राजनीति की फिल्मी नियति

एक रोचक संयोग है. हिंदी फिल्मों के सितारों का राजनीति में अक्सर जो हश्र होता है, वही बॉलीवुड (और मुंबइया फिल्म उद्योग को ‘बॉलीवुड’ कहने के अपने राजनीतिक खतरे हैं) में राजनीतिक विषयों का होता है. मतलब यह है कि यदि आप इस देश के लोगों के लिए, जिनके लिए फिल्म और क्रिकेट के साथ राजनीति की बहसें दैनिक खुराक का हिस्सा हैं, एक कमाल के राजनीतिक विषय पर जबर्दस्त तनाव भरी फिल्म बनाना चाहते हैं तो आपको हिंदी फिल्मों का इतिहास पढ़ ही लेना चाहिए.

आपके पास सितारे, आक्रोश और स्टाइलिश हिंसा हो तो आपकी आवाज जनता जरूर सुनेगी

प्रकाश झा, जिनकी पहली फिल्म ‘दामुल’ से अभी रिलीज होने वाली ‘राजनीति’ तक हर फिल्म में समाज का राजनीति से संवाद रहा ही है, कहते हैं कि वे इसे पढ़े बिना मैदान में उतरे हैं. वैसे शायद वे बिना पढ़े पार उतर जाएं क्योंकि बॉक्स ऑफिस पर चलने वाली गिनी-चुनी राजनीतिक फिल्मों में एक-चौथाई तो उनका हिस्सा है ही. इसकी एक वजह यह भी है कि उनकी फिल्मों की गंभीरता ने कहानी में से मसाले को ज्यादा कम नहीं किया है. वे बिहार के अपने ‘कंफर्ट जोन’ से बाहर नहीं निकलते, उनके पास स्टार होते हैं और स्पष्ट दिखने वाला गुस्सा उन्हें ‘एंग्री यंग मैन’ वाली फिल्मों की तरह लोकप्रिय बनाता है. आपके पास सितारे, आक्रोश और स्टाइलिश हिंसा हो तो आपकी आवाज जनता जरूर सुनेगी.  ‘गंगाजल’, ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘शूल’ समेत ऐसी अनेक फिल्में रहीं जिनमें एक अकेला व्यक्ति (अधिकांशत: ईमानदार पुलिस अफसर) उसे कुचल डालने पर आमादा राजनीतिक तंत्र के विरुद्ध लड़ा और जीता भी. जिस कानून ने पहले हिस्से में उसके हाथ बांधे, उसी को तोड़कर उसने भ्रष्ट नेताओं की हत्या की. चलने वाली सब फिल्मों की खासियत यह रही कि उन्होंने अपने समय के बहुमत की आवाज ही पुष्ट की. ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ 1988 में आती और ‘तेजाब’ 2006 में तो शायद दोनों की नियति कुछ अलग होती.

विषय राजनीति न हो, लेकिन फिर भी आपसे पॉलिटिकली करेक्ट होने की उम्मीद करना इतना ज्यादा भी नहीं है. लेकिन हमारे ज्यादातर निर्देशक इतना रहम भी नहीं खाते. उनके कई सकारात्मक चरित्र भी अक्सर दोमुंहे होते हैं. लेकिन कुछ फिल्मकार ऐसे भी हैं जो अपने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संदेश को लेकर लगातार सजग रहे हैं. जैसे मणिरत्नम ने ‘रोजा’, ‘बॉम्बे’ और ‘दिल से’ में प्रेम कहानियां कही हैं लेकिन उनके भीतर की परत में वे स्पष्ट रूप से जानते हैं और बताते भी हैं कि सांप्रदायिकता और कश्मीर पर उनकी राय क्या है. उनकी ‘युवा’ भी एक तरफ खड़े होकर उस पार की व्यवस्था को गाली देने की बजाय हर तरफ जाकर चीर-फाड़ करती है. इसी तरह गुलजार की ‘आंधी’, ‘माचिस’ और ‘हुतूतू’ यूं तो प्रेम-कहानियां ही हैं, लेकिन वे उस जमीन की बात करती हैं जिसमें पड़ रही दरारें उसके किरदारों की जिंदगियां तोड़ रही हैं. श्याम बेनेगल भी अपने संदेशों को लेकर सचेत रहे हैं. अपनी पिछली दो फिल्मों ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ और ‘वेल डन अब्बा’ में वे एक नए अंदाज में सामाजिक-राजनीतिक व्यंग्य करते हैं. व्यंग्य आपको निरीह भी नहीं होने देता और दर्शक देता है. इसी तरह सुधीर मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ अमीर युवाओं के आदर्शवाद और जमीनी हकीकत की टक्कर के बीच की दुविधा के बीच में से सिर्फ प्रेम करने वाला नायक निकालकर लाती है. इसका ‘विक्रम मल्होत्रा’ यूं तो अपने नाम की वजह से ही बॉलीवुड का पसंदीदा नायक रहा है लेकिन इस खास फिल्म में सुधीर उसके लिए अपने विद्रोही लगने वाले नायक को खलनायक बनाते हैं. वे उस क्रांतिकारी के खोखलेपन को हराते हैं जिसे क्रांति के विचारों की बजाय उसका नशा सम्मोहित करता है.

