खरवांस उतर गया है और आज भोर से ही जीयनपुर के बगीचे में कोयल कूंकने लगी है.
ऐ दुनियावालों ! अगर तुम्हारे घर कोई कन्या है, कुंवारी है और सयानी हो चुकी है, हाई स्कूल पास या फेल है, चिट्ठी पत्री लिखना सीख गई है (भले प्राणनाथ प्राड़नाथ लिखते हुए उनकी कुसलता चाहती हो), अपनी सहेली के घर ज्यादा आने-जाने लगी है और उसके भाई के साथ एक-आध बार पकड़ी गई है और आपको अपनी नाक की चिंता होने लगी है तो घबड़ाइए नहीं, इधर आइए. बाबू जोखन सिंह तीन साल से आप जैसे ही देखुआर का इंतजार कर रहे हैं पर शर्त यह है कि वह सास-ससुर की इज्जत करना जानती हो, हलवा मोहन भोग बना लेती हो सिलाई-तंगाई में माहिर हो, पति लाख लुच्चई करे मगर वह सती हो, सावित्री हो.
जोखन सिंह ने इससे सबक सीखा. उन्होंने जाड़े में एक पेड़ कटवाया, उससे दो बेंचे और दो कुर्सियां बनवाईं और इनके साथ कचहरी से लौटते वक्त आधा दर्जन चम्मच भी ले लिए
जोखू ने अपने बड़े लड़के को शहर भेज कर पांच किलो आदमचीनी चावल मंगा लिया है, अरहर तो अपने यहां भी चार-पांच पसेरी हो जाती है लेकिन ठीक से पकती नहीं, इसलिए दो किलो अरहर की दाल भी आ गई है, कोआपरेटिव से आधा मन चीनी, मिट्टी का तेल, डेढ़ावल बाजार से दो बट्टी लाइफबाय, ब्राह्मी आंवला की शीशी, भुर्रा चाय, आधा किलो बताशे, शीशा-कंघी गरज कि आप के आवभगत का पूरा-पूरा इंतजाम है.
जाड़े में विकट अनुभव हुए थे जोखू को. उन्होंने माधो के साथ मिलकर पिछली गर्मी में ही भविष्य को ध्यान रखकर आधे दर्जन प्याले और तश्तरियां मंगवाई थीं और संयोग देखिए कि एक ही दिन दोनों जने के यहां देखुआर आ गए. जब जोखू ने अपने लड़के को दौड़ाया तो माधो नट गए. इनकी कितनी बेइज्जती हुई होगी इसकी कल्पना की जा सकती है. इसी खार पर उन्होंने शहर की देखा देखी स्टील के मग मंगवा लिए हैं. न टूटने का डर, न फूटने का! माधो से बोलचाल जरूर बंद है लेकिन अब निश्चिंत हैं वे.
ऐसे ही परसाल जो देखुआर आए थे, उनमें कुछ सूट-बूट वाले लौंडे भी थे. खटिया पर बैठते ही नहीं बनता था उनसे और उनमें से एक जो बदमाश और फंटूश जैसा लगता था, खाने के वक्त चम्मच मांग बैठा. परसनेवाले अनसुनी कर रहे हैं लेकिन बात वह समझ नहीं रहा है या समझ कर भी जोखू की इज्जत उतारने पर उतारू था और वह कोई और भी नहीं था, लड़की का भाई था- खास भाई.
जोखन सिंह ने इससे सबक सीखा. उन्होंने जाड़े में एक पेड़ कटवाया, उससे दो बेंचे और दो कुर्सियां बनवाईं और इनके साथ कचहरी से लौटते वक्त आधा दर्जन चम्मच भी ले लिए. अब कोई चाय में ऊपर से चीनी भी मांगे तो कोई बात नहीं.
