निर्माता कंपनी का एड्रेस ढूंढ़ रहा था जो कहीं नहीं था. कीमत डेढ़ सौ रुपया. पूछा, क्यों किसी दूसरी कंपनी का नहीं है. वह बोला नहीं है, जो है बस यही है. मैं सोच में पड़ गया. लोकल ट्यूब लगाकर मैं कल फिर परेशान नहीं होना चाहता था. नया ट्यूब खरीदने के लिए पास के कस्बे तक जाना पड़ेगा, जो यहां से आठ किलोमीटर दूर है. चूंकि वर्मा जी साथ में थे, इसलिए तय किया कि अब किसी अच्छी कंपनी का ही ट्यूब लगवाया जाए जिससे ऐसी बेकार की परेशानियों से बचा जा सके. वर्मा जी के पीछे बैठकर कस्बे तक गया. वहां जो पहले ऑटो-पार्ट्स की दुकान मिली, उसके दुकानदार से किसी अच्छी कंपनी का ट्यूब दिखाने को कहा. उसने एक नामी कंपनी का ट्यूब दिखाया जिसके ब्रांड एम्बेसडर भारत के प्रसिद्ध क्रिकेटर्स हैं. मूल्य दो सौ बीस रुपया. मन में सोचा, सस्ता रोवे बार-बार, महंगा रोवे एक बार! मैंने रैपर में कंपनी का एड्रेस, ईमेल एड्रेस देखा, तब भी मुझे इसके ‘ओरिजनल’ होने पर संदेह हो रहा था. इधर दुकानदार मुझे आश्वस्त कर रहा था, ले जाइये सर, ओरिजनल आइटम है. रेपुटेड ब्रांड है, आपको कोई शिकायत नहीं मिलेगी. मैंने आधे मन से उसे खरीद लिया. गांव लौटे तो सांझ गहरा चुकी थी, और इस बीच लड़का अपने दूसरे ग्राहक की गाड़ी बनाने में व्यस्त हो गया था. उसके फ्री होते तक पौन घंटा इंतजार करना पड़ा. लड़का जब ट्यूब का रैपर खोल रहा था, मेरा जी धड़क रहा था, कहीं यह भी कुछ गड़बड़ मत निकले. लड़का कह रहा था कि इसे चेक करा के लाना था. कई बार डुप्लीकेट माल भर के बेचते हैं. किंतु मैंने यह होशियारी नहीं दिखाई थी. लड़के ने मेरे सामने ट्यूब में हवा भरी, और धमेले के गंदले पानी में चेक किया. ट्यूब में पंक्चर तो नहीं था, लेकिन ट्यूब का आधा भाग यों सूजा हुआ था जैसे फ्रैक्चर होने के बाद पैर सूज जाता है. गनीमत थी कि चेक करने पर उसमें कोई पंक्चर नहीं निकला. लेकिन ट्यूब डुप्लीकेट था. वर्मा जी मेरी किस्मत पर हंस रहे थे, और मैं भी. मैंने लड़के से कहा इसे ही लगा दे. क्योंकि अब फिर आठ किलोमीटर दूर जाकर दुकानदार से हुज्जतबाजी करने की हिम्मत मुझमें नहीं थी. फिर, वह कह सकता था कि आपको यहीं से चेक करा के ले जाना था, कि अब कुछ नहीं हो सकता. और दुकानवाले सामान वापस करने आए ग्राहक से किस रूखेपन और निष्ठुरता से पेश आते हैं मुझे इसका बहुत कड़वा अनुभव है. उनके लिए वह बिल्कुल फालतू आदमी होता है, बेफायदे का, उनका धंधा खराब करने वाला.
महंगी टोंटी ले जाओ तो चोर निकाल ले जाते हैं, और बिगड़ जाने पर अखरता भी है. चोरी का डर नहीं और बिगड़ जाए तो फिर नया लगवा लो, कोई गम नहीं
जो हो, मैं ठगा गया था. एक बार फिर.
इसीलिए मैं कह रहा हूं, यह अंधेरे का नहीं, अभूतपूर्व रोशनी में अभूतपूर्व छल का समय है!
इसीलिए, उस दिन जब शहर के मार्केट में एक हार्डवेयर की दुकान के सामने खड़ा था, तो उस चकाचौंध के बीच मेरे भीतर का विश्वास कांप रहा था, और मैं एक बार फिर ठगे जाने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर रहा था.