बॉलीवुड की मसाला फिल्में नेताओं के दो रूप दिखाती हैं: एक बुरा नेता, जो बेवजह बुरा है और किसी भी हद तक जा सकता है. दूसरा अच्छा, जो ईमानदार है लेकिन राजनीति में फैली गंदगी के कारण मजबूर है. दोनों की ही अक्सर कोई विचारधारा या लक्ष्य नहीं होता. मिश्रा इस बचकाने रूप के पीछे निर्देशकों की बचकानी समझ को दोषी मानते हुए कहते हैं, ‘जो निर्देशक भारत को ही ठीक से नहीं समझते, उनसे आप भारतीय राजनीति समझने की उम्मीद कैसे करें?’

हमारे पास विभाजन, आजादी, आपातकाल, सांप्रदायिकता और आतंकवाद जैसे सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे हैं, लेकिन आखिरी दो पर ही ज्यादा फिल्में बनी हैं. उनमें भी संतुलित और ईमानदार कम, उग्र और विध्वंसक ज्यादा. विभाजन पर बनी ‘गरम हवा’ के आखिरी दृश्य में फारुख शेख बेरोजगारी के खिलाफ आंदोलन कर रहे युवाओं के एक जुलूस में शामिल हो जाते हैं. कुछ वैसा ही जुलूस, जिसके नेता ‘युवा’ के अजय देवगन हैं और जिसके भ्रम में ‘गुलाल’ में राजस्थान की एक यूनिवर्सिटी में वकालत पढ़ने आया दिलीप अपना सब-कुछ खो बैठता है. ‘गुलाल’ किसी भी समय की कहानी नहीं है, फिर भी हमारे समय की सबसे डार्क राजनीतिक फिल्मों में से एक है. उसमें पीयूष मिश्रा का पागल होना आदर्शों के स्वाहा हो जाने के सबसे अच्छे बिंबों में से एक है. दिलीप चुनाव जीतता है लेकिन उसका ‘युवा’ के अजय देवगन की तरह फिल्म के आखिरी दृश्य में विधानसभा स्वागत नहीं करती. न ही वह ‘हासिल’ के जिमी शेरगिल की तरह दलदल में से जीवित बचकर अपने प्यार को पा लेता है. राजनीति उसे बदलाव के सुनहरे मौके नहीं देती बल्कि अंधे कुएं में धक्का दे देती है. यही हाल ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ के शाइनी आहूजा का होता है.

हमें शायद फिल्मों में ही नहीं, राजनीति में भी इन नायकों की नियति बदलनी है. ‘नायक’ के अनिल कपूर का जीतना तो फिल्मी लगता है, लेकिन कब हम अपनी रियलिस्टिक कहानियों के अंत में ‘गुलाल’ के दिलीप को किसी छायादार पेड़ के नीचे बैठकर शांति से गिटार बजाते देख पाएंगे?