"देवा.. देवा"

बाबा ने उससे पलट कर नहीं पूछा साल के बीच में छुट्टियां कैसे लग गईं तेरी? बल्कि जवाब सुन न वे खुश हुए, न दुखी, घर के बाहर वाले बरांडे में बैठ, सिर झुकाए जमीन ताकते रहे

बुरा वक्त टोटकों की शक्ल में हमारे घर आया. आई को सोने में जड़ी मूंगे की अंगूठी पहनाना जरूरी माना गया. दिवाकर पंडित के चार साल तक पीछे पड़ने पर, आई ने अपनी शादी में मिले कान के फूलों को बेच कर अंगूठी बनवाई. उस दिन, मैं भी आई के साथ नागपुर गया था, उसके कान फूल बेचने और फिर एक हफ्ते बाद अंगूठी लेने. आई ने सुनार के हाथ में कान फूल देने से पहले, दुकान में टंगे शीशे में अपने को देखते हुए कानफूल अपने कानों से सटाए थे और तुरंत नकार में सिर हिलाते हुए उन कान फूलों को सुनार की हथेली में उलीच दिया था. आई को सुंदर लगने से ज्यादा बाबा की परवाह सता रही थी, क्योंकि उस दोपहर बस से गांव वापस लौटते वक्त, आई ने मेरे अधखाए केले में से एक टुकड़ा मांग कर खाया था और गहरी सांस भरकर बोली थी
‘‘अब इसी का भरोसा है बाबू, दिवाकर पंडित का मानें तो, मेरे अंगूठी पहनने से तेरे बाबा का कष्ट कुछ कम हो जाएगा."
‘‘क्या अंगूठी पहनने से कापुस (कपास) बढ़िया उगने लगेगा आई?"

मैंने आई से पूछा था क्योंकि गांव के सब जन आपस में बात करते थे, कि बाबा के सारे कष्ट कापुस ठीक से न उगने से पैदा हुए हैं, मतलब – सारी परेशानियों की जड़ में वही कापुस था, बाद में बाकी बातें बढ़ उससे जुड़ती चली गईं. बाकी बढ़ने वाली बातों में, बाबा को खांसी का न जाने वाले रोग का लगना था, मेरी प्यारी गाय ‘काली’ का दूसरे किसी गांव में बेचा जाना था, और दीदी (जो मुझसे छह साल बड़ी थी) का ग्यारहवीं की पढ़ाई को छोड़ घर पर लौट आना भी था. हमारे गांव में हाईस्कूल नहीं था इसीलिए दीदी चिंचोली में बुआ के घर रहकर पढ़ती थी, मगर उसकी पढ़ाई का खर्चा बाबा देते थे. दो साल से, जब से बाबा ज्यादा परेशान रहने लगे थे वो दीदी को पैसा नहीं भेज पा रहे थे. पता नहीं, दीदी को इसपे क्या सूझा कि वह एक दिन बुआ को यह बता ‘बाबा याद कर रहे हैं,’ चिंचोली से गांव तक आने वाली बस पकड़ घर लौट आई. हम सब आश्चर्य से भरे घर के बाहर चले आए जब हमें दीदी की पुकार सुनाई पड़ी,‘‘बाबा.. बाबा, आई.. प्रकाश.. प्रकाश!"

उस दिन हमारे घर में धैर्य और निश्चिंतता के विशाल पक्षी ने अपने पंख पसार दिए थे और दीदी और मैं उस पक्षी के पंखों पर चढ़ उड़ने लगे थे
आई ने दीदी का हाथ बहुत धीरे से पकड़ उसका बैग अपने हाथ में लेकर पूछा था,
‘‘कैसे, क्यों आ गई, अचानक?" दीदी ने बाबा को देखते हुए कहा था, बहुत लाड़ से (वह बाबा को और बाबा उसे बहुत लाड़ करते थे, इतना कि कई बार मैं जल उठता था)
‘‘बाबा, पढ़ाई खत्म है, छुट्टियां लग गईं." कितना अजीब था बाबा ने उससे पलट कर नहीं पूछा साल के बीच में छुट्टियां कैसे लग गई तेरी? बल्कि उसका जवाब सुन न वे खुश हुए, न दुखी, घर के बाहर वाले बरांडे में बैठ, सिर झुकाए जमीन ताकते रहे.
दीदी का यूं लौट आना बाबा या आई को अनहोनी नहीं लगा बल्कि दीदी का रोज वहां होना हम सब की जिंदगी में ऐसे समा गया, जैसे दीदी कभी हमें छोड़ यहां से चिंचोली गई ही नहीं थी.
‘प्रकाश मैं तो उसी दिन अाने वाली थी रे, जिस दिन मेरे कमरे की खिड़की पर रखा मुंह देखने वाला आईना, नीचे गिर कर टूट गया था. आईने के टूटते ही, मुझे सबसे पहले बाबा की याद आयी थी, और मैं समझ गई थी, अब मुझे लौटना ही होगा. वो तो मेरे कपड़े भीगे थे. उसी दिन मैंने उन्हें धो कर सूखने को डाला था, इसीलिए दो दिन की देरी हो गई."