हुआ यह था कि पिछले कुछ महीने से घर में लगी नल की टोटियां एक-एक करके लीक करने लगी थीं, पहले एक, फिर दूसरा, फिर तीसरा.. जैसे सभी टोटियों ने मानो योजना बना रखी हो. टपकते टोटियों की संख्या की संख्या अब छह पहुंच गई थी. टपकते नल के नीचे प्लास्टिक की बाल्टियां और मग रखते-रखते पत्नी खासा हलकान हो चुकी थी और गुस्सा बहुत तेजी से मेरी तरफ बढ़ रहा था. इसे अब और टाले रखना संभव नहीं था. सो उस दिन छुट्टी की अर्जी देकर मैं इस समस्या को हल कर ही लेना चाहता था. मैं अभी उसी हार्डवेयर की दुकान के सामने खड़ा था जहां मुझे कोई साल भर पहले एक अच्छा मिस्त्री मिल गया था, जिसने एक-डेढ़ घंटे काम करने के बाद भी महज पचास रुपए ही लिए थे, अनाप-शनाप नहीं. मुझसे उसका नाम-पता खो चुका था जो मैंने कहीं नोट किया था. उम्मीद थी कि यहां वह या कोई दूसरा मिस्त्री मिल ही जाएगा.
दुकान के काउंटर पर चालीसेक बरस का एक युवक बैठा था – दुकान का मालिक. वह मुझे पहचान गया कि एक साल पहले कुछ सामान खरीदकर ले गया था, और बीच में उससे एक-दो मुलाकातें राह चलते हुई हैं. उस युवक का मुझे पहचान जाना अच्छा लगा था, क्योंकि देख रहा था, यह दुकानदार की निपट व्यावसायिक मुस्कान से दस गुनी ज्यादा अच्छी, विश्वसनीय, शांत और गंभीर मुस्कान है. एक होशियार दुकानदार को ग्राहक को देखते ही उसकी खरीदी हैसियत का अंदाजा तुरंत हो जाता है. मेरी हैसियत छोटे स्तर के ग्राहक की होने को जानने के बावजूद ‘आइये भइया’ मुस्कुराकर कहना मुझे अलग ही खुशी दे गया.
मैंने बताया, घर के नल की टोटियां बदलवानी हैं, आपके यहां कोई प्लम्बर होगा?
‘अरे अभी था भइया, दो मिनट पहले. देखता हूं उसको फोन लगाके कहां है. यहीं-कहीं होगा.’ और युवक ने तत्काल उसे फोन लगाया, पूछा कहां है, और कहां, आ जा तुरंत. फिर मुझसे कहा – यहीं चौक में है, दो मिनट में आ जाता है.
मैं, जो मिस्त्री के न होने और उसके दो मिनट पहले चले जाने पर कुछ निराश-सा हो चला था उसके आने की बात से खुश हुआ.
प्लास्टिक की टोटियां होंगी आपके यहां? मैंने दुकानदार से पूछा.
मुझे लग रहा था शायद नहीं हो, सस्ता आइटम है. या दुकानदार ही कह सकता था मत ले जाइये. क्योंकि इसमें दुकानदार को कोई खास फायदा नहीं था. पीतल या स्टील की टोटियां प्लास्टिक की तुलना में चार-पांच गुनी महंगी मिलती हैं. बार-बार खराब होने के कारण पत्नी ने प्लास्टिक की ही लाने को कहा था. इसमें हमारा नुकसान कम था.
युवक ने बताया कि है, और आजकल यही चल रहा है. महंगी टोंटी ले जाओ तो चोर निकाल ले जाते हैं, और बिगड़ जाने पर अखरता भी है. इसकी चोरी का कोई डर नहीं. और बिगड़ जाए तो फिर नया लगवा लो, कोई गम नहीं. बीस-पच्चीस रुपए में साल भर भी चल गया तो बहुत है!
उसने काउंटर पर तीन-चार प्रकार की टोटियां रख दीं.
ये तीस का.. ये पैंतीस.. ये पच्चीस.. और ये पंद्रह का..
तभी वह मिस्त्री आ गया. बगल में खड़ा हो गया. उसके चेहरे पर एक सहज मुस्कान है.. उसके व्यक्तित्व का हिस्सा.. शायद उसने मुझे पहचान लिया है.. यह वही मिस्त्री है जो साल पहले घर की टोटियां ठीक करने आया था. चेहरा-मोहरा एकदम साधारण.
मैंने इन टोटियों की बाबत उससे पूछा, ‘क्यों, ये ठीक रहता है?’ ..दरअसल मैं उसकी आश्वस्ति चाहता था, क्योंकि वह इस लाइन का जानकार है.
