इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक के समाप्त होते-होते साहित्यिक विधा के रूप में कहानी ने केंद्रीयता हासिल कर ली है. ऐसा नहीं है कि कविता या उपन्यास लिखे नहीं जा रहे हैं. वे खूब लिखे जा रहे हैं, लेकिन पूरा फोकस कहानी पर आकर सिमट गया है. इस कहानी विधा में भी चर्चा के केंद्र में केवल युवा पीढ़ी है. युवाओं की एक बहुत बड़ी तादाद अचानक कहानी लेखन में सक्रिय हो गई है. प्रतिनिधि प्रकाशनों से एकाएक उनके संग्रह भी आ गए हैं. लगभग सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाएं इस नई पीढ़ी को लेकर अपने-अपने विशेषांक भी निकाल चुकी हैं. कइयों ने तो दो-दो अंक निकाले. छोटे-बड़े तमाम साहित्यिक आयोजनों में इस नई पीढ़ी को लेकर चर्चाएं होती रही हैं. इस नई पीढ़ी का शोर हिंदी में ऐसा है कि सारे साहित्यिक मुद्दे ही गौण हो गए हैं.
‘ये युवा लेखक विज्ञापन की ऐसी विधियां जानते हैं, जिनसे पुराने लेखक अपरिचित थे’
अगर हिंदी साहित्य के इतिहास को देखें तो नई पीढ़ी का आना कोई अनहोनी घटना नहीं है. कहानी के इतिहास लेखन पर काम कर रहे आलोचक गोपाल राय कहते हैं, ’नई पीढ़ी को लेकर शोर हमेशा से होता आया है. साठ के आसपास युवा पीढ़ी का बहुत शोर था. वह शोर अभी खत्म ही नहीं हुआ था कि अकहानी को लेकर शोर शुरू हो गया.’ लेकिन सवाल यह है कि क्या वर्तमान शोर पूर्ववर्ती पीढ़ियों के शोर जैसा ही है. क्या यह शोर भी रचनात्मकता का ही है? वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह इसे रचनात्मकता से अधिक बाजार का मामला बताते हुए कहते हैं, ’पहले यह स्पष्ट कर दूं कि मैं उन आरंभिक लेखकों में से हूं, जिसने वागर्थ का नवलेखन आने पर इस नई पीढ़ी का उत्साह बढ़ाया था. मैंने ऐसा यह जानते हुए भी किया था कि इस पीढ़ी में अमरकांत, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, शेखर जोशी, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया की तरह रचनात्मक नयापन या ताजगी नहीं है जिसे लेकर वे कहानी लेखन में सक्रिय हुए थे. इसके बावजूद मैंने इनकी प्रशंसा की थी, तो इसलिए कि मुझे लगा था कि चाहे जो हो, इनके आने से भूमंडलीकरण के इस दौर में संकट से जूझ रहे साहित्य को गति मिलेगी. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि इन लेखकों की शुरुआती कहानियों के बाद एक ठहराव या बासीपन दिखाई देने लगा.’ यदि ऐसा है तो इस नई पीढ़ी का शोर थम क्यों नहीं रहा है? काशीनाथ जी कहते हैं, ’ये युवा लेखक विज्ञापन की ऐसी विधियां जानते हैं, जिनसे पुराने लेखक अपरिचित थे. ये लोग लेखन पर कम ध्यान देकर विज्ञापन की आधुनिक सुविधाओं का लाभ अधिक उठा रहे हैं. साथ ही दूसरी बात यह है कि प्रतिष्ठान से जो पत्रिकाएं निकलती हैं उनकी नजर बाजार पर होती है. उन्हें बाजार के लिए एक आंदोलन की जरूरत होती है. इसके लिए पत्रिका को किसी सही या गलत आंदोलन से जोड़ दिया जाता है. कमलेश्वर जब ’सारिका’ में गए थे तो उन्होंने आम आदमी, समानांतर कहानी जैसे आंदोलन चलाए. वर्तमान में वैसा ही हो रहा है. जो युवा लेखन है, उसमें बाजार अधिक है, लेखन की ताजगी और नयापन कम. ये लेखक बाजार की मांग के अनुरूप चल रहे हैं.’
