रेडियो

 उन्हें चिप्स खाने का बहुत शौक था और कोल्हू से निकलते गर्म गर्म गुड़ का. उनके शौक ज़्यादा महंगे नहीं थे, मगर पैंतीस की उम्र के बाद वे दोनों ही चीजें नहीं खा पाएज़िद और अनशन उसके लिए आम थे, लेकिन हमारे लिए नहीं. हमारे लिए सिर्फ आम ही आम थे या निरंतर उनकी चाह. वह हमारी माँ थी और वह हमारी छाती में चाक़ू घोंपकर हमें मार भी डालती तो भी हमें चाहिए था कि चूँ भी न करें. मगर अपने गुणसूत्रों में ही हम विद्रोही थे…हम सब- पापा, मैं और भाई. गुस्सा आने पर हम तीनों चिल्लाते थे, चीजें तोड़ते थे या रोने लगते थे. इसीलिए अनशन हमारे लिए इतिहास की किताबों की कोई चीज थी या कोई अखबारी शब्द.

जब मैंने यह कहानी लिखना शुरु किया, तब तक इसमें जावेद और शाहरुख़ ही थे. मैं शाहरुख़ की सारी िफ़ल्में बार बार देखा करती और उनमें जावेद को उसकी जगह रिप्लेस करके बहुत सारे सपने बुनती. जावेद रेडियो जॉकी था. मैंने अख़बार के फिल्मी गपशप वाले पन्ने पर पढ़ा था कि ‘मुन्नाभाई’ वाली फिल्मों के जो निर्देशक हैं..मुझे उनका नाम बिल्कुल भी याद नहीं आ रहा…देखिए मेरी इतनी अच्छी याददाश्त थी, वह कैसे पिछले दिनों में जाती रही है…चलिए छोड़िए, जो भी हैं, उन्होंने कहा था कि वे पहले शाहरुख़ को ही मुन्नाभाई बनाना चाहते थे. यदि ऐसा हो जाता तो ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में भी शाहरुख़ ही होता और तब मैं उसे जावेद से रिप्लेस करके सपना देखती और तब मैं उसकी हीरोइन की जगह होती और इसलिए रेडियो जॉकी होती.

मैं भी अपने जावेद के लिए चिल्ला चिल्लाकर इस तरह ‘गुड मॉर्निंग’ बोलना चाहती थी कि पूरा देश सुनता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. शाहरुख़ की पीठ में दर्द रहने लगा था और उसी गति से मेरी सब कहानियों और सपनों में माँ आती जा रही थी. वह बार बार मुझे डाँटती और परिवार की इज्जत का ख़याल रखने की नसीहत देती. कभी प्यार से अपने पास बुलाती और समझाती कि यह जो उम्र है, पन्द्रह-सोलह के आसपास की, इस उम्र में पागल हो जाने या घर से भाग जाने का बहुत मन करता है, इसलिए मैं ये जावेद जावेद के सपने न देखूँ और पढ़ाई में ध्यान लगाऊँ. वह चाहती थी कि मैं एम ए कर लूँ और पंचायती राज के किसी स्कूल में मास्टरनी बन जाऊँ. मास्टरनी बनना मेरे पूरे कस्बे को बच्चों के खेल जैसा लगता था. जो कुछ और नहीं बन पाता था, यही बन जाता था. मैं घंटों दीवार को देखते हुए इन उबाऊ सपनों पर रोया करती, जो शोर मचाते बच्चों और छुट्टी की घंटी के इंतज़ार से जुड़े होते थे. मैं अपने जावेद के पास चली जाना चाहती थी, लेकिन रेडियो पर वह अपना पता या फ़ोन नम्बर कभी नहीं बताता था.वह हमेशा हँसने के मूड में रहता था और मुझे लगता था कि उसके साथ रहना आसमान में रहने जैसा लगेगा. वह अपने शो में एक नम्बर तो देता था, मगर वहाँ का फ़ोन तो हमेशा बिज़ी जाता रहता था. मैंने उस रेडियो स्टेशन के पते पर उसके नाम से बहुत चिट्ठियाँ भी लिखी, मगर शायद वह व्यस्त रहा हो और इसलिए चाहकर भी जवाब न दे पाया हो. मुझे लगता था कि किसी दिन वह ख़ुद हमारे घर आएगा और मुझे अपनी गोद में उठाकर अपनी सब व्यस्तताओं के लिए माफ़ी मांगेगा. मैंने सोच रखा था कि पाँच सात मिनट तक नखरे करूँगी और फिर मान जाऊँगी.