‘हां, अच्छा रहता है. अजकल तो यही चल रहा है. खर्चा भी कम बैठता है.’ उसने कहा.
दुकानदार ने कहा, ‘ये पैंतीस वाला ले जाओ भइया, अच्छा रहेगा.’
लेकिन मुझे पच्चीस वाला पसंद आ रहा था, उसकी बनावट अच्छी थी. मैंने मिस्त्री से फिर उसकी राय चाही, ‘ये वाला कैसा है? ठीक तो है न..?’
‘हां-हां, बिल्कुल ठीक है.’ उसने बताया, ‘इसमें वायसर नहीं होता. हाफ बस घुमाना पड़ता है. जल्दी खराब भी नहीं होता.’
मैंने दुकानदार से कहा, यही दे दो.
कितने दे दूं? उसने पूछा.
मैं यहां अटक गया. मैं ‘कनफर्म’ नहीं था कि कितने चाहिए.. चार.. या पांच.. या छह..? घर में फोन किया. पत्नी से पूछा, टोटियां कितनी खरीदनी हैं?
उसने कहा – छह. उसका स्वर एकदम साफ था – छह. कहीं कोई संशय नहीं – जैसे बरसों से उसे पता हो – छह. बहुत स्थिर और ठोस – छह. सुनकर मुझे बेइंतहा खुशी हुई.. कि वह घर को इतना ठीक-ठीक, और इस तरह जानती है जैसे कोई अपनी देह को जानता है. खुशी हुई कि दूसरी तरफ से फोन में बात कर रही स्त्री मेरी पत्नी है.
दुकान के बरामदे की चार सीढ़ियां उतर हम नीचे आ गए. मेरी बाइक के बाजू मिस्त्री की साइकिल खड़ी थी.
मिस्त्री ने मुझसे पूछा – ‘मुझे अपने संग ले जाओगे या.. मेरे पास सैकिल है..’
जाने कहां से मेरे भीतर उससे अच्छी आर्थिक स्थिति होने का बोध, उसको काम देने का स्वामी-बोध बहुत शातिरपने के साथ जाग गया. मैंने कहा, ‘तुमको साथ में ले जाऊंगा तो फालतू में मुझे तुमको छोड़ने फिर आना पड़ेगा. तुम घर तो देखे ही हो.’
अगर वह चाहता तो बिदक सकता था, कि घर भूल गया हूं, करके, और मुझे अपनी यह ठसक छोड़ झख मार के उसे साथ में ले जाना पड़ता.
मगर उसके भीतर ऐसा कुछ नहीं था. वह एकदम मान गया. उसे अपने काम से मतलब था. अपनी रोज से. उसी सरलता से उसने कहा, ‘हां, घर देखा हूं. आप गाड़ी में चलो, मैं सैकिल में आ रहा हूं..’
मेरे घर पहुंचने के पांच मिनट के भीतर वह आ गया. साइकिल उसने गेट के बाहर खड़ी की. कैरियर से अपने औजारों से भरी बोरी – ‘टूल बॉक्स’ – उतारी. और भीतर आ गया.उसके औजार एक साफ और नए बोरे में बहुत सलीके से बंधे थे, बहुत एहतियात से. वह उन्हें सावधानी से खोल रहा था, मुझसे बात करते-करते. मैं समझ रहा था सब नल चोरी हो गया करके. लीकेज है. अभी बदल देता हूं. दस मिनट का काम है. बोरे में तरह-तरह के औजार थे – प्लायर, पंच, पाना, हथौड़ी, छेनी, लोहे काटने की आरी, नल पाइप के टुकड़े, एलबो, सॉकेट.. वह प्लायर-पाना लेकर अपने काम में लग गया, और बात भी करता जाता था, कि दुकानवाला सामान खरीदने गया था तो मुझे भी संग ले गया था. दुकानवाला इस डिजाइन को पसंद नहीं कर रहा था, नहीं चलेगा सोच के, मैं बोला, रख लो चलेगा. और देखो, कई डब्बा बेच डाला होगा अब तक.
छत में उसने टंकी के पानी सप्लाई करने वाले वाल्व को चेक किया. बताया, वाल्व खराब हो गया है.
मैंने पूछा – ‘नया ले आऊं’?
उसने कहा, ‘रहने दो. नया लाओगे तो चार महीना में वो भी खराब हो जाएगा. बोर के पानी में नमक होता है, और नमक वाल्व के चूड़ी को जाम कर देता है. क्या मतलब बेकार में ढाई-तीन सौ खर्च करने का!’