आई की अंगूठी दीदी के घर लौट आने के बाद ही बनवाई गई थी और आई को ऐसा करने के लिए दीदी ने ही मजबूर किया था. दीदी ने ठीक ही किया था, क्योंकि नागपुर से लौटने के बाद अंगूठी पहनी आई कुछ निश्चिंत दिखती थी. बाबा की खांसी में आ रही लगातार कमी, भी उसकी निश्चिंतता बढ़ा रही थी, और बाबा का अब घर के बाहर वाले जामुन के पेड़ के नीचे बैठ, अपने बचपन के मित्रों से बात करना बड़ी अच्छी बात थी. मैं उनके आसपास ही मंडराता रहता था. वहीं मैंने उनके बचपन के मित्र दत्ता पाटिल, हीरामन शिंडे, ढोंढू सावंत को बारिश न होने की बातें, सरकारी मुआवजा और कर्ज की बातें और कापुस बेहतर उगाने की तकनीकों के बारे में भी बातें करते सुना था. अपने बचपन के मित्रों से इस तरह बात करने पर बाबा की हिम्मत कुछ बढ़ी हुई दिखलाई पड़ती थी, दीदी ने आई से इस बारे में एक दिन कहा भी था, ‘‘आई, दिवाकर पंडित का बताया उपाय तो कुछ रंग ला रहा है. बाबा का चेहरा तो देख, अब उतना काला भी नहीं लग रहा. है न?"
‘‘हां," आई ने उसी दबी हुई खुशी के साथ कहा था, जिसे देखने की हमें आदत पड़ती जा रही थी.

मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. अंगूठी मिलने के तुरंत बाद हमारे घर का पिछला हिस्सा जहां काली रहती थी एक दिन अचानक ही धसक गया. कोई आंधी तूफान भी नहीं आया था

जिस दिन बाबा के बचपन के मित्र सुबह-सुबह हमारे घर आए थे, बाबा को बुआ के घर वाले शहर चिंचोली ले जाने, उसी दिन दूधवाले से खरीदा गया आधा लीटर दूध, चूल्हे पर रखा रह गया था और उफन-उफन कर पूरा बिखर गया. मैं गाढ़ी नींद से उठ कर बैठ गया था, क्योंकि आई की पीड़ा भी तड़प वाली आवाज मेरे कान में पड़ी थी,
‘‘देवा.. देवा, अब क्या होने वाला है?" इतने में दीदी आई के पास दौड़ी आई थी और आई को डांटते हुए बोली थी,
‘‘आई, सुबह-सुबह कैसे बोल रही हो, अभी बाबा को जरूरी काम से बाहर जाना है और तुम? अरे दूध ही तो गिरा है, एक दिन प्रकाश को नहीं मिलेगा पीने को.. और क्या होगा? काली के जाने के बाद उसको तो दूध की वैसी आदत भी नहीं."

दीदी ने जान-बूझकर, यह बात रोज वाली अपनी आवाज से ज्यादा जोर की आवाज में कही थी, क्योंकि यह उसका मुझे इशारा करने का एक तरीका था, जिससे मैं उठते ही रोज की तरह दूध की मांग न कर बैठूं और आई को कम से कम ‘नहीं है’ या ‘नहीं दे सकती’ वाले अनेक दुखों में से, एक से बचा लूं. मैं दीदी की इस तरह वाली इशारे की भाषा को खूब समझने लगा था, क्योंेकि दीदी घर के कामों से फुर्सत पा अब मुझे पढ़ाने का काम भी करने लगी थी. पढ़ाने के दौरान मुझे वह कई तरह की बातें सिखाती जाती थी और उस वक्त उसका चेहरा अजीब सी चमक से भर उठता था. जब वह मेरी आंखों में आंखें डाल कहती थी,
‘‘प्रकाश, तुझे समझदार बनना है" तो, मैं उससे आंख नहीं मिला पाता था और कह उठता था, ‘‘जो तू बोलेगी, वही करूंगा."
उस वक्त मेरा जी करता था, मैं उसके पैरों में अपना सिर रखकर वसे ही रोने लगूं, जैसे आई मंदिर के देवा के चरणों में अपना सिर रखकर रोती थी और कहती जाती थी,
‘‘सब ठीक कर दे देवा, अब और कितनी परीक्षा लेगा?"