‘हमारी पहचान बनी है और हम पर बात हो रही है इसी से साबित होता है कि हमने कुछ नया किया है’
इतिहास का अनुभव यही बताता है कि किसी भी तरह की मांग के अनुरूप लिखा गया साहित्य कभी दीर्घजीवी नहीं होता. कुछ समय के लिए धूम मचाकर अंततः विलीन हो जाता है. आखिर कमलेश्वर द्वारा चलाए गए आंदोलनों के कहानीकार आज कहां हैं? कहानी के इतिहास में उनकी क्या जगह है? ऐसे में यह खयाल उठता है कि काशीनाथ जी के कहे मुताबिक बाजार के हिसाब से चलने वाली यह पीढ़ी भी क्या लुप्त हो जाने के लिए अभिशप्त है? काशीनाथ सिंह की ही पीढ़ी के वरिष्ठ कथाकार और अरसे तक पहल का संपादन करने वाले ज्ञानरंजन कहते हैं, ’मेरी यह समझ है कि कहानी और कविता लगभग डूबती हुई विधाएं हैं लेकिन कहानी को नए बाजार ने थोड़ा-बहुत बचाया है. अनेक नए कहानीकार इसी बाजार की उपज हैं. बाजार जल्दी अपनाता है और जल्दी हड़पता है. उसका पेट बड़ा होता है और उसे निरंतर नायाब एवं अजूबा चाहिए. नए कहानीकारों ने बाजार की मांग की आपूर्ति भरपूर की है. उन्होंने चमकदार लिखा है. कई बार अखबारी खबरों को भी तिलिस्म की तरह खूबसूरत बनाया है. इनका पाठ लोकप्रिय और पठनीय भी है. कई बार ये अभूतपूर्व भी हैं. पर लगता है कि यह विधा इंटरनेट में विलीन होने के लिए अभिशप्त है. शायद यह किराए और बाजार की कोख है. इसे आधुनिक ’टेस्ट ट्यूब बेबी’ भी कह सकते हैं.’ अगर ऐसा है तो पत्रिकाओं के संपादक इन कहानीकारों को लेकर विशेषांक पर विशेषांक क्यों निकाले जा रहे हैं? ’हमारे अनेक संपादक समकालीनता के बाजार से अभिभूत हैं और बाजार का अमूर्त कमांड ले रहे हैं. कई बार बाजार की खिलाफत करने वाले भी उसके असंख्य चाकरों में शुमार हो जाते हैं’ इस पीढ़ी की कहानियों पर कड़ी टिप्पणी करते हुए ज्ञानरंजन कहते हैं, ’इस नव्यतम कहानी में पर्याप्त सकारात्मक अपवादों के बावजूद बहुलांश अत्याधुनिक बाजार की उपज है और इसीलिए अमूर्त रूप से क्रूर, हिंसक और मनुष्य विरोधी है. नामवर सिंह ने ’हंस’ की गोष्ठी में जो कहा और विजय कुमार ने ’नया ज्ञानोदय’ में जो लिखा वह फूहड़, दुखद लेकिन अकाट्य सत्य भी है.’
‘जिन फॉर्मूलों को साहित्य में स्थापना के नुस्खे माना जाता था उनके बिना ये कैसे स्थापित हो गए’
यानी इन वरिष्ठ आलोचकों और कथाकारों की राय से ऐसा प्रतीत होता है कि यह पीढ़ी अपनी रचनात्मकता के सहारे नहीं बल्कि बाजार के सहारे आगे बढ़ रही है और इनको लेकर जो शोर हो रहा है वह रचनात्मकता का नहीं है. वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी इससे सहमति जताते हुए कहते हैं, ’दरअसल यह विज्ञापनी मानसिकता का दौर है. इसमें जोर चाहे कम हो, शोर अधिक होता है. यह विज्ञापनी मानसिकता आज साहित्य को अधिक प्रभावित कर रही है.’ वे आगे कहते हैं, ’अगर वस्तु पर जोर नहीं दिया जाएगा तो शोर ही किया जाएगा. यही कारण है कि ये सारे कहानीकार एक जैसे लगते हैं. इनकी कोई निजता या व्यक्तित्व नहीं है और ये पाठक के मन में पहचान नहीं बना पाते.’ इसे कुछ और स्पष्ट करते हुए काशीनाथ सिंह आगे कहते हैं, ’दरअसल कोई कहानी अपने चरित्र या पात्र के माध्यम से याद रह जाती है. पूर्ववर्ती कहानियां अपने चरित्रों या पात्रों के कारण ही याद रह जाती थीं. उन कहानियों में घटनाओं के केंद्र में मनुष्य होता था. इनकी कहानियों में मनुष्य घटनाओं में घुलमिल गया है. वह याद ही नहीं आता. पुरानी कहानियों में मनुष्य की केंद्रीयता थी. इनकी कहानियों में वह केंद्रीयता से बाहर है.’
