बात उन दिनों की है जब केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोहन हुआ करते थे. एक बार वे पर्यटन और रोजगार को प्रोत्साहित करने के लिए बनी चार धाम सर्किट योजना की समीक्षा करने बदरीनाथ पहुंचे. वहां उन्हें बताया गया कि कुछ पंडे उनसे मिलना चाहते हैं. ये पंडे जानना चाहते थे कि जगमोहन का पैतृक स्थान कहां है. मगर जगमोहन ने उनमें खास दिलचस्पी नहीं दिखाई और कह दिया कि उनका घर दिल्ली है. मगर पंडों ने आग्रह किया कि वे पाकिस्तान स्थित अपने मूल क्षेत्र का नाम बताएं. झिझकते हुए जब जगमोहन ने प्रांत और जिले का नाम बताया तो पंडों की भीड़ छंट गई. सिर्फ एक दुबला-पतला युवक ही वहां खड़ा रहा जिसका कहना था कि उस जिले का पंडा वह है. बाद में जब उस युवा पंडे ने जगमोहन को उनके पैतृक गांव के लोगों के बारे में भी बताना शुरू किया तो वे हैरान रह गए. इसके बाद उन्होंने भी खुद पंडे की बही में अपनी बदरीनाथ यात्रा का विवरण दर्ज किया.
इतने कठिन समय में भी अगर लोग इस यात्रा पर जाने का साहस जुटा लेते थे तो इसमें उनकी श्रद्धा के साथ बदरी-केदार के तीर्थ पुरोहितों यानी पंडों का भी अहम योगदान थायह एक छोटा-सा उदाहरण है जो बदरीनाथ और केदारनाथ जैसे महत्वपूर्ण तीर्थों की यात्रा में यहां के तीर्थपुरोहितों यानी पंडों की भूमिका और उनके योगदान के बारे में बताता है. मीडिया और तकनीक के इस युग में आज हर तरह की जानकारी और सुविधा सुलभ है. लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब स्थितियां इसके उलट थीं. जानकारी और सुविधाएं नहीं के बराबर थीं और बदरी-केदार की यात्रा इतनी दुष्कर और खतरों से भरी हुआ करती थी कि जाने वाले अक्सर कहते थे कि क्या पता अब मिलना हो न हो. इतने कठिन समय में भी अगर लोग इस यात्रा पर जाने का साहस जुटा लेते थे तो इसमें उनकी श्रद्धा के साथ बदरी-केदार के तीर्थ-पुरोहितों यानी पंडों का भी अहम योगदान था. आज भी ऐसे यात्रियों की संख्या बहुत है जिन्हें दूसरी किसी भी व्यवस्था की तुलना में अपने पंडों पर ज्यादा भरोसा है.
बदरी-केदार के कपाट छह महीने ही यात्रा के लिए खुलते हैं. सर्दियों में विकट भौगोलिक परिस्थितियों और पौराणिक मान्यताओं के कारण इन्हें बंद रखा जाता है. सड़क मार्ग न होने के कारण मोक्ष धाम बदरीनाथ (ऊंचाई 3,133 मीटर) और द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ (3,680 मीटर) तक पहुंचना पहले बहुत टेढ़ी खीर हुआ करता था. चीन के हमले के बाद, वर्ष 1965 में बदरीनाथ तक सड़क मार्ग पहुंचाना सरकार की मजबूरी हो गई. हालांकि केदारनाथ मंदिर तक पहुंचने के लिए आज भी गौरीकुंड से 14 किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़कर जाना पड़ता है. यात्रा की मुश्किलों और सुविधाओं के अभाव के कारण उन दिनों यात्री भी कम संख्या में आते थे. प्रसिद्ध घुम्मकड़ राहुल सांकृत्यायन 17 मई 1951 को बदरीनाथ पहुंचे थे. यहां उन्होंने तीन दिन प्रवास किया. अपने यात्रा विवरण में वे लिखते हैं, ‘मंदिर के आसपास के कुछ मकानों को छोड़कर बदरीपुरी में कच्चे मकान ही हैं. इन्हीं झोपड़ियों में छह महीने के यात्रा काल में आने वाले कुछ हजार यात्री ठहरते हैं.’
