दुनिया की साझी धरोहर

चमोली जिले के सलूड़ गांव में आधे से ज्यादा घरों की छतों पर आपको डिश एंटीना लगे दिख जाएंगे. ये इस बात की चुगली करते लगते हैं कि उत्तराखंड के इस सुदूर क्षेत्र में भी मनोरंजन का नाम बंद दरवाजों के पीछे टीवी देखना हो गया है. मगर अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में यहां होने वाले एक उत्सव और उसमें जुटी भीड़ देखकर यह बात पूरी तरह से मानने का मन नहीं होता. रम्माण नाम के इस आयोजन को पिछले ही साल यूनेस्को ने अमूर्त कलाओं की श्रेणी में  ‘विश्व की सांस्कृतिक धरोहर’ घोषित किया है.

रम्माण के दौरान होने वाले मुखौटा नृत्य के कथानकों में पहले के पशुचारक समाज की पर्यावरणीय चिंताएं तथा सामाजिक सरोकार भी झलकते हैंदरअसल, जोशीमठ तहसील के कुछ गांवों में रामायण गायन, मंचन और मुखौटा नृत्यों की अनूठी लोक उत्सव परंपरा है. रम्माण शब्द रामायण का ही अपभ्रंश है जिसका गायन गढ़वाली भाषा में होता है. यह एक धार्मिक उत्सव है जिसका आयोजन जोशीमठ के सलूड़-डुंग्रा,डंुग्री-भरोसी व सेलंग गांवों में किया जाता है. सलूड़ में क्षेत्र की रक्षा करने वाले देवता-भूमि क्षेत्रपाल या भूमियाल की हर साल अप्रैल (वैशाख) के महीने पूजा होती है. यह पूजा नौ से लेकर तेरह दिनों तक चलती है. इस मौके पर गांव के लोग धियाणियों (ब्याही हुई बहन-बेटियों) तथा रिश्तेदारों को बुलाते हैं. इस पूजा कार्यक्रम के दूसरे दिन विसुखा के मेले के साथ हर दिन होने वाला मुखौटा नृत्य तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं.

मुखौटा नृत्यों के कथानकों में निरंकार (जलंकार) से पृथ्वी की उत्पत्ति जैसे गूढ़ विषय भी नृत्य और स्थानीय गायन से साधारण ढंग से समझाए जाते हैं. पौराणिक विषयों पर आधारित अन्य नृत्यों में ईश्वर के अवतार, गणेश-कालिका नृत्य, स्वर्ण-मृग नृत्य, नृसिंह नृत्य आदि होते हैं. हर दिन इन कार्यक्रमों में नयापन लाने के लिए स्थानीय दंत कथाओं और लोक कथाओं पर आधारित मुखौटा नृत्य भी होते हैं. इन नृत्यों में नारद का स्थानीय रुप बुढदेवा हास्य-प्रहसनों के द्वारा दर्शकों का खूब मनोरंजन करता है. सारे शरीर पर कंटीली घास चिपकाकर जब बुढदेवा दर्शकों की भीड़ के बीच घुसता है तो एक हलचल-सी पैदा हो जाती है.

मुखौटा नृत्य के कथानकों में पहले के पशुचारक समाज की पर्यावरणीय चिंताएं तथा सामाजिक सरोकार भी झलकते हैं. इन नृत्यों में 20-22 मुखौटे (पत्तर) प्रयोग में लाए जाते हैं. इनमें से सबसे बड़ा पत्तर नृसिंह का है जिसका वजन लगभग 20 किलो होता है. भूमियाल पूजा के आखिर में सारे दिन रम्माण का गायन और मंचन होता है. यानी राम-जन्म से लेकर राजतिलक तक की घटनाओं का. रम्माण शैली में पात्रों के बीच संवादों का आदान-प्रदान नहीं होता, बल्कि जागरी (रामायण गायन करने वाला) रामायण गायन करता है और पात्र इस पर नृत्य या अभिनय करते हैं.

गढ़वाल विश्वविद्यालय के ‘लोक-कला और संस्कृति निष्पादन केंद्र’ के विभागाध्यक्ष प्रो डीआर पुराहित बताते हैं, ‘मुखौटा नत्य की परंपरा आदि शंकराचार्य के समय से शुरू हुई थी.’ पुरोहित वर्ष 1990 से रम्माण में सम्मिलित हो रहे हैं. आगे बताते हुए वे कहते हैं कि पहले बदरीनाथ यