बंदरों के वोट

      इधर सारा मीडिया नेताओं की कांव-कांव में बिजी रहा। बंदरों की खौं-खौं पर किसी का ध्यान नहीं गया। उत्तराखंड वालों ने कह दिया कि दिल्ली के बंदर नहीं लेंगे। दिल्ली वाले अपने बंदर अपने ही पास रखें। दिल्ली वाले अब तक करते यह रहे हैं कि आवारा टाइप बंदरों को दूसरे राज्यों में छुड़वाते रहते हैं। दिल्ली सलेक्टिव है। हरियाणा, पंजाब का पानी रख लेती है, पर बंदर आगे छोड़ देती है। 

      पर सवाल यह भी है कि इंडिया भर के छंटे छंटाये नेताओं को दिल्ली मंजूर करती है, इसके बदले दिल्ली के बाहर वाले क्या इसके बंदर नहीं मंजूर कर सकते क्या। 

      बंदर नेता एक्सचेंज आफऱ चलाने का हक तो दिल्ली का बनता है कि नहीं। सवाल सीरियस है।

      इसलिए एक ऐसे एक्सपर्ट से बात की, जो नेताओं और बंदरों को करीब से समझता है। इस एक्सपर्ट ने संसद के बाहर कूदने वाले बंदरों पर स्पेशल रिसर्च की है। बातचीत यूं है-

      सवाल-दिल्ली के बंदरों पर तरह तरह के सवाल उठ रहे हैं।

      बंदर नेता एक्सपर्ट उर्फ बंनेएक्स-बेहतर है कि सवाल बंदरों पर ही उठें, नेताओं पर सवाल उठते हैं, डेंजर हो जाता है। बंदर पर हद से हद यह आरोप लग सकता है कि खौं खौं करता है, कुछ केले वगैरह उठाकर भाग जाता है। नेता सिर्फ इतने से संतुष्ट नहीं होता। वह पेट्रोल पंप से लेकर ना जाने क्या क्या उठाकर भाग जाता है, और सिर्फ अपने लिये नहीं, पूरी फेमिली के लिए।  कोई बंदर कोलतार खरीद में कट नहीं मारता। मेरी राय में बंदरों के मुकाबले नेता ज्यादा परेशान करते हैं। 

      सवाल-उत्तराखंड वाले कह रहे हैं कि दिल्ली के बंदर नहीं चाहिए। उनके अपने काफी हैं। 

      जवाब-देखिये, एक हिसाब से देखें तो इस बात में भी दम ही है।  उत्तराखंड वाले उत्तराखंड वालों पर खौंखियायें, उनका माल खायें। दिल्ली वाले दिल्ली वालों का माल खायें। मतलब सब अपने अपनों को  झेलें। 

      सवाल-यह बात आप बंदरों के बारे में कह रहे हैं या ….। 

      जवाब-यह सवाल अकसर उठता रहता है कि दिल्ली वाले बहुत परेशान करते हैं। लोकल स्थितियों से वाकिफ नहीं होते, पर ऊपर से आकर रौब गांठते हैं। कहते हैं कि हाईकमान ने भेजा है। 

      सवाल-मैं साफ तौर पर पूछना चाह रहा हूं कि यह बात आप बंदरों के बारे में कह रहे हैं या नेताओं के बारे में। 

      जवाब-देखिये, मैं दोनों का एक्सपर्ट हूं, हो सकता है कि जो बात नेताओँ के बारे में समझ रहे हों, वह बंदरों के बारे में हो। आप दोनों को मिलाकर ही समझिये। मसला यह है कि दिल्ली वाले दिल्ली का नाम लेकर डराते हैं। काम वाम उन्हे कुछ करना नहीं होता। 

      सवाल-पर आप काम की उम्मीद उनसे कर कैसे सकते हैं। 

      जवाब-हां आप ठीक कह रहे हैं कि काम की उम्मीद उनसे नहीं की जानी चाहिए। यह बात मैं बंदरों के बारे में भी कह रहा हूं और नेताओँ के बारे में भी। बंदर काम पर उतर आयें, तो बवाल हो जाता है। सर्कस के एक बंदर से सिगरेट पीने का काम कराया जाता था। फिर वो इतनी सिगरेट की डिमांड करने लगा कि आफत हो गयी। सिगरेट ना देने पर वह खाऊं खाऊं करने लगा, काटने लगा। बंदरों से काम कराया जाये, तो वो खौं खौं से खाऊं खाऊं पर  आ जाते हैं । इसलिए उनसे काम नहीं कराना चाहिए। काम करता बंदर डेंजरस होता है। वैसे यही बात नेता के बारे भी कही जा सकती है। नेता किसी प्रोजेक्ट में एक्टिव हो, तो समझ लो कि विकट घोटाला होने वाला है। 

      सवाल-देखिये आप बंदरों को नेताओँ की बात मिक्स दिये जा रहे हैं। मेरा सवाल यह था कि दिल्ली के बाहर के राज्य दिल्ली के बंदरों को स्वीकार करने से इनकार कर रहे हैं।  हां दिल्ली से गये नेताओं को तो वो मंजूर कर ही लेते हैं। 

      जवाब-देखिये, प्राबलम का एक सोल्यूशन यह भी हो सकता है कि बंदरों को वोटिंग राइट दे दिये जायें। बंदरों के वोट होते ही तमाम पालिटिकल पार्टियां उन्हे दिल्ली से बाहर भेजने पर प्रतिबंध लगवा देंगी। हमारे बंदर हमारे वोट। बल्कि जिस तरह से वोटों को लेकर मारामारी संसद में होने वाली है, उसे देखते हुए कुछ बंदरों को इस वोटिंग में वोट डालने का अधिकार दे दिया जाये। 

      सवाल-पर यह तो बहुत अपमानजनक बात हो जायेगी ।

      जवाब-जी मैं बिलकुल सहमत हूं ऐसे ऐसे नेताओं को वोट देना पड़ेगा, बंदरों के लिए बहुत अपमान की बात हो जायेगी।

      मैं भी यही सोच रहा हूं कि वाकई बंदरों के लिए अपमान की बात हो जायेगी।

आलोक पुराणिक

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