यह लगभग वैसी ही बात है जिसे ज्ञानरंजन मनुष्यविरोधी होना कहते हैं. लेकिन सवाल यह है कि ऐसा परिदृश्य बना कैसे? इसके बारे में आलोचक और वागर्थ के संपादक विजय बहादुर सिंह कहते हैं, ’इसका कारण बहुत साफ है. आज साहित्य कैरियर और महत्वाकांक्षा का मामला हो गया है. उसका भी एक अपना बाजार हो गया है, जिसमें लिखा चाहे जितना कम जाए पर शोर अधिक किया जाता है.’ विजय बहादुर सिंह आगे कहते हैं, ’यह जो पढ़ा-लिखा अंग्रेजीदां नया मध्यवर्ग आया है, वह संघर्षशील नहीं बल्कि घुटनाटेकू है. यह मु्क्तिबोध की कविता ’अंधेरे में’ में वर्णित मध्यवर्ग की अगली पीढ़ी है. जहां तक रचनात्मकता का सवाल है, इस पीढ़ी में कुछ लोग लंबी कहानियां लिख रहे हैं. अगर कहानी ’कंटेंट’ के कारण खिंचती जाए तो बात अलग है लेकिन यहां तो कंटेंट के बिना ही खींचा जा रहा है. अब लंबी कहानी लिखने मात्र से कोई उदय प्रकाश थोड़े ही हो जाएगा.’ समय-समय पर इस पीढ़ी पर उदय प्रकाश की नकल करने के आरोप लगते रहे हैं. ये कितने सही हैं, पूछने पर युवा कहानीकार उमाशंकर चौधरी कहते हैं, ‘हम अपने ऊपर उदय प्रकाश के प्रभाव को गर्व से स्वीकार करते हैं, लेकिन हम नकल नहीं कर रहे. हमारी पहचान बनी है और हम पर बात हो रही है इसी से साबित होता है कि हमने कुछ नया किया है. लेकिन सभी लंबी कहानियां भी नहीं लिख रहे हैं और लंबी कहानियां भी पठनीय हों तब क्या समस्या है?’
यहां एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों को युवा रचनाशीलता मात्र से समस्या है या कुछ मुद्दों को लेकर असहमति भी है? कथाकार व ’हंस’ के कार्यकारी संपादक संजीव कहते हैं, ’नई पीढ़ी और युवा रचनाशीलता से किसी को समस्या नहीं है. दरअसल ’वागर्थ’ के नवलेखन अंत तक तो सबकुछ ठीक था लेकिन उसके बाद रवींद्र कालिया लेखक को बनाने से अधिक सजाने की प्रक्रिया में लग गए. इसलिए एक व्यक्ति, पत्रिका या प्रतिष्ठान ने जो किया उसे सब पर लागू न किया जाए. रवींद्र कालिया की कार्यशैली अलग किस्म की है. हंगामा, ग्लैमर, प्रोजेक्शन उस कार्यशैली के अनिवार्य हिस्से हैं. अब इसे बाजारवाद का प्रभाव भी कह सकते हैं और उनके व्यक्तित्व का आग्रह भी. ये चीजें हमलोगों को नागवार गुजरीं. जिन-जिन नए रचनाकारों के प्रशंसा के पुल बांधे गए सब फुलझड़ियों की तरह चमक बिखेर कर खत्म हो गए. नए की अतिशय प्रशंसा परोक्ष रूप से उसकी हत्या होती है. हमने भी हंस में ’मुबारक पहला कदम’ नाम से नए रचनाकारों को प्रकाशित किया. इनकी दूसरी रचनाओं ने भी आश्वस्त किया जबकि उस ’विवादास्पद पीढ़ी’ की दूसरी रचनाएं प्रभावित नहीं कर पाईं. अलबत्ता अपवाद के रूप में कुछ नाम तो भीड़ से हमेशा अलग रहते ही हैं.’