उसने मुझे नया वाल्व खरीदने से रोक दिया.
मिस्त्री ने कहा, ‘कोई बात नहीं, मैं चालू नल में भी टोंटी बदल सकता हूं. पानी का लीकेज भी तुरंत चेक हो जाता है.’
वह टोटियां बदलने में लग गया. टोंटी में पाना सेट करके जो लगाता तो जाम से जाम टोंटी घूम जाती. नई टोंटी लगाने के पहले उसके नट पर जूट के छोटे-छोटे धागे लपेट देता ताकि टोंटी अच्छी तरह कस जाए. वह बता रहा था कि आजकल कंपनी वाले रबड़ का वायसर देते हैं. लेकिन बाद में वायसर दब जाता है और नल लीक करने लगता है. ये रस्सी ही असल काम करता है. जूट की ये रस्सियां वह अपने साथ रखता है. मैं देख रहा था, उसे अपने काम में कोई हड़बड़ी नहीं थी. न ही किसी किस्म की कोई चालाकी. वह मगन होके अपना काम कर रहा था.
बाथरूम के एक नल की टोंटी खोलते वक्त टोंटी खुलने की बजाए टूट गई. नट वाला हिस्सा पाइप में ही फंसा रह गया. उसने कहा, ‘देखा, नकली माल था. प्लास्टिक में क्रोम पालिश चढ़ा के स्टील बता के बेचते हैं मार्केट में. अब ग्राहक को क्या पता? देखा था तभी जान गया था. आजकल इस लाइन में बहुत धोखाधड़ी है. असली-नकली का पता नहीं चलता.’
इधर टोंटी से पानी बह रहा था. मिस्त्री ने उसी हाल में फंसी चूड़ी को छेनी से निकालने की कोशिश की. पर नहीं निकल सका. इस चक्कर में वह खासा भीग गया. प्यार से खिसियाके खुद ही से कहता है, ‘ये साला मुझको आज दुबारा नहलाएगा!’
मुझसे बोला – ‘अब टंकी खाली होने तक रुकना पड़ेगा. तभी खुलेगा.’
मैंने पूछा, ‘चूड़ी खोलने में अब तुमको दिक्कत होगी?’
मुस्कराकर बोला, ‘नहीं. नए आदमी के लिए दिक्कत होगी. हम लोग तो ऐसी हर बीमारी का इलाज जानते हैं. इसका जुगाड़ है न अपने पास. टंकी खाली होने दो, पांच मिनट में बना दूंगा’.. वह बिल्कुल चिंतामुक्त था, अपने साथ मुझे भी चिंतामुक्त करते हुए..
पत्नी ने चाय बना दी थी. चाय पीते हुए हम बातें करने लगे.
मैंने उसे यों ही बताया, हमारे घर का नल फिटिंग रमन ने किया है. उसको जानते होगे..?
‘वो नयापारा वाला न..?’
मैं बोला, हां.
‘ठीक मिस्त्री है. वो ठेकेदारों के साथ काम करता है.’
‘तुम नहीं करते?’ मैं अब उस पैंतालिस-पचास के दुबले-पतले, बहुत साधारण आदमी को ध्यान से देख रहा था.
‘नहीं, मैं नहीं करता,’ कहने लगा, ‘मेरे को नई पोसाता. ठेकेदार पहले से अपना कमीशन मांगते हैं, वो भी ज्यादा-ज्यादा. जितने का कमीशन दो उतने की कमाई नहीं होती. और मकान मालिक से धोखाधड़ी अपने को नई जमता. इन ठेकेदारों के चक्कर में कमाई अलग फंस जाती है. ठेकेदार हम लोगों का पेमेंट टाइम पे कहां करते हैं? घुमाते रहते हैं आजकल-आजकल. ये हो गया, वो हो गया. कि पार्टी से पैसा नहीं मिला है बोलके. पर हमारा पैसा तो फंस गया न लेबर पेमेंट में. लेबर लोग का पेमेंट कितने दिन तक रोक के रखोगे? वो तो बेचारे रोज कमाने रोज खाने वाले! देख लो, दीवाली में एक ठेकेदार संग काम किया हूं, चार महीना से उप्पर हो गया, पर आज तक पेमेंट नहीं किया है. लाइन में खराब लोग घुस के धंधा बिगाड़ दिए हैं. इसलिए अपना रोज का काम अच्छा! सिन्हा के दुकान में चले जाओ, चिल्हर काम रोज मिल जाता है. तब अपने को कल की क्या चिंता? कौन लालच पाले?’