श्री बदरीनाथ पंडा पंचायत के अध्यक्ष मुकेश भट्ट ‘प्रयागवाल’ बताते हैं, ‘सौ साल पहले तो परिस्थितियां और भी दुष्कर थीं. ऋषिकेश से आगे कहीं भी सड़क मार्ग नहीं थे.’ जानकार बताते हैं कि उस समय पैदल यात्रा चट्टी व्यवस्था के भरोसे चलती थी. चट्टी यानी वह जगह जहां पर आस-पास के गांवों के लोग यात्रियों को राशन और चौका-बर्तन उपलब्ध कराते थे. हर 5 मील पर कम से कम एक चट्टी होती थी. ऋषिकेश से लेकर बदरीनाथ तक की यात्रा में 46 चट्टियां पड़ती थीं. तब यात्रा पर भी ज्यादातर बुजुर्ग लोग ही आते थे. प्रयागवाल बताते हैं, ‘उस कठिन समय में भी तीर्थ-पुरोहितों ने हिमालय के इन दुर्गम तीर्थों की यात्रा करने के लिए श्रद्धालुओं को तैयार किया.’
श्री केदार पंडा पंचायत के तीर्थपुरोहित श्रीनिवास पोस्ती तथा प्रयागवाल का दावा है कि उत्तराखंड में तीर्थपुरोहित परंपरा आदिगुरु शंकराचार्य की बदरी-केदार यात्रा के समय से ही शुरू हो गई थी. पोस्ती बताते हैं कि केदारखंड में भी बदरीकाश्रम निवासी धर्मदत्त नामक ब्राह्मण के अवंति नगर जाकर चंद्रगुप्त नामक वैश्य को यात्रा पर आने के लिए प्रेरित करने का वर्णन है. बदरी-केदार के पंडों की बहियों में लगभग दो सौ साल पुराने यजमानों के यात्रा विवरण उपलब्ध हैं. पोस्ती कहते हैं, ‘पहले यात्री बदरीनाथ तथा केदारनाथ की यात्रा पर बहुत कम संख्या में आते थे इसलिए उनकी जानकारी मौखिक रुप से ही रहती थी. बाद में जब संख्या बढ़ने लगी और शिक्षा का प्रसार होने लगा तो यात्रियों के नाम बहियों में दर्ज किए जाने लगे.’ आज यहां आने वाले लोग जब अपने पुरखों द्वारा अंकित साक्ष्यों को देखते हैं तो उन्हें हैरानी के साथ-साथ गौरव का भी अनुभव होता है. इस तरह यहां आने वाला व्यक्ति स्वयं ही इस परंपरा से जुड़ जाता है.
बदरीनाथ पंडा पंचायत के महासचिव रहे मुकेश अल्खानियां अपने यजमान रायबहादूर कस्तूर चंद समीर चंद डागर के अभिलेखों को दिखाते हुए कहते हैं, ‘दो सौ साल पहले इसी परिवार ने बदरीनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था तथा तप्त कुंड से लेकर मंदिर तक की सीढियां भी बनवाई थीं.’ बदरी-केदार के पंडों के पास राजा-महाराजाओं की दी सनदें और ताम्र पत्र भी मिलते हैं.
बदरी-केदार के कपाट बंद होने के बाद भी पंडों का यजमानों से संपर्क नहीं टूटता. श्रीनिवास पोस्ती बताते हैं, ‘सर्दियों में ये तीर्थपुरोहित देश भर में अपनी-अपनी यजमानी के क्षेत्रों में जाते हैं. भौगोलिक रूप से दुष्कर तीर्थों में हुई सेवा-सत्कार से कृतज्ञ यजमान अपने घरों में इन तीर्थपुरोहितों का दिल खोलकर स्वागत करते हैं. तीर्थपुरोहितों के अपने यजमानों के साथ आत्मीय पारिवारिक संबंध होते हैं इसलिए तीर्थपुरोहित अपने रिश्तेदारों से अधिक अपने यजमानों के सुख-दुख में सम्मिलित होते हैं. शीतकाल की इन यात्राओं सेे पंडों और यजमानों के पुराने संबंधों में एक नया पहलू तो जुड़ता ही है उस क्षेत्र के अन्य श्रद्धालुओं को भी बदरी-केदार यात्रा पर आने का संबल और प्रेरणा मिलती है. तीर्थपुरोहितों का मानना है कि सदियों से अनवरत चली आ रही इस परंपरा का ही परिणाम है कि पहले संैकड़ों की संख्या में आने वाले यात्रियों की संख्या समय बीतने के साथ लाखों में पहुंच गई है.
