एक
सुबह किसी फिल्म की तरह शुरू हुआ करती थी. हमें नहीं मालूम होता था लेकिन हमारे दिन की स्क्रिप्ट पहले से लिखी हुई होती थी.
सुबह उठते ही हम स्क्रिप्ट में अपना नाम ढूंढ़ते थे. क्यूंकि जिनका नाम नहीं होता था उन्हें खुद अपने दिन की कोई स्क्रिप्ट लिखनी होती थी. और हम सभी लिखने से कतराते थे. हमें किसी और की लिखी हुई स्क्रिप्ट की आदत थी.
मार्च’ 85 की खुशनुमा सर्दी के दिन मैंने देखा कि स्क्रिप्ट में मेरे नाम के साथ लिखा हुआ था – अमित. यह पहली बार हुआ था, पहली बार हमें मालूम था कि उस दिन स्क्रिप्ट में हमें कौन-सा नाम मिलने वाला था. आइन्दा हमें मालूम नहीं होता था कि हमें कौन-सा नाम मिलेगा, हमें कौन-सा पात्र बनाया जाएगा. एक बार मैं कोई संजय था, मुझे पूरे दिन मालूम नहीं था कि मेरा नाम क्या था. बिल्कुल अंत में, शाम को, जब मेरी पत्नी लौटती है, पूरे छह दिन गायब रहकर, तब मुझे नाम से पुकारती है. तभी मुझे यह मालूम होता है कि मेरी पत्नी छह दिन से गायब है. पूरे दिन संजय ऑफिस जाता है, वहां एक लड़की से अगले रविवार कहीं मिलने के लिए कहता है, अपने अफसर के बच्चों को स्कूल से घर छोड़ने जाता है, रास्तों में उनके जिद करने पर कार से नीचे उतरकर सड़क पर कुत्ता बनता है, भौंकता है और जब उनके िज़द करने पर उनकी टीचर को काटने को दौड़ता है, वे उसे कहीं छोड़कर सड़क के दूसरी ओर की गली से होकर पैदल ही अपने घर चले जाते हैं. उनके जाने के बाद वो दौड़कर कार में लौटता है, टीचर के पास कार ले जाकर पूछता है, ‘क्या मैं आपको छोड़ दूं?’
इस पूरे दिन में मुझे कोई उसके नाम से नहीं पुकारता, पूरे दिन मैं और वह नहीं सोच पाते कि उसकी पत्नी छह दिन से गायब है. मेरी पत्नी ने मुझे बताया कि वह मेरे पास ही सोती हुई छह दिन पहले कहीं गायब हो गई थी और छह दिन यह भूली रही कि वो मेरी पत्नी है. मैंने कहा – ‘मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ.’
दो
मैं उससे पहले सिर्फ एक अमित को जानता था. ‘क्या मैं वही अमित बनने वाला हूं.’
यह अमित माँ के पड़ोस में कलकत्ता में रहा करता था. माँ का बचपन कलकत्ता में बीता है. वे बताती हैं वो एक शर्मीला लड़का था, जो एक दिन बिना बताए अपने चाचा के पास रहने के लिए रूस चला गया था. चार-पांच साल पहले कलकत्ता के उसी कमरे में, जो उसके जाने के दिन से ही बंद था, उसकी लाश पाई गई थी. उसके चाचा ने बताया कि वो उसी तरह बिना बताए वहां से कलकत्ता चला आया था. बंद कमरे में वो या उसकी लाश कैसे आई सबने अपनी-अपनी तरह से सुलझा लिया. मेरी मां मानती है वो नहीं, उसकी लाश ही कमरे में लौटकर आयी थी.
मैं सोचता हूँ वो कहीं गया ही नहीं था, बरसों से उसी कमरे में बंद था.
अमित बनकर बाहर निकलने से पहले मैंने एक बार इन्ना से मिलने की कोशिश की. लेकिन वो अपने कमरे में नहीं थी. ‘उसे आज क्या बनाया होगा?’
मैं बहुत दिनों से चाहता था कि इन्ना और मैं एक ही स्क्रिप्ट में साथ हों.