एक और काम किया है इस खरवांस में उन्होंने. जब पप्पू दर्जा नौ में पहुंचा था और पहली बार देखुआर आए थे तब नातजुर्बेकारी में एक गड़बड़ी हो गई थी उनसे. चीनी तो थी लेकिन उसमें डालने के लिए कुछ न था- न दूध न दही. ये थे जरूर मगर सीते के घर और उनसे मुकदमेबाजी थी. एक की इज्जत पूरे गांव भर की इज्जत हुआ करती है. इज्जत के लिए ये झुके लेकिन सीता की मेहर ने सारा दोष बिल्ली के सिर मढ़ दिया. तब से जोखू हर खरवांस में जरूरते नागहानी माधो की देखा देखी अपने यहां भी ‘रूह आफ़ज़ा’ की बोतल रखते हैं.
माधो ने कच्चे मकान के रहते पक्का बनवाने के लिए ईंटो का भट्टा लगवाया तो उनके पोते की कीमत दुगनी तिगुनी हो गई. जोखू ने इसके बाद ही अपने दुआर के आगे दो ट्रक बालू गिरवा लिए और पांच ट्रक ईंटे. हालांकि मकान तो तभी बनेगा, जब सौहर होगा लेकिन इसके फायदे सामने आने लगे हैं. अब कोई यह नहीं पूछता कि आप जो इतना मांग रहे हैं, ठीक है देंगे लेकिन बताइए यह कि लड़की आएगी तो कहां रहेगी? इस खोबार में? अब तो खुद जोखू ही उलट के सवाल पूछते हैं कि लड़की आएगी तो रहेगी कहां? ईंट और बालू से क्या होगा? सीमेंट, लोहे-लक्कड़, हेन तेन सारा कुछ तो पड़ा है करने को. और किसी तरह से ढांचा खड़ा भी हो गया तो सोफासेट, बाजा, मोटरसैकिल के बेगार कैसा लगेगा?
जोखू, माधो की तरह लनतरानियां नहीं हांकते- सिवान दिखाकर देखुआरों से यह नहीं कहते कि ‘यह सब आप ही का है!’ खुद तो घास करें या गोबर फेंके और जब मेहमान आएं तो नहलाने के लिए कहार बुलवा लें, भट्टी पर से खोया मंगवा लें, बीड़ी के लालच में दो-चार बैठकबाजों को बुलवा लें, कोयर-कांटा और झाड़ू-बुहारू के लिए एक दो लौंडो को लगा दें… जोखू यह सब नहीं करते. किराए पर ट्रैक्टर मंगवाते हैं और जुताई-बुआई-दंवाई-ओसाई करवा के मस्त रहते हैं. वे इसलिए भी नहीं करते कि उन्हें अपने पप्पू पर- उसके रंग, रूप और गुण पर भरोसा है.
आप या जो भी वरदेखुआ सादी ब्याह के लिए जाएगा, वह जमीन-जायदाद से तो ब्याह करेगा नहीं, करेगा लड़के से और अगर वही खोटा है तो दुनिया भर का टीमटाम किस काम का? इसमें शक नहीं कि जगह-जमीन के कारण देखुआर माधो के यहां अधिक जाते हैं लेकिन जोखू के लिए तकलीफ नहीं खुशी का कारण है- कि एक दिन ससुर इसी तरह खिलाते-खिलाते उजड़ जाएंगे और तब मिलेगा क्या? घंटा !
तो इस मसले को लेकर माधो और जोखू में जितनी ही लाग-डांट है, पप्पू और मुन्ना में उतनी ही छनती है. पप्पू- जिनका रजिस्टर का नाम गणपत सिंह है- अपने टोले के मेधावी विद्यार्थी हैं. मेधावी इसलिए कि उन्होंने अपने लंगोटिया यार मुन्नाजी को पीछे छोड़ दिया और खुद इंटर में आ गए. ये दोनों मित्र तीन साल से हाई स्कूल में थे और हर साल परीक्षा के समय इनके लिए गांव और संगी साथी दो महीने पहले से युद्धस्तर पर तैयारी करते थे. जामवंत यादव- जो अहिरान के थे और फौज से रिटायर कर गए थे- बंदूक के साथ विद्यालय के बगीचे में बिठाए जाते, कुछ दूसरे नौजवान छूरे-तमंचों के साथ बस स्टेशन के पास रहते जहां से गार्डी करने वाले अध्यापक चलते और मुन्ना का कोई एक दोस्त- जिसके पास मोटर साइकिल थी- अपने तीनों चेलों के साथ विद्यालय के पिछवाड़े खड़ा रहता. उनमें से एक पर्चा लाता, दूसरा किताबों और कुंजियों से उत्तर फाड़ता और तीसरे की जिम्मेदारी होती- झरोखे या गार्ड या पानी पिलाने वाले या पहरे पर तैनात सिपाही के हाथों कागज उन तक पहुंचाना.