संजीव नई पीढ़ी के जिस हिस्से को ‘विवादास्पद पीढ़ी’ की संज्ञा देते हैं वह जाहिर है कि उनकी निगाह में हिंदी की स्वाभाविक नहीं बल्कि प्रोमोट की गई पीढ़ी है. कथाकार व ’समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट कहते हैं, ‘दरअसल इस तरह के काम प्रकाशन गृह करते हैं. उन्हें रचनाशीलता से मतलब न होकर सूची पत्रों में नए नाम जोड़ने में दिलचस्पी होती है. वर्तमान में जो नई पीढ़ी का शोर है वह बाजारसंचालित है.’ बाजार के अतिरिक्त पंकज बिष्ट एक दूसरे कारण की ओर भी संकेत करते हैं, ’इस समय साहित्य में एक ठहराव है. नई कहानी के दौर के रचनाकार ही किसी न किसी बहाने चर्चा के केंद्र में रहे. जबकि उस आंदोलन को खत्म हुए चालीस साल से अधिक हो गए. बहुत-से तो नई कहानी के बाद की पीढ़ी को जानते ही नहीं. उनका सीधा संपर्क इन नए रचनाकारों से हो रहा है. इस तरह नई पीढ़ी की चर्चा द्वारा नई कहानी के बाद के ’वैक्यूम’ को भरने का प्रयास हो रहा है.’
इन सबसे इतर ’वसुधा’ के संपादक कमला प्रसाद नई पीढ़ी के इन रचनाकारों के प्रति ’जनरल रिमार्क’ देने से बचने की सलाह देते हुए कहते हैं, ’केवल दो-चार कहानीकारों को न देखा जाए. सभी कहानीकारों को एक साथ लिया जाए तो यह स्पष्ट रूप से दिखेगा कि इन रचनाकारों ने अपने समय की नब्ज को बखूबी पकड़ा है. यह बहुत समर्थवान पीढ़ी है. जो ज्ञान पुरानी पीढ़ी को वर्षों में मिलता था, इन्हें तुरंत सुलभ हो जाता है. इस पीढ़ी ने सारे ’फॉर्म’ तोड़े हैं, नैतिक बंधनों को तोड़ा है. मैं इस पूरी पीढ़ी का स्वागत करता हूं.’ अगर यह पीढ़ी इतनी ही समर्थवान है तो इनकी कहानियों में विषय वस्तु का संकुचन हो गया है ऐसी बातें क्यों सुनने में आ रही हैं? जैसा कि विश्वनाथ त्रिपाठी पूछते हैं, ’ये लोग अपने से अलग दलित या स्त्री जीवन पर उस तरह की कहानियां क्यों नहीं लिख पा रहे हैं जैसे प्रेमचंद और उनके बाद के रचनाकारों ने लिखीं? यह समर्थ होने की निशानी है या असमर्थता की?’ इस पर कमला प्रसाद कहते हैं, ’मिडिल क्लास में कथा विस्तार की संभावना नहीं है. यह क्लास जब तक डीक्लास होकर दूसरे क्लास से नहीं जुड़ेगा तब तक विस्तार की गुंजाइश नहीं है.’ मध्य वर्ग का तर्क भी बहुत दिया जाता है. इस पीढ़ी के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि इस पीढ़ी के लेखक शहरी मध्यवर्ग के हैं इसलिए इनकी कहानियों में मध्यवर्ग और मध्यवर्गीय संबंधों की व्यापक उपस्थिति है. लेकिन सवाल यह भी है कि हिंदी में कौन सा लेखक सर्वहारा वर्ग का हुआ है? अब तक के सभी रचनाकार मध्य वर्ग या उच्च वर्ग के ही रहे हैं. अगर इस तर्क को मान लिया जाए तो हिंदी में गरीब, किसान, मजदूर आदि को लेकर कोई कहानी ही नहीं होनी चाहिए. दरअसल लेखकीय सामर्थ्य इसी में निहित है वह अपनी संवेदना का कितना विस्तार कर पाता है. काशीनाथ सिंह कहते हैं, ’पूर्ववर्ती पीढ़ियों की तरह कथा लेखन के प्रति वैसी आत्मीयता या प्रतिबद्धतता इस पीढ़ी के पास नहीं हैं.’