तीन
मेरे बिस्तर के पास कुछ कपड़े पड़े थे. हमें हमेशा अपने कमरे में ही उस पात्र के कपड़े मिल जाया करते थे जो हमें बनना होता था.
मैंने बाहर देखा-मार्च की वैसी ही खुशनुमा सुबह जो हमेशा होती है – धूप हो या न हो. जब मैं अमित के कपड़े पहनकर बाहर आया – एक बूढ़ा आदमी बिल्डिंग के दरवाजे पर खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था. हमें दूसरे लोगों से मिल कर ही सही-सही मालूम होता था कि हमें क्या करना है.
उस बूढ़े आदमी के बाल बेतरतीब बिख़रे हुए थे – उसके कपड़ों पर मैल और धब्बों की तरह और मेरा हाथ पकड़कर मुझे पास की संकरी गली में ले गया. पहले कभी वो मेरे साथ किसी स्क्रिप्ट में नहीं रहा था. न जाने या लड़ने या कुछ पूछने का कोई मतलब नहीं था. उसने कोट के अंदर की जेब से एक पर्ची निकालकर मुझे दी और कहा – ‘इसमें मेरे गांव वाले घर का पता है, तुम इसी वक्त निकल लो और जब तक मैं तुमसे सम्पर्क ना करूं वहीं रहो. आखिर उन्होंने तुम्हारे बारे में फेसला कर लिया है. वे तुम्हें अब पकड़ लेंगे’.
इतना कहकर वो गली से बाहर निकल ही रहा था कि एक पुलिस इंस्पेक्टर ने उसे पकड़ लिया और फिर दो पुलिस वालों ने मुझे. यह कहने का कोई मतलब नहीं था कि मैंने कुछ नहीं किया है. अमित ने किया होगा.
चार
इंस्पेक्टर और दूसरे साथी भी पहले कभी मेरे साथ किसी स्क्रिप्ट में रहे थे. इंस्पेक्टर ने रजिस्टर में लिखने के लिए मेरा नाम बताया – अनंत. ये तो मेरा ही नाम है? मैंने कहा-‘लेकिन मैं अमित हूँ’. वो हंसने लगा. लेकिन कुछ भी लिखा नहीं गया.
एक कांस्टेबल ने कहा – ‘हर बार में झूठा, उल्टा-सीधा लिखते तो थे ही, अब नाम भी बदल लिया क्या?’ मैंने सोचा शायद यही स्क्रिप्ट हो.
मैंने कहा – ‘मैं अमित हूँ. और लिखने से तो मुझे यूं ही डर लगता है. आपको कोई गलतफ़हमी हुई है’.
इंस्पेक्टर फिर हंसने लगा. वही कांस्टेबल उस दिन का अखबार ले कर आया और बीच का पेज खोलकर मेरे सामने रखा – ‘तो ये फिर क्या है गुरूजी’?
मैंने देखा किनारे पेपर के किनारे मेरी एक छोटी सी तस्वीर थी. उसमें एक लेख था और नीचे लिखा था – अनंत भद्रवाल.
मैं लेख पढ़ नहीं सका. मुझे और बूढ़े आदमी को लॉकअप में बंद कर दिया गया था. मार्च लॉकअप में भी उतना ही खुशनुमा था. क्या स्क्रिप्ट है! मैंने सोचा. अब मुझे ये यकीन हो गया था कि मैं मां का पड़ोसी व कलकत्ता वाला अमित तो नहीं बना था.
पांच
बूढ़े ने कहा – ‘मैंने तुम्हें कितनी बार मना किया था ये सब करने-लिखने की कोई जरूरत नहीं.’
मुझे इतना समझ में आ गया था कि कुछ उल्टा-सीधा लिखने की वजह से अमित या अनंत को पकड़ लिया गया है. लॉकअप में, खुशनुमा मार्च के बावजूद, चुपचाप बैठे रहना मुझे अखरने लगा था. मैंने इंस्पेक्टर से कहा – और पता नहीं मेरा तर्क कितना कमजोर था – ‘लेकिन सिर्फ कुछ लिखने की वजह से आप मुझे बंद नहीं कर सकते?