तिब्बत सीमा के पास चमोली जिले में स्थित बदरीनाथ धाम में उत्तराखंड और नेपाल के पंडे चमोली जिले के डिमरी जाति के हैं. बाकी सारे भारत के तीर्थपुरोहित बदरीनाथ से लगभग 250 किमी नीचे देवप्रयाग कस्बे के आसपास स्थित टिहरी और पौड़ी जिले के 20-25 गांवों के निवासी हैं. केदारनाथ (रुद्रप्रयाग जिला) के पंडे जाड़ों में मंदिर के कपाट बंद होने पर वहां से 60-70 किमी नीचे आकर ऊखीमठ और गुप्तकाशी के पास के गांवों में रहते हैं.
बदरी तथा केदार दोनों तीर्थों के पुरोहितों के तीर्थ कृत्य भी अलग-अलग हैं. बदरीनाथ के पंडे तप्त कुंड व पंच शिला पूजन कराकर जाते समय यात्रियों को सुफल आशीर्वाद देते हैं तो केदारनाथ के तीर्थपुरोहित यात्रियों के पूर्वजों के पिंड भरते हैं मंदिर के भीतर संकल्प पूजा कराते हैं और सावन के महीने यात्रियों द्वारा संकल्पित ब्रह्म कमल के पुष्पों को केदारनाथ मंदिर के शिवलिंग पर चढ़ाते हैं. पिछले साल राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल बदरीनाथ यात्रा पर आई थीं. उनके तीर्थ पुरोहित प प्रकाश नारायण बाबुलकर ‘शास्त्री’ बताते हैं, ‘महामहिम ने सभी धार्मिक कार्य श्रद्धापूर्वक संपन्न कराए.’
प्रतिष्ठित यात्रियों का आना भले ही सम्मानजनक हो परंतु बदरी-केदार के ये तीर्थ पुरोहित अपने सभी यजमानों को समभाव से देखते हैं. पोस्ती बताते हैं, ‘होटल और धर्मशालाओं का किराया देने में असमर्थ गरीब यात्रियों को तीर्थपुरोहित अपने घरों में ठहराते हैं. यात्रियों को वापस जाते समय सुफल(यात्रा आर्शीवाद) देते हुए उनसे यह भी पूछा जाता है कि उनके पास वापस जाने के लिए धन है या नहीं. यात्रियों के पास धनाभाव होने पर पंडे उन्हें वापस जाने कर खर्चा भी देते हैं. बाद में जब इन गरीब किसानों के घरों में धन-धान्य होता है तो ये श्रद्धालु तीर्थपुरोहितों से लिए गए इस धन को वापस कर देते हैं. पोस्ती बताते हैं कि यात्री को पहचाने बिना भी सारा लेन-देन पीढ़ियों से चले आ रहे आपसी विश्वास पर चलता है.’