बाबा जब, अपने बचपन के मित्रों के साथ चिंचोली जाकर लौटे थे, वे उत्साह से भरे हुए थे. घर अाने से पहले उन्होंने चिंचोली के बाजार से हमारे लिए, नमकीन और मिठाई खरीदी थी. उसे हमारे बीच बांटते हुए वे अपनी खांसी के बावजूद चहक कर बोले थे,
‘‘धनंजय पाहिल – वही, तुम्हारी बुआ के रिश्ते वाले ने पचास हजार का वादा किया है. अभी दस हजार की मदद भी की है. अब बोलो तो खेत बचा भी कितना है अपना? उतने के लिए इतनी मदद भी बड़ी है. कम से कम बीज खरीदने की हिम्मत तो आई है, बाद में खाद का इंतजाम करेंगे अपना? अब अगले साल की तैयारी में लग जाना है. पिछला नुकसान सोच-सोचकर हड्डी नहीं गलानी है."
जब वह यह सब कह रहे थे तो आई ने उन्हें कुछ याद दिलाने के लिए टोकना चाहा था, ‘‘सरकारी..? तो उन्होंने आई की बात बीच में ही काट कर कहा था,
‘‘धनंजय पाटिल भरोसे का आदमी है, सभी मित्रों की यही राय है. एक राय है यह. सब यही कर रहे हैं, हम सब कापुस उगाएंगे.."
दीदी को न जाने क्यों उस क्षण बाबा पे बहुत सारा लाड़ उमड़ आया. वो बाबा की सिमट गई छाती में पुरानी चौड़ाई तलाश कर उनके गले लग गई और लगभग रूआंसी आवाज में बोली, ‘‘बाबा इन पैसों में से कुछ बचा कर एक बार खांसी की दवा करा लो,"
बाबा मुस्कुरा दिए थे और दीदी आई के कान के पास जाकर बोली थी,
‘‘देखा अंगूठी का कमाल, बाबा इतना बड़ा काम कर आए और तुम बिखर गए दूध की शंका लिए रोती थी."
उस दिन हमारे घर में धैर्य और निश्चिंतता के विशाल पक्षी ने अपने पंख पसार दिए थे और दीदी और मैं उस पक्षी के पंखों पर चढ़ उड़ने लगे थे.

मगर वह अंगूठी, जिसे आई और दीदी हमारे कठिन दिनों का रक्षा कवच मान रहे थे, एक दोपहर आई को अपने दाएं हाथ की चौथी ऊंगली में नजर नहीं आई. न जाने कब, किसी काम को करते हुए वह आई की ऊंगली से फिसल गई थी. हमें तो तब पता चला, जब हैरान सी दिखती आई, बाबा को खिला-पिला बाजार भेज, हमें भी भाखरी और चटनी परोस खुद खाने बैठी. दीदी और मैं उस वक्त नागपुर शहर की बातों में लगे हुए थे, कैसे हमें बड़े शहर पसंद नहीं, कैसे हमें इतनी खुली जगहों की आदत है, और कैसे हम बड़े शहर में जाने पर खो जाने जितने गंवार अभी भी बने हुए हैं. ‘‘ही.. ही.. ही, दीदी तू भी, अभी भी खो जाएगी, चिंचोली में रहने के बाद भी", ‘‘हां रे, दीदी हंसी थी चिंचोली कोई नागपुर थोड़े है?" तभी आई की धीमी सिसकियां हमें सुनाई पड़ीं और खाते-खाते रोने से भाखरी उसके गले में अटक गई. वह अब जोर-जोर से खांसने लगी थी,
‘‘अब क्या होगा? आहा.. अहाहा, अब मैं क्या करूं?"
‘‘क्या हुआ आई?" हम चौंक गए थे और उसे पानी पिलाने लगे थे.
‘‘अंगूठी खो गई रे.." आई बड़ी मुश्किल से अपनी बात कह पाई थी.
‘‘मैं कैसे इतनी लापरवाह हो गई?"

