' राजनीति गंदली है तो आचमन करो '

मित्रों के बीच देश की मौजूदा गंदली राजनीति पर बातचीत हो रही थी. मेरे भीतर मुख्यमंत्री मायावती द्वारा कटौती प्रस्ताव के मुद्दे पर कांग्रेस का पक्ष-समर्थन किए जाने का क्षोभ व्याप्त था. पानी पी-पी कर कांग्रेस को कोसने वाली बसपा सुप्रीमो का यह नया ‘पोलिटिकल स्टैंड’ कम से कम मेरी राय में समझ से परे था. बातचीत के लहजे में आक्रोश घुला था.
काफी देर से चुपचाप सुन रहे मेरे एक मित्र ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘अच्छा यह बताओ, बनारस की गंगा नदी क्या पहले जैसी ही साफ-सुथरी है? क्या उसका जल उतना ही स्वच्छ और निर्मल है, जैसा अतीत में कभी रहा हो?’ ‘बिल्कुल नहीं!’ तपाक से मैंने जवाब दिया.

जिंदगी में बढ़ रहे शोर-शराबों, चिल्ल-पों और राजनीतिक हो-हल्लों से आजिज हर आदमी फौरी तौर पर बचने का उपाय खोजता फिर रहा है

‘तो क्या यह मान लिया जाए कि मैली होती जा रही गंगा अब लोगों का पाप नहीं धोती? अरे! राजनीति गंदली है तो आचमन करो. लाभ के हिसाब से ‘मन शुद्धिकरण’ करो. उसमें डूब मरने की क्या जरूरत?’ मेरी क्या प्रतिक्रिया रही होगी, उसे छोड़ दें. असल बात यह है कि आपसी बातचीत और संवाद में हम कितनी जल्दी बीच का रास्ता ढूंढ़ निकालते हैं. जिंदगी में बढ़ रहे शोर-शराबों, चिल्ल-पों और राजनीतिक हो-हल्लों की सरगर्मी से हर आदमी आजिज हो चला है. वह फौरी तौर पर बचने का उपाय खोजता फिर रहा है. लिहाजा, अधिकांश लोग नफे-नुकसान के हिसाब से सोचने लगे हैं. शौक के हिसाब से चीजों को जानने-परखने के कला-कौशल में पारंगत हो गए हैं. ऐसे में उन्हें क्यों कचोटे  यह ख़बर कि ‘धान-कटनी से लौटते मजदूरों से भरा ट्रक पलटा, 30 मरे’, ‘नरेगा-मनरेगा में धांधली से अफसरों की चांदी’ या कि ‘लालगढ़ हुआ फिर लाल.’

तो क्या हम यह मान लें कि जनधर्मी लोकतंत्र, जिसने सभी को अलग-अलग प्रकार से आजादी दी है, उसका कोई सदुपयोग करे या दुरुपयोग, यह उनका बिल्कुल निजी मामला है? क्या मानवीय मूल्यों, व्यवहार, संवेदनशीलता और सक्रियता में दिखता फर्क आजादी के नए तरानों का हिस्सा है?  

मेरे मित्र की वह बात अब भी मेरे भीतर हलचल मचाए हुए है. वह बता रही है कि सभ्य और संभ्रांत वर्ग के युवाओं में आज दिखावे की प्रवृति तेज है, समय से तत्काल सौदेबाजी करने की बेचैनी अधिक है, अवसर मिलते ही येन-केन-प्रकारेण हर प्रकार का सुख-साधन और दौलत-ऐश्वर्य बटोर लेने की चाहत और महत्वाकांक्षा ज्यादा है. परिणाम यह हुआ है कि कोई आजादी को लूट-खसोट का जरिया मान रहा है, तो किसी के लिए राजनीतिक संबंधों का अर्थ मुनाफे के अवसर का सृजन है. कोई राहुल गांधी को ‘युवराज’ बनाने की खातिर ‘हिट आइडिया’ सुझा रहा है, तो कोई उनकी रैली को ‘महाख़बर’ साबित करने के लिए ‘ख़बरिया अभियान’ चला रहा है. कई ऐसे भी हैं जो अपनी काली कमाई क्रिकेट के ‘आईपीएल’ संस्करण के बहाने उगाहने में मशगूल है.

और मेरे जैसे कई लोग व्यवस्था और व्यक्ति के मुद्दे पर सवाल खड़े कर रहे हैं, राजनीति में चल रहे घालमेल पर सर पीट रहे हैं. समाज के अंदर कुलबुलाते दुख, तकलीफ और पीड़ा पर बात करने के लिए ‘स्पेस’ ढूंढ़ रहे हैं. नक्सल घटनाओं में बेमौत मारे जा रहे निर्दोष और निरपराध लोगों की खातिर अपनी आंखें लाल कर रहे हैं .

मैं उन बच्चों पर छपी रिपोर्ट पढ़कर व्यथित हूं, जो भोजन के अभाव में पत्थर खा रहे हैं. मेरी नज़र उन घरों की देहरी की तरफ निहार रही है जिन घरों की स्त्रियां घरेलू प्रताड़ना से ऊबकर रेल की पटरियों पर जान देने को मजबूर हैं. मेरे अनुत्तरित सवालों के घेरे में आधुनिक लबादा ओढ़े बौद्धिक समाज का वह कुनबा है, जो सामाजिक-सांस्कृतिक प्रगति के तमाम दावों को लजाते हुए अपनी नाक के लिए अपनी ही औलादों का गला घोंट रहा है.

कोई मुझे सुझाव और सलाह दे, ताकि पत्रकारिता में ‘गोल्ड मेडेलिस्ट’ का तमगा लिया मैं, सुनहले सपने बेचने वाले ख़बर-प्रबंधकों से अपने लिए भी कुछ खरीदारी कर सकूं. ऐसी ही कोई सलाह कि अगर राजनीति गंदली है तो आचमन करो. लाभ के हिसाब से ‘मन शुद्धिकरण’ करो. उसमें डूब मरने की क्या जरूरत? क्या मैली होती जा रही गंगा अब लोगों का पाप
नहीं धोती?