मैंने उसे बताया, इस कॉलोनी वाले अक्सर दिलीप को बुलाते हैं, पर उसका भाव बढ़ा हुआ है, वो छोटे-मोटे रिपेिरंग के काम में नहीं आता. मैं उसको दो-तीन बार फोन कर चुका हूं..
‘उसको जानता हूं,’ मिस्त्री बताने लगा. वो और हम साथ में थे. दोनों ने मेरे काका – सगे काका – के पास काम सीखा है. वो आज गाड़ी में घूम रहा है. मैं और काका अभी तक सैकिल में ही घूम रहे हैं. रमन सब दो नंबरी का काम करने लगा है. मेरे को तो वो शुरू से मामा मानता है. मैं तो उसको उसके मुंह पे कह देता हूं, अरे भांजा, तू मेरे से कम काम जानता है, फिर भी नल ठेकेदार बने गाड़ी में घूम रहा है! मैं जानता हूं बाबू, तू गाड़ी में कैसे घूम रहा है! वो गोयल के यहां से सामान खरीदवाता है. जो नल की टोंटी आप पच्चीस में लाए हो, उसका वो पचास-पचास का बिल बनवाता है. साला अपने से ये नहीं होता. ईमानदारी का नून-चटनी ही ठीेक है.’
मैंने कहा, ‘पर दुनिया तो इसी रास्ते से तरक्की कर रही है. तुम भी तो कमीशन ले सकते हो?’
‘अपन से हजम नहीं होता भइ!’ चाय का आखिरी घूंट भरकर कप उसने टी-टेबल में रखते हुए कहा, ‘जो सामान जितने का है उतने का ही बताओ. अब आप यकीन नहीं करोगे, मैं भैया की दुकान से एक-एक लाख का सामान खरीदवाया हूं, पर कोई कमीशन नहीं लिया. मैं खाली दो दुकान के लिए काम करता हूं. साल के साल दोनों दुकानवाले दीवाली में मेरे को पैंट-शर्ट्र देते हैं, मैं उसी में खुश हूं.’ वह अब मुस्करा रहा था, अपनी वही सरल मुस्कान.
मैं बहुत हैरानी से इस आदमी को देख रहा था. कैसा है ये मानुष? कमाई के सब रस्ते जानता है, पर अपनी ईमानदारी में ही खुश है! संतुष्ट है! अपनी साइकिल में ही! कल को लेकर कोई हाय-हाय नहीं. उसने बताया था, वह शक्ति नगर में रहता है. शक्ति नगर – शहर के मजदूरों, ठेलेवालों, रिक्शेवालों का मुहल्ला. इसी गंदी बस्ती में इसकी भी एक झोपड़ी होगी, किसी न किसी काम में खटती पत्नी होगी, किसी सरकारी स्कूल में आठवीं-नौवीं दज्रे में पढ़ते बच्चे.. सब कुछ एकदम साधारण.. बल्कि गरीब.. दूर-दूर तक किसी भी असाधारणता से मानो हमेशा-हमेशा के लिए वंचित. जबकि ठीक इसके सामने वह दुनिया है जहां लोग दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की में लगे हुए हैं, ऐशो-आराम का हर साधन जुटाते हुए.. कमाई का हर वैध-अवैध तरीका अपनाते हुए..
और यह अपनी ‘सैकिल’ में ही खुश है!
टंकी खाली हो चुकी थी. छेनी-हथौड़ी लेकर वह अपने काम में जुट गया. थोड़ी ही देर में उसने आखिरी टोंटी भी फिट कर दी.
..अब वह अपने औजार समेटकर बोरी बांध रहा है. उसी एहतियात से.
‘कितना देना होगा?’ मैं पूछ रहा हूं उससे. अपने ठगे जाने का भय मुझे दूर-दूर तक नहीं है, वह भी इस अभूतपूर्व रोशनियों के अभूतपूर्व छल के समय में!
कैलाश बनवासी का जन्म 10 मार्च, 1965 को दुर्ग में हुआ. तीन कहानी संग्रह लक्ष्य तथा अन्य कहानियां, बाजार में रामधन तथा पीले कागज की उजली इबारत प्रकाशित. कहानी कुकरा कथा को ‘कहानियां’ पत्रिका द्वारा 1987 का सर्वश्रेष्ठ कहानी पुरस्कार. श्याम व्यास पुरस्कार से सम्मानित