पता नहीं ज्यादा तोड़ देने वाली खबर क्या थी? आई की लापरवाही की सूचना या रक्षा कवच के खो जाने की दहशत? हम तुरंत चक्कीघिन्नी की तरह नाच-नाच, आई की अंगूठी ढूंढ़ने में लग गए थे, मगर हमें अंगूठी नहीं मिली थी. हम थक कर, अपनी हार से परास्त सो गए थे और उस रात जब बाबा, घर लौट कर आए थे तो उन्हें पता भी नहीं चल पाया था कि उनकी सुरक्षा के लिए किया गया सबसे महंगा उपाय अब आई के हाथ में नहीं था.

जल्द ही कापुस की बुआई के दिन आ गए और दीदी ने आई को सारी शंका दबा कर बाबा की हिम्मत बढ़ाने को कहा. गर्मियों के उन दिनों में दीदी और मैंने भी बाबा की खेत में खूब मदद की और बाद में भी वहां जा जाकर घंटों डेरा डाले कापुस के पौधों के बढ़ने का इंतजार करने लगे, जैसे हमारे वहां बैठने से कापुस के पौधे अपने समय से पहले ही बढ़ जाएंगे.
जब बारिश आने के दिन आए तो बाबा फिर उत्साहित हो खाद खरीदने का मन बनाते हुए चिंचोली गए. उस दिन जब दीदी और मैं, अपने बढ़ते पौधों को देखने खेत गए तो देखा, खेत की बांध पर किसी ने नींबू-मिर्च लाल कुंकुम लगा कर फेंक दिया था. दीदी ने मुझे उस फेंकी हुई चीज पर पैर रखने से मना कर दिया था और हम बिना खेत घूमे लौट जाते थे. उसके बाद दीदी मंदिर गई थी और खेत की बांध पर पड़ी बुरी चीज की बुरी शक्ति को खत्म करने की प्रार्थना करने लगी थी. उस दिन जब बाबा घर लौटे थे, तो उनकी हालत देख हम घबरा गए थे. उनकी आंखें लाल थीं, खांसी बढ़ी हुई थी और वे धीरे-धीरे चलते हुए अपनी चारपाई पर पड़ गए थे. हमारे बहुत पूछने पर उन्होंने बताया था,
‘‘चिंता की कोई बात नहीं, थकान ज्यादा हो गई है."
इसपे दीदी ने उन पर लाड़ से गुस्सा कर कहा था,
‘‘कहा था न, डाक्टर को दिखा दो."
‘‘दिखाया था" वो बड़ी मुश्किल से हांफते हुए बोले थे,
‘‘कह रहा है अब नागपुर दिखाओ."
इतना सुन दीदी और मेरे अंदर वही भाव आया था, जैसा तीन साल पहले, एक शाम बड़े लंबे पीले रंग के धामण सांप को अपनी चारपाई पर गुड़ी मुड़ी सोते देख आया था. बहुत गांव वाले हमारे यहां जमा हो गए थे और कहने लगे थे,
‘‘अरे ये तो देवा का आशीर्वाद हो गया, अब देखना कितने चटपट दिन सुधरते तुम्हारे,"
मगर उसी के बाद बाबा काली को दूसरे गांव बेच आए थे और काली के रहने वाली जगह एकदम खाली हो गई थी.
उस दिन सांप को इतने पास से देखने के बाद दीदी और मेरा खून हमारे भीतर ही जम गया था और दीदी बोली थी,
‘‘प्रकाश, जब बहुत डर लगता है, तो ऐसे ही खून जम जाता है. एकदम मर गए हों जैसा."

बाबा जिस दिन अपने बचपन के मित्र दत्ता पाटिल के साथ नागपुर जाने वाली बस में बैठे थे, ठीक उसी दिन दोपहर में दीदी, आई को बिना बताए गांव वाली अपनी सहेली से मिलने चल दी थी. और जब वह वापस आई तो उसका चेहरा चिंता से लाल हो रहा था. आई उसे देखते ही चिल्लाने लगी थी,
‘‘क्या? क्या हुआ?"
‘‘आई", दीदी आई को जमीन पर अपने पास बिठाते हुए बोली,
‘‘आई वो जाे नीले रंग की मेरी पंजाबी ड्रेस है न, उसका दुपट्टा सुबह से नहीं मिल रहा था. मुझे लगा, कहीं गलती से मेरी सहेली तो नहीं ले गई. मैं वही ढूंढ़ने उसके घर निकल गई थी. आई, मगर दुपट्टा उसके पास नहीं था. वो तो.. वो तो, उसके घर जाने वाले रास्ते पे जो सूखा कुआं पड़ता है न, जहां बरगद का पेड़ है, वहीं, वहीं आई वो पेड़ पर झूल रहा था. उसमें किसी ने बाजार में बिकनेवाली पानी की बोतल को टांग फंदा कस दिया है. ये कैसी बात हुई आई? मेरा दुपट्टा वहां कौन ले गया?"
‘‘इसका मतलब क्या हुआ आई?"
‘‘हैं… आई सिर पर हाथ रखे गिरने सी दिखी,
‘‘हे.. देवा.., अब ये किसने क्या कर दिया, अरे मेरी बेटी क्या देख कर आ रही है? अब क्या होगा?"