‘लिखना वजह है. आरोप दूसरे हैं. आपने पैसों की हेराफेरी की है. और क्या आपको मालूम है, हमने आपको एक होटल में, आपके ऑफिस की स्टेनो के साथ पकड़ा है?’
उसने बिना मेरी ओर देखे कहा. फिर वही कांस्टेबल मेरे पास आया – ‘गुरु, छोकरी बहुत कमजोर निकली, उसने तो बयान भी दे दिया है’ क्या स्क्रिप्ट है! मैंने फिर सोचा.
छह
पूरे दिन हम लॉकअप में रहे. बूढ़ा आदमी मुझसे काफ़ी शिकायतें करने के बाद चुप हो गया था. मैं सोच रहा था – आगे स्क्रिप्ट को इस तरह होना चाहिए कि वे मुझे लॉकअप में ही रात को मार देते हैं और मैंने सोचा ये काम उसी मसखरे कांस्टेबल को करना चाहिए, और फिर मेरे कमरे में मेरी लाश रखकर कमरे को ताला लगा देते हैं. बंद कमरे में मैं या मेरी लाश कैसे आई, इसे फिर अपने-अपने तरीके से सुलझा लिया जाता है. अनंत या अमित की माँ मान लेती है कि कमरे में लाश ही आई थी, उसका बेटा नहीं. फिर आखिरी शॉट इन्ना के चेहरे पर. मैं सोच रहा था कि उसके चेहरे पर एकाध आंसू होता है. तभी मैंने सोचा इन्ना को भी इस स्क्रिप्ट में होना चाहिए – स्टेनो. ऐसा दृश्य हो कि वो मेरी लाश देखे और फिर बयान दे कि उसने कुछ नहीं देखा.
इन्ना के स्क्रिप्ट में आते ही मैंने स्क्रिप्ट की बजाय इन्ना के बारे में सोचना शुरू कर दिया. मुझे याद आया कि पिछली बार जब मैं उसके कमरे में आया था, उसने कहा था कि उसे उस दिन ‘इन्ना’ ही बनना पड़ा था. लेकिन पूरे दिन उसकी स्क्रिप्ट में मैं नहीं था. ‘क्यूंकि मुझे रात में होना था?’ मैंने मजाक किया था. और उसने उसे संकेत समझा था. उसने हैरतअंगेज फुर्ती से अपने कपड़े उतारे और मेरे पास बिस्तर में आ कर पूछा – ‘क्या तुम भी आज अनंत ही थे?’
लेकिन मैं अनंत, मार्च’८५ के एक खुशनुमा दिन पुलिस के लॉकअप में बन्द था.
सात
रात को नौ बजे एक फोन आया. वो इंस्पेक्टर पायजामे और बनियान में भागता हुआ, अपने क्वार्टर से आया जो वहीं पीछे बना हुआ था. उसने हमें छोड़ दिया और कहा – ‘मैं सुबह से ही सोच रहा था कि तुम इतने निहत्थे नहीं हो सकते. फिलहाल तो छुट्टी ही समझो.’
हम बाहर आ गए. बूढ़े आदमी ने कहा – ‘मैं तो गांव जा रहा हूँ इसी वक्त.’ और वह जल्दी से एक गली में घुस गया. मेरे पास उसका गांव का पता रह गया था. उसे खुद याद तो था ना! मुझे लग रहा था कि अब मैं अपने कमरे में लौट जाऊँगा और शायद मेरी आज की स्क्रिप्ट खत्म. मुझे अब स्क्रिप्ट बेकार लगने लगी थी और भूख लग रही थी.
आठ
मैं अपनी बिल्डिंग के पास ही ढाबे में खा रहा था. जहां मैं हमेशा खाया करता था. तभी वह बूढ़ा आदमी आया और मेरे सामने ही, टेबिल की दूसरी ओर बैठ गया. ऐसा लगा वो मुझे पहचानता ही नहीं.
‘मेरे साथ खा लीजिए.’
‘जी!!’
‘आप कमाल के एक्टर हैं, ये मैं जान चुका हूँ – अब छोड़िए भी’.