इस बारे में एक घटना उल्लेखनीय है. बदरीनाथ के पास 7 साल पहले एक बस दुर्घटना हुई थी. बस में सवार यात्री पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे जिनकी आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी. इन गरीब यात्रियों को सबसे पहले मिलने उनका पंडा ही आया. पंडे को देखते ही यात्रियों में जान आ गई. हालांकि पंडे की भी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी इसलिए उसने उधार लेकर 30,000 रुपए का बंदोबस्त किया और पहले बदरीनाथ अस्पताल में भर्ती घायलों को रजाइयां भेजीं. इसके बाद वह बदरीनाथ से सबसे नजदीक स्थित कस्बे जोशीमठ पहुंचा जहां कुछ और घायल भर्ती थे. फिर वह पंडा एक और कस्बे गोपेश्वर पहुंचा जहां गंभीर रूप से घायल यात्री भर्ती थे और जहां दुर्घटना में मरे यात्रियों का पोस्टमार्टम भी होना था. यात्रियों के परिजनों के आने तक पंडा अन्तिम संस्कार की तैयारी भी कर चुका था. बदरीनाथ के तत्कालीन थाना प्रभारी दिनेश बौंठियाल इस घटना की पुष्टि करते हैं.
दुर्गम हिमालय की यात्रा में अपनेपन का अहसास, तन -मन-धन से सेवा और धार्मिक कार्यों को संपन्न कराने का काम कोई भी ट्रैवल एजेंसी नहीं कर सकती इसीलिए किसी भी माध्यम से बदरी-केदार आने वाला यात्री यहां आकर अपने पंडे से जरूर मिलता है. श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के पूर्व मुख्य कार्याधिकारी जगत सिंह बिष्ट कहते हैं, ‘यात्रा को बढ़ावा देने में तीर्थपुरोहितों का सबसे बड़ा योगदान है. परंपरा से बने विश्वास के कारण यात्री बेहिचक अपने तीर्थपुरोहितों की बात पर विश्वास कर नि:संकोच यात्रा करने आते हैं.’
तीर्थपुरोहितों के उपनाम भी उनके यजमानी के क्षेत्रों के नाम से हो जाते हैं. जैसे इलाहाबाद के आस-पास के क्षेत्र के पंडे प्रयागवाल, कंुमायूं के पंडे कूर्मांचली, नेपाल राजपरिवार के पंडे लालमुह्रया और मेरठ के पंडे मेरठवाल के नाम से जाने जाते हैं. देश भर में घूमने वाले पंडे अपने यजमानों के क्षेत्र की भाषा, संस्कृति, खान-पान और रीति-रिवाजों को उस क्षेत्र के निवासियों से अधिक जानते हैं. देवप्रयाग संस्कृत महाविद्यालय के आचार्य शैलेंद्र कोटियाल ‘शास्त्री’ बताते हैं, ‘तीर्थपुरोहितों के गांवों में मिनी भारत बसता है. इन गांवों में भारत की सभी भाषाओं के जानकार मिल जाते हैं.’
शास्त्री आगे बताते हैं कि तीर्थपुरोहित उत्तराखंड जैसे दुर्गम क्षेत्र में पूरे भारत की संस्कृति लाए और सदियों के इस सांस्कृतिक आदान-प्रदान से पहाड़ के दुर्गम इलाकों मंे आर्थिकी का संचार होने के साथ-साथ शिक्षा का प्रसार भी हुआ. वे कहते हैं, ‘100 साल पहले देवप्रयाग मे मुकुंद दैवज्ञ के निर्देशन में संस्कृत व ज्योतिष के संैकड़ों स्तरीय ग्रंथ प्रकाशित हुए. बाद में उनकी परंपरा को उनके शिष्य आचार्य चक्रधर जोशी ने आगे बढ़ाते हुए न केवल प्रकाशन कार्य जारी रखा बल्कि ज्योतिष की तथ्यपरक व वैज्ञानिक जानकारियों के लिए देवप्रयाग में एक वेद्यशाला भी खोली.’ पोस्ती बताते हैं कि केदार के तीर्थपुरोहितों ने भी 200 साल पहले गुप्तकाशी के पास शोणितपुर में संस्कृत पाठशाला खोली जो आज भी शिक्षा के प्रसार में लगी है. देश के अन्य तीर्थों में भले ही तीर्थ पुरोहितों के साथ यात्रियों को कड़वे अनुभव होते हों मगर बदरी-केदार के तीर्थ पुरोहित अपनी कुछ विशिष्टताओं के कारण आज भी अपने यजमानों के दिलों में बसे हैं.