किसी सरकार का एक साल पूरा कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है. ख़ासकर तब, जब वह इसके पहले पांच साल पूरे कर चुकी हो. इसके बावजूद उनकी यूपीए सरकार जिस तरह एक साल का जश्न मना रही है, उससे हैरानी होती है. मनमोहन सिंह को यह मौका इतना बड़ा लगा कि वे पूरे चार साल बाद पत्रकारों से मुखातिब हुए. कह सकते हैं कि यह सारा तामझाम यूपीए की पहली पारी में भी हुआ था- तब भी साल भर पूरे होने पर डिनर हुआ, मेहमान बुलाए गए और सरकार का रिपोर्ट कार्ड जांचा-बाचा गया. लेकिन उसका फिर भी एक तर्क था. कांग्रेस पूरे आठ साल बाद सत्ता में वापसी कर रही थी और यूपीए बिल्कुल नया प्रयोग था- एक-दूसरे को समझने और एक साथ आगे बढ़ने के लिहाज से वह कवायद शायद ज़रूरी थी.
सरकार के मंत्रियों की पूंजी के खेलों में गैरजरूरी दिलचस्पी है. उनकी सारी सक्रियता किसी लॉबी, किसी जोड़तोड़, किसी जुगाड़ में है
लेकिन यूपीए की दूसरी पारी का पहला साल इतना महत्वपूर्ण क्यों है? क्या इसलिए कि अचानक सरकार कई सवालों से घिरी हुई है? क्या इत्तिफाक है कि पिछले कुछ दिनों में एक-एक कर सरकार के कई मंत्रियों पर विवादों का साया पड़ता रहा. अपने बड़बोलेपन के लिए मशहूर विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर को तब जाना पड़ा जब आईपीएल की एक नई टीम खरीदने के सिलसिले में उनकी होने वाली पत्नी का नाम उछला. नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल के ई-मेल से आईपीएल के नफा-नुकसान को लेकर चला एक आकलन शशि थरूर तक पहुंचने की बात आते फिर सरकार की जगहंसाई हुई. उसी दौरान यह भी पता चला कि प्रफुल्ल पटेल की बेटी आईपीएल की हॉस्पिटैलिटी मैनेजर है और पिताजी के मंत्रालय के विमानों के रूट बदलवाती रही है- कम से कम दो बार तो यह बात सामने आ ही गई.
थरूर चले गए और पटेल बच गए- इसके पीछे की यूपीए की राजनीतिक मजबूरी की चर्चा फिलहाल न भी करें तो इस प्रसंग ने यह बताया कि सरकार के मंत्रियों की पूंजी के खेलों में गैरजरूरी दिलचस्पी है. वे बतौर मंत्री क्या कर रहे हैं, यह नहीं पता, लेकिन उनकी सारी सक्रियता किसी लॉबी, किसी जोड़तोड़, किसी जुगाड़ में है. इस जो़ड़तोड़ के और भी चेहरे सामने आने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. सरकार के एक और जिम्मेदार प्रतिनिधि, वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश चीन जाकर बोल आए कि गृह और रक्षा मंत्रालय चीनी कंपनियों को लेकर अतिरिक्त चौकन्नापन दिखाते हैं जो ठीक नहीं है. कहा गया कि इस मामले में उन्हें प्रधानमंत्री की भी फटकार झेलनी पड़ी.
इन सबके बीच स्पेक्ट्रम 2 के घोटाले में ए राजा की संलिप्तता की खबरें उछलीं और यह बात भी सामने आई कि इस मामले में उन्होंने प्रधानमंत्री की भी सलाहों की अनदेखी करते हुए फैसले लिए. हालांकि प्रधानमंत्री ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में ए राजा का बचाव किया, लेकिन इस बचाव पर कितने लोगों को भरोसा होगा, कहना मुश्किल है.मंत्रियों की सक्रियता ही नही, निष्क्रियता भी चर्चा में रही. महंगाई को लेकर कृषि मंत्री शरद पवार की आलोचना होती रही और उन्हें महंगाई मंत्री का नाम भी दिया गया. कभी किसी उम्मीद में वे बताते कि महंगाई चार दिन की मेहमान है और कभी किसी हताशा में कहते कि वे ज्योतिषी नहीं हैं कि इसके ख़त्म होने की भविष्यवाणी कर सकें.