मैंने माँ को कभी टीवी देखते या रेडियो सुनते नहीं देखा. हाँ, अक्सर रेडियो वाली अलमारी के पास से गुज़रते हुए उसकी आँखों में आ जाने वाली एक चमक कई बार देखी हैमाँ जब मेरी उम्र की थी तो उसे गाने सुनने का बहुत शौक था. वह सबसे छिपकर ट्रांजिस्टर पर कान लगाए रखती थी और अपनी पसन्द के गाने काग़ज़ पर लिखकर बाद में याद किया करती थी. वह चूल्हे के सामने बैठकर रोटियाँ बना रही होती तो वह छोटा सा ट्रांजिस्टर रबड़बैंड से उसके कान पर बँधा होता और ऊपर दुपट्टा ढका होता था. मेरे पिता एक किसान थे और मेरे नाना भी. वह एक छोटा सा दुनिया से कटा हुआ गाँव था और इसमें मेरे स्वर्गीय नाना का कोई दोष नहीं कि एक दिन जब वे सात आठ बार रोटी सेकती माँ को आवाज़ लगाते रहे और वह किशोर कुमार के ‘कोरा काग़ज़ था ये मन मेरा’ में खोकर अपने पिता की पुकार नहीं सुन पाई तो वे ग़ुस्से में माँ तक आए और माँ का चेहरा अपनी ओर फिराकर ज़ोर से थप्पड़ मारा. कान पर बँधा ट्रांजिस्टर दूर जा गिरा और उसके पुर्जे बाहर बिखर गए.

नानाजी ने कहा कि ‌फिल्मी गीत सुनना एक सभ्य और इज्जतदार परिवार की लड़की के लक्षण नहीं हैं और बाद में जब अपनी आँखों के सामने नानाजी ने माँ से उसकी गानों की कॉपी चूल्हे में फिंकवाई तो भी इसमें उनका उतना दोष नहीं है, जितना उनकी डायबिटीज का है, जिसके कारण वे बहुत ग़ुस्सा कर बैठते थे और बाद में शायद पछताते भी हों. उन्हें चिप्स खाने का बहुत शौक था और कोल्हू से निकलते गर्म गर्म गुड़ का. उनके शौक ज़्यादा महंगे नहीं थे, मगर पैंतीस की उम्र के बाद वे दोनों ही चीजें नहीं खा पाए. वे बार बार अपने बच्चों पर गुस्सा निकालते थे या नानी को बिना वज़ह मारने लगते थे. मगर जब आग में माँ ने गानों की कॉपी जलते देखी तो लोग बताते हैं कि उसकी आँखों का रंग स्थायी रूप से भूरा हो गया. पहले उसकी आँखें काली थीं. माँ इस बारे में कुछ नहीं कहती, मगर वह मुझे बार बार कहती है कि मैं पढ़ाई में ध्यान लगाऊँ और जावेद के ख़ुमार से बाहर निकलूँ. मगर मैं भी क्या करूँ? मुझ पर जावेद का नशा चढ़ता ही जा रहा है और मुझे उसके और शाहरुख़ के सिवा कुछ नहीं सूझता. जावेद का नहीं मगर कम से कम शाहरुख़ का नशा तो आपमें से कुछ लोग महसूस कर ही सकते होंगे. इसमें मेरा कोई कसूर नहीं, मगर माँ उदास रहने लगी थी. मुझे लगता था कि वह मेरे और जावेद के प्यार से चिढ़ती है. तब मेरा उससे बात करने का मन भी नहीं करता था और हमारे बीच का अबोला मेरे शरीर की तरह आश्चर्यजनक रूप से बढ़ता जाता था।

मैंने पहले भी आपको बताया कि माँ का जब और कोई हथियार नहीं चलता तो वह अनशन कर देती है. न ठीक से किसी से बात करती है और कई-कई दिन तक खाना भी नहीं खाती. इस बार भी उसने ऐसा ही किया. उसने पापा या भाई को इस बात की भनक भी नहीं लगने दी कि वह ऐसा क्यों कर रही है. यह सिर्फ मैं और वह ही जानते थे. पापा और भाई भी खाने के लिए एकाध बार उसे कहकर चुप हो गए और मैं भी अपने गुस्से में थी, इसलिए मैं माँ से बोली तक नहीं. अब यह भी कोई बात है भला? कोई माँ ऐसी कैसे हो सकती है कि अपनी बेटी की ख़ुशी न देख पाए? इसलिए मैं सोचती थी कि इस तरह वह अपने आप को सज़ा ही दे रही है.
मैंने माँ को कभी टीवी देखते या रेडियो सुनते नहीं देखा. हाँ, मैंने अक्सर रेडियो वाली अलमारी के पास से गुज़रते हुए उसकी आँखों में आ जाने वाली एक चमक कई बार देखी है, जो उसकी आँखों के रंग को फिर से काला कर देती थी. वह बस एक सेकंड के लिए रेडियो की तरफ देखती थी और फिर पलटकर चल देती थी.

पूरे चार वक़्त बीत चुके थे और माँ ने खाना नहीं खाया था. चार बजे जावेद का शो शुरु होता था और शाम के सात बजे तक चलता था. मैं हर दिन इंतज़ार करती थी कि वह मेरा नाम अपने शो में बोलेगा और शायद यह भी कह दे कि हाँ, वह भी मुझसे प्यार करता है.मैंने सोच रखा था कि उस दिन मैं मिश्रा वाली दुकान पर कम से कम पचास गोलगप्पे खाऊँगी. उस दोपहर भी मैं यही सोचते सोचते सो गई थी और जब मैं पौने चार बजे जगकर बाहर आँगन में गई तो…..रुकिए.क्या आप मेरी माँ को जानते हैं? वह औरत जो हर समय सिर पर पल्ला रखती है और बहुत दुखों में भी जिसे हमने कभी रोते नहीं देखा. वह, जो मुझे मास्टरनी बनाना चाहती है क्योंकि आठवीं से आगे उसके गाँव में स्कूल नहीं था, इसलिए वह पढ़ नहीं पाई और मास्टरनी नहीं बन पाई. वह औरत, जिसने ग़ुस्से में भी कभी हम पर हाथ नहीं उठाया, उल्टे सदा ख़ुद ही कमरा बन्द कर घंटों तक चुपचाप पड़ी रही. मीठी आवाज़ वाली वह औरत, जो लाख चाहकर भी किशोर कुमार के बाद के किसी गायक का नाम नहीं जान पाई और फिर धीरे धीरे वह चाहना भी भूल गई. वही औरत, मेरी माँ, आँगन के बीचोंबीच खड़ी हुई, आसमान की विनीत उपस्थिति में फूट फूटकर रोए जा रही थी और मेरा फिलिप्स का रेडियो टुकड़े टुकड़े हुआ उसके सामने पड़ा था.

गौरव सोलंकी की उम्र चौबीस साल है. बचपन संगरिया (राजस्थान) में बीता. आई.आई.टी. रुड़की से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक. कविताएं भी लिखते हैं. एक फिल्म के लिए गीत भी लिखे हैं. फिलहाल दिल्ली में रहते हैं