दीदी और आई को एक-दूसरे को समझाते हुए वहीं बैठा छोड़ मैं दीदी की बताई वाली जगह पर गया था, और मुझे वहां बरगद के पेड़ की एक डाल पर दीदी के दुपट्टे से झूलती वह बोतल नजर आई थी. बोतल को बहुत बार देखने पर मुझे बोतल के अंदर किसी आदमी का चेहरा दिखाई देने लगा था. मैं बहुत कांपने लगा था और तेजी से घर भाग आया था.
उस दिन देर रात, दत्ता पाटिल नागपुर से अकेले लौटे थे और हमें खबर दी थी,
‘‘तुम्हारे बाबा, कल आएंगे, डाक्टर ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कर लिया है, जांच वगैरह करना है."
जब अगले दिन भी बाबा नहीं लौटे तो दीदी मुझे ले दत्ता पाटिल के घर गई और उनसे बोली,
‘‘काका, अस्पताल का पता दो, हम बाबा को देखने जाएंगे."
‘‘ओहो," दत्ता पाटिल ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
‘‘कल तक रुक, कल तक वो नहीं आएगा, तो मैं तुम लोगों को लेकर जाऊंगा."

हमने और दो दिन इंतजार किया और जब बाबा फिर भी नहीं आए तो हम दत्ता पाटिल के साथ उनका हाल लेने नागपुर चल दिए. अस्पताल के मरीजों की सूची में बाबा का नाम दर्ज था. हम तीनों उनके वार्ड के पलंग तक पहुंचे, मगर वहां हमें बाबा दिखलाई नहीं पड़े. हमने आसपास के लोगों से पूछा, मगर हमें कोई नहीं बता पाया कि बाबा कहां थे. कोई यह भी नहीं बता पा रहा था कि बाबा पलंग पर पिछले चार दिनों से थे भी या नहीं. हमने उनका पहले-पहल दाखिला कर इलाज करने वाले डाक्टर से भी पूछा, मगर वह उतना ही बता पाया जितना हमें पता था. दिन भी अस्पताल में इंतजार करने के बाद, गांव जाने वाली, शाम की आखरी बस में जब हम बैठे तो मुझसे रहा नहीं गया. मैं दीदी के कंधे पर झुक फफक पड़ा था,
‘‘बाबा कहां गए दीदी?"

दीदी कुछ नहीं बोली थी, बस की खिड़की के बाहर न जाने क्या देखती रही थी. आंख गड़ाए हुए. बाबा को बहुत अच्छी तरह जानने वाले, बाबा के बचपन के मित्र दत्ता पाटिल ने उदास होकर कहा था,
‘‘दुख मत कर बेटा मैं उसे खूब समझता हूं लौट आएगा, कहां चला गया होगा. जो फिर भी नहीं लौटेगा तो हम आके दुबारा ढूंढेंगे."
फिर दो दिन, फिर दो दिन बाद, और फिर दो दिन बाद भी जब बाबा नहीं लौटे थे तो आई ने ही हमें धीरज रखने को कहा था और हमने नागपुर जाना छोड़ दिया था. गांववालों ने थाने में रिपोर्ट लिखवाने को कहा तो बाबा के बचपन के तीनों मित्रों ने थाने में रिपोर्ट लिखाई थी, हीरामन पाटिल, वल्द रामनाथ पाटिल, उम्र 45 वर्ष, गांव इच्छापुर, दिनांक 10 अगस्त 2005 से नागपुर जनरल अस्पताल से लापता. बाबा की एक फोटो भी बाबा के मित्र हमसे मांगकर ले गए थे, जो उन्होंने थाने में जमा करवा दी.
बाबा के लापता हो जाने के कुछ ही दिनों बाद दिवाकर पंडित के कहने पर आई को पहनाई गई मूंगा जड़ी सोने की खोई हुई अंगूठी मिल गई. आई के कपड़े के बक्से के पीछे से मैंने ही उसे ढूंढ़ा था. ढूंढ़ने तो मैं अपनी गोटियां गया था, मगर जब वहां पहुंचा तो देखा, बक्से के पीछे वही अंगूठी पड़ी चमक रही है.
‘‘आई.. आई.. देखो अंगूठी मिल गई, अब सब ठीक हो जाएगा, आई."
बाबा के जाने के इतने ही दिनों में आई के माथे पर कितने नए निशान बन गए थे. वह बहुत दुबली भी हो गई थी. वह जब चलती, उठती, बैठती थी तो उसकी हड्डियां चटाक की अवाज करती थीं. लगता था सब एक साथ टूट रही हैं. मेरी आवाज सुन आई उन्हीं टूटने वाली आवाजों के साथ मेरे पास आई और चिल्लाई जैसे मैं कहीं बहुत दूर हूं उससे,
‘‘कहां.. कहां?"