जनता से कटी ऐसी सरकारें पूंजीशाहों के खेल में आसानी से फंस जाती हैं, विवादों में घिरती हैं और अंततः अविश्वसनीय नज़र आने लगती हैं
और इन मंत्रियों की बात छोड़ दें. सरकार के जो सबसे समर्थ और सफल मंत्री बताए जा रहे हैं, वे पी चिदंबरम भी नक्सलवाद के विरुद्ध अपने तथाकथित साझा अभियान में पिट ही रहे हैं. सिर्फ नक्सली पलट कर हमले नहीं रहे हैं, कांग्रेसी नेता भी चिदंबरम की नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं.
तो क्या सरकार वाकई इतनी नाकाम और बिखरी हुई है? आखिर पहले पांच साल जो सरकार सारी आलोचनाओं के बावजूद काफी संभल कर चलती दिखी, उसके कदम क्यों बहक रहे हैं? क्या यह सत्ता में वापसी का अहंकार है जो अब सरकार के सिर चढ़कर बोल रहा है? या एक तरह की लापरवाही है कि अभी तो चुनाव चार साल दूर हैं?
इन सरलीकरणों से हमें इन सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे. दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री ने जो प्रेस कॉन्फ्रेंस की, उसमें इन सरलीकरणों को दूर करने के लिए उन्होंने दूसरे सरलीकरणों का सहारा लिया- नतीजा यह हुआ कि साल भर पूरा होने के बाद की रस्म अदायगी रही हो या रणनीति, प्रधानमंत्री जनता को भरोसे में लेने में और भरोसा दिलाने में नाकाम रहे. नाकामी सिर्फ इस बात की नहीं है कि मंत्री ठीक से काम नहीं कर रहे या सही फैसले नहीं ले रहे. सच तो यह है कि जो मंत्री काम करने निकलता है, वह अपने सामने समस्याओं का एक विराट जंगल पाता है. इस सरकार के सबसे सक्रिय मंत्रियों में एक, मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में सुधार और रद्दोबदल तक के कई साहसी कदम उठाने की कोशिश की, लेकिन उनका एक-एक कदम बता रहा है कि उनके आगे का रास्ता कितनी चुनौतियों से भरा है. प्राथमिक शिक्षा की जड़ता और उच्च शिक्षा की अराजकता- दोनों इतनी व्यापक है कि उनसे पार पाना आसान नहीं.
यही बात पी चिदंबरम के बारे में कही जा सकती है. वे एक लुंजपुंज व्यवस्था लेकर नक्सलवाद से लेकर आतंकवाद तक से लड़ने निकले हैं. वे नक्सलवाद का सामना करने के लिए विकास का सहारा लें या बंदूक का, उनके पास एक जंग खाई व्यवस्था है जो न विकास कर सकती है न बंदूक चला सकती है. मंत्री के दबाव से जब यह व्यवस्था काम करने निकलती है तो विकास के नाम पर लोगों को उजाड़ती है और नक्सलवादियों की जगह आम लोगों को निशाना बनाती है. फिर रास्ता क्या हो? क्या इस लुंजपुंज व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता? इसी सवाल पर मनमोहन सिंह कुछ निराश करते हैं. वे अपनी पूरी बुनावट में एक सज्जन अफसरशाह से ज्यादा कुछ नहीं लगते. वे आंकड़ों की बात करते हैं, व्यवस्था की बात करते हैं, वे नए सपनों की, नए साहस की, नई उड़ानों की कल्पना करते नेता नजर नहीं आते. यह चीज उन्हें एक कमजोर प्रधानमंत्री में बदलती है और प्रधानमंत्री बनने की उनकी किस्मत पर रश्क करने वाले दूसरे कांग्रेसी नेताओं को यह कहने का मौका देती है कि असली प्रधानमंत्री तो सोनिया गांधी हैं और भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी.