इस रणनीति में कहीं कोई चूक नहीं हुई लेकिन किस्मत का खेल कि मुन्ना रह गए और तीसरे प्रयत्न में पप्पू सप्लीमेंटरी के रास्ते धूमधाम से उत्तीर्ण हो गए. इसका नतीजा यह निकला कि पप्पू का भाव वरदेखुओं के बाजार में मुन्ना के टक्कर में आ गया- हल-बैल न होने के बावजूद!
माधो ने तय किया है कि वे मुन्ना को तब तक पढ़ाएंगे जब तक उसका ब्याह नहीं हो जाता. अगर लड़का घर बैठ गया तो कौन झांकेगा? इधर जोखू बोलते थे दो लाख और एक फटफटिया, उधर माधो बोलते थे तीन लाख और एक मारुति. पप्पू के हाई स्कूल पास करने के बाद जोखू ने कहा- चार लाख तो बसंत पंचमी के दिन दुआर की नींव खुदवा कर माधो ने किया – पांच लाख. इन मांगों में गहने और खिचड़ी वाले वे सामान नहीं शामिल हैं जो अपने दुआर की इज्जत के मुताबिक आप लजाते-लजाते भी देंगे (यानी एक सुनने वाला बाजा, एक देखने वाला बायस्कोप, सोफा, पलंग आदि आदि), लेकिन कार के बिना दोनों में से किसी का काम न चलेगा. लोगों ने पूछा कि कार का करोगे क्या? तो दोनों का कहना था कि और कुछ नहीं तो धानापुर से मुगलसराय तक मुन्ना-पप्पू सवारी ढोएंगे. बिजनेस…
जोखू जानते हैं कि माधो और ब्याहों की तरह इसमें भी धोखा करेगा और चढ़ावे का गहना सोनार से भाड़े पर ले आएगा. और माधो की पॉलिटिक्स यह है कि लड़के का बाजार भाव इतना चढ़ा दिया जाय कि होड़ में जोखू का माल धरा का धरा रह जाय.
तो दुनियावालों, इस वक्त इन कश्यपगोत्रियों, दोनों सूर्यवंशी क्षत्रिय कुमारों की कीमत सात लाख और एक नैनो लगाई गई है. अगर आपकी लड़की बिचारी को किसी योग्य वर की जरूरत हो तो आइए, अपनी किस्मत आजमाइए.
गांव घर का मामला है, किसी एक की ओर से बोलना दूसरे से झगड़ा मोल लेना है. यों लड़के आप-आप को दोनों ही लाखों में एक हैं. दोनो इस समय सहर बनारस में कोचिंग कर रहे हैं. काहे की? यह मत पूछिए. जब उन्हें ही नहीं पता तो हम क्या बताएं? बस आ जाइए ! दूसरे आएं इससे पहले. बाजार के हिसाब से ये चीपो के चीपो और बेस्टो के बेस्टो पड़ेंगे आप के लिए.
काशीनाथ सिंह पांच दशकों से हिंदी साहित्य जगत में सक्रिय हैं. अपने लेखन के जरिए उन्होंने पाठकों की एक नई जमात तैयार की है. उनके बारे में कहा जाता है कि कथा-कहानी में आने वाली हर युवा पीढ़ी उन्हें अपना समकालीन और सहयात्री समझती रही है