‘अजीब आदमी है.’ मैंने उसी की तरह कहा और हंसने लगा.
नौ
मैं लौटने में देरी कर रहा था. सिगरेट का पैकेट खरीदा और वहीं सड़क पर इधर-उधर टहलने लगा. मैं इन्ना के कमरे में सोना चाहता था. थोड़ी बहुत ना-नुकुर के बाद वो महीने में एक-दो बार मुझे ऐसा करने देती है. अपने कमरे की चाबी को नाली में फेंक दिया ताकि इन्ना से कह सकूं कि क्या उसे अच्छा लगेगा कि मैं उसके होते किसी और लड़के या लड़की के कमरे में सोऊँ?
‘ मेरा ये मजाक काफ़ी होगा ‘ मैंने सोचा.
मुझे सड़क काले लम्बे सांप जैसे लग रही थी. जब मैं चीजों को अपने मनचाहे बेतुके ढंग से देख सकता था. अमित बने रहते हुए ये मुमकिन नहीं था.
मुझे बिल्डिंग वो अजीब बूढ़ा नजर आ रही थी जो मुझे कभी कह सकता हो कि वो मुझे पहचानता नहीं. जब मैं बिल्डिंग यानी उस अजीब बूढ़े की ओर बढ़ रहा था तो मेरे ठीक पास वाले कमरे में रहने वाला लड़का मेरे पास आया.
‘हाय अमित!’, उसने कहा.
क्या मेरी स्क्रिप्ट अभी खत्म नहीं हुई?
वो मेरे पास आया, मुझसे हाथ मिलाया और फिर इधर-उधर देखकर, मेरे कानों में कुछ कहने लगा. जैसे कोई हमें देख रहा हो, वैसे छुपाकर.
मैं तो दिन भर बेकार था. आज मेरा काम इतना ही है. तुम तो आज की स्क्रिप्ट में दिनभर इन्ना के साथ थे. साले बहुत मज़े किये होंगे.’
तो क्या मुझे आज इन्ना के साथ होना था?
दस
‘क्या दिन काफी नहीं था? इन्ना ने मेरे चाबी गुम हो जाने वाले मज़ाक के जवाब में कहा.
‘मैं सुबह लेट उठी थी. मुझे मालूम नहीं था कि आज हम साथ होने वाले थे. मैंने सोचा आज मेरा नाम ही नहीं है. खुद अपनी स्क्रिप्ट कौन बनाए. जैसे ही बाहर निकली तुम मिल गए’
तो फिर मैं लॉकअप में क्या कर रहा था? अखबार में मेरा फोटो भी तो था. मैंने खुद को गौर से देखा – शर्ट के अन्दर झांककर.
‘तो मैं दिन में भी, और अब रात में भी हूँ?’
मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. बचने के लिए मैंने संकेत का इस्तेमाल किया.
‘नहीं’. इन्ना ने कहा और अपने कुर्ते को खोल दिया. फिर कहा – ये देखिये. आपने इतनी जोर से काटा कि मुझे ड्रेसिंग करनी पड़ी.
उसकी छाती पर बाँयी ओर रुई और टेप से एक जगह ड्रेसिंग की हुई थी. मैं उठकर उसके पास गया और रुई को उतार कर देखा. दांतों के दो गहरे निशान थे.
‘ये स्क्रिप्ट नहीं है. यहाँ ऐसी सच्ची वाली एक्टिंग दुबारा मत कीजिएगा.’
मुझे एक क्षण के लिए अपने मनचाहे बेतुके ढंग से सोचने का मौका मिला था. मैंने सोचा कि मैं पूरे दिन इन्ना के ही साथ था.
गिरिराज किराड़ू का जन्म 1975 के किसी महीने में बीकानेर में हुआ. पहली प्रकाशित कविता के लिए ही प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार मिला. उर्दू, मराठी, स्पेनिश, कातलान और अंग्रेजी में कविताएं अनूदित. आलोचना और कहानी भी लिखते हैं. हिंदी-अंग्रेजी में छपने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतिलिपि’ के संपादक हैं