नए कहानीकारों को लेकर की जा रहीं इन तमाम शिकायतों का ‘प्रतिलिपि’ के युवा संपादक गिरिराज किराडू कुछ इस तरह जवाब देते हैं, ‘नए कहानीकारों में चन्दन पाण्डेय और कुणाल सिंह की कुछ कहानियां बिलकुल नए का प्रस्ताव हैं. इधर गौरव सोलंकी की कहानी ‘सुधा कहां है’ भी. प्रभात रंजन का सतह पर दीखता पुरानापन भी बहुत अंतर-पाठीय और धोखादेह है. दरअसल दृश्य में नकली परदुखकातर और यांत्रिक लेखन की भरमार है करीब से पढने पर जिसकी क्रूरता और हिंसा भी साफ़ झांकने लगती है. वैसा रिव्यू-भीरु, बॉस-भीरु लिखने वाले बहुत सारे लोगों को झल्लाहट है कि जिन फॉर्मूलों को साहित्य में स्थापित होने के लिए अचूक नुस्खा माना जाता था वो सब बिना किये ये नए लोग स्थापित कैसे हो गए.’
वर्तमान समय को देखते हुए एक सवाल यह भी उठता है कि क्या नए लेखकों की बाजारोन्मुखता या उनका बाजार से संचालित होना अस्वाभाविक है? उपन्यासकार व महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय इसे स्वाभाविक मानते हुए कहते हैं, ’हमारा पूरा का पूरा समय ही बाजार से संचालित है. भूमंडलीकरण के बाद सब-कुछ बाजार से संचालित हो रहा है. ऐसे में यह नई पीढ़ी भी बाजार से संचालित हो रही है तो इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है. धीरे-धीरे जब ये परिपक्व होंगे तो बाजार के अच्छे-बुरे पक्षों को जानेंगे और उसका इस्तेमाल अपनी रचनात्मकता के पक्ष में कर सकेंगे.’
वरिष्ठ कथाकार व नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया नई पीढ़ी को लेकर लग रहे तमाम आरोपों-प्रत्यारोपों को खारिज करते हुए कहते हैं,’ मैं बाजार के दबाव को मानता हूं. कुछ लोग बिकना ही नहीं चाहते. हिंदी में ऐसा भी लेखन हो रहा है जो नहीं बिकता. जीवन से जुड़े रचनाकार बिकेंगे ही. मुझे खुशी है कि नए लोगों ने बाजार बना लिया है. इससे अच्छी कुछ बात हो ही नहीं सकती.’ रवींद्र कालिया आगे कहते हैं, ’इस नई पीढ़ी के आने के बाद पुरानी पीढ़ी के सारे लेखक असुरक्षित हो गए हैं. अब तक पुरानी पीढ़ियां नई पीढ़ी के लिए ’स्पीड ब्रेकर’ का काम करती हैं. मैंने सिर्फ इतना किया है कि उस स्पीड ब्रेकर को हटा दिया. हटाते ही ये लोग दौड़ने लगे और अपनी जगह बना ली. पूर्ववर्ती पीढ़ी की सोच पिछड़ी हुई है. मैं समझता हूं कि यह हिंदी की पहली पढ़ी-लिखी पीढ़ी है.’ रवींद्र कालिया यह भी स्पष्ट करते हैं कि ’मैं केवल नई पीढ़ी को ही नहीं छापता हूं. बहुत कम लेखक होंगे जो मेरे संपादन में नहीं छपे हैं. वर्तमान साहित्य’ के कहानी महाविशेषांक और ’वागर्थ’ के फोकस के स्तंभ के अंतर्गत पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों को हमने पर्याप्त छापा है.’
ऐसे विरोधाभासी बयानों के बीच समकालीन कहानी के परिदृश्य को कैसे समझा जाए ? संजीव कहते हैं, ’इसमें तीन तरह के लोग हैं. एक जो प्रचारित हैं. दूसरे जो चुपचाप रचनाशील हैं और तीसरे जिनका प्रचार भी है और उनमें दम भी. अगर ये भटके नहीं तो इनमें संभावनाएं हैं.’ काशीनाथ सिंह कहते हैं, ’इन्हीं लेखकों में से कुछ ’जेनुइन’ हैं, लेकिन प्रचार-प्रसार के मामले में पीछे हैं. ये आज से कुछ वर्ष बाद सामने आ सकते हैं.’ ज्ञानरंजन कहते हैं, ’यह समय कहानी की विपदा का है और अंततः उसके लोप का. बावजूद इसके होनहार नक्षत्र अंधेरे में ही चमकते हैं.’