ये सारी बीमारियां यूपीए की पहली पारी में भी रही होंगी. लेकिन तब वे इतनी सार्वजनिक क्यों नहीं हुईं? इसकी एक वजह यह है कि वाकई तब सरकार ने यथास्थिति को तोड़ने और बदलने वाले कुछ बड़े फैसले किए. कम से कम महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना- जिसे हमारी कल्पनाहीन अनुवाद बुद्धि नरेगा या मरेगा जैसी बेजान संज्ञा देती है- और सूचना का हक- जिसे आरटीआई कहने का फैशन है- दो ऐसे बड़े फैसले थे जिनकी वजह से कुछ प्रशासनिक उनींदापन भी टूटा और कुछ निचले स्तरों पर रोज़गार की हलचलें भी हुईं. दरअसल, तब एनडीए के फील गुड के गुब्बारे को फूटे ज्यादा वक्त नहीं हुआ था और सरकार सावधान थी. वित्त मंत्री के तौर पर पी चिदंबरम ने किसानों के 60,000 करोड़ रुपए के कर्ज माफ करने का एलान किया था. साफ है कि सरकार जब जनता के पास जाती है तो जनता भी सरकार के साथ आती है.
पिछली बार शायद सरकार के साथ लेफ्ट फ्रंट की हिस्सेदारी भी उसे जनता की तरफ बार-बार जाने को मजबूर करती थी. लेकिन यूपीए की पहली और दूसरी पारी का सबसे बड़ा फर्क यही है कि सरकार जनता की तरफ नहीं देख रही. उसके वर्गीय पूर्वाग्रह बेहद साफ नजर आ रहे हैं. शिक्षा का अधिकार पारित हो गया है, लेकिन उसके क्रियान्वयन पर कोई जोर नहीं है. सूचना के अधिकार में कटौती की कोशिश चल रही है जो अब तक, शायद सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से रुकी हुई है. महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पारित हुआ तो मनमोहन के मनोबल से नहीं, सोनिया गांधी की जिद से. सामाजिक न्याय, जातिगत जनगणना और आरक्षण जैसे बुनियादी सवालों पर सरकार की दुविधाएं बेहद स्पष्ट हैं. इन सबके बीच नक्सलवाद के समर्थकों का आरोप है कि सरकार आदिवासियों की हितैषी नहीं, पूंजीपतियों की एजेंट है और उन्हीं के लिए वह जंगलों पर कब्जा़ करने और आदिवासियों को उजाड़ने में लगी है. जाहिर है, जनता से कटी ऐसी सरकारें पूंजीशाहों के खेल में आसानी से फंस जाती हैं, विवादों में घिरती हैं और अंततः अविश्वसनीय नज़र आने लगती हैं. यूपीए का अगर यह हाल हुआ नहीं है तो जल्दी ही हो सकता है. आखिर अपनी ईमानदारी के लिए विख्यात मनमोहन सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की तो वे बताते कम, छुपाते ज्यादा दिखे. और उनसे सीधे-सीधे पूछ लिया गया कि वे राहुल गांधी के लिए पद छोड़ेंगे या नहीं. दरअसल, कहीं न कहीं यह लगने लगा है कि कांग्रेस भी अपने इस दफ्तरशाह प्रधानमंत्री से ऊबी हुई है और उस नेता का इंतज़ार कर रही है जो उत्तर प्रदेश और हरियाणा की दलित और पिछड़ी बस्तियों में अपने दिन-रात लगा रहा है कि इस देश को और उसके लोगों को बेहतर ढंग से समझ सके. निश्चय ही राहुल गांधी ने पिछले पांच-सात साल से जिस तरह लोगों के बीच जाना शुरू किया है, उससे लगता है कि वे अपने-आप को नेता के तौर पर किसी भी दूसरे कांग्रेसी के मुकाबले कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से तैयार कर रहे हैं. लेकिन वे भविष्य के नेता भले हों, वर्तमान का रास्ता तो मनमोहन सिंह और उनकी सरकार को ही बनाना है. मनमोहन सिंह ने कहा कि बहुत-से काम अधूरे हैं. उन्हें यह एहसास भी होना चाहिए कि ये तभी पूरे हो सकते हैं जब उनकी सरकार जनता के ज्यादा करीब जाएगी, अफसरों और एजेंसियों पर कम भरोसा करेगी.