मैंने जब जीत से भर आई की हथेली में अंगूठी रखी तो पानी से भरी उसकी आंखों में पत्थर उछाले जाने जैसी खुशी कौंधी, मगर दीदी उसके पास आ, उसका कंधा थामे चुप बनी रहीे.
‘‘दीदी, अंगूठी.." मैं खुशी से चिल्ला रहा था, नाच रहा था, मगर दीदी तब भी चुपचाप रही.
बहुत दिनों बाद दीदी ने अंगूठी मिलने के बावजूद खुश नहीं होने का राज खोला था, ‘‘प्रकाश, मैं क्या खुश होती रे, दिवाकर पंडित ने तो बहुत पहले ही मुझे बता दिया था, ‘सोना खोना और पाना दोनों अच्छा नहीं होता है."
दीदी ने ठीक कहा था शायद क्योंकि आई ने सब-कुछ ठीक हो जाने की लालच में बिना दिवाकर पंडित से उपाय पूछे, हड़बड़ाकर अंगूठी मिलने के तुरंत बाद ही पहन ली थी और कहती गई थी,
‘‘देवा, अब सब ठीक कर दो."

मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. अंगूठी मिलने के तुरंत बाद हमारे घर का पिछला हिस्सा जहां काली रहती थी एक दिन अचानक ही धसक गया. कोई आंधी तूफान भी नहीं आया था उस दिन. खेत में कपास खड़ा-खड़ा सूख गया और उसकी डंठल सूखी टहनी जैसी कड़ी हो गई.‘‘बारिश कम आना इसकी वजह है", दत्ता पाटिल ने बताया था. हम क्या समझते इसकी वजह, हमने तो खेत को देखना ही छोड़ दिया था. इधर बुआ भी दो तीन बार धनंजय पाटिल का संदेशा पहुंचाने आई थी और रो-रोकर वापस लौटी थी,
‘‘देखो, इधर दादा (भाई) नहीं मिल रहा, उधर धनंजय पाटिल की दादागिरी".
इन सारी उलझाने वाली घटनाओं के बीच इन दिनों मैं एक सपना देखने लगा हूं. रोज तो नहीं, मगर कभी-कभी. मैं अपने सपने में देखता हूं कि बाबा मर गए हैं. उन्हें तरह-तरह से आंख बंद किए लेटा हुआ मैं देखता हूं. चार-पांच बार उसी सपने को देखने की बात, जब मैंने दीदी को बताई तो बड़े दिनों बाद वो थोड़ा खुश होकर बोली थी,
‘‘प्रकाश, ये तो बड़ा अच्छा है रे, बहुत बहुत अच्छा, मैंने एक बार नागपुर के बड़े अखबार के एक पन्ने पर पढ़ा था, जब हम सपने में किसी को मरा हुआ देखते हैं, तो उल्टा होता है. जानता है, जिसे हम मरा हुआ देखते हैं, असली में तो उसकी उम्र बढ़ जाती है."
बाबा आज तक लापता हैं.

वंदना राग समकालीन कथा-जगत का एक सुपरिचित नाम हैं. पहला कहानी-संग्रह ‘यूटोपिया’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ. एरिक हॉब्सबॉम की इतिहास की एक किताब का हिंदी में ‘पूंजी का युग’ शीर्षक से अनुवाद कर चुकी हैं. पुणे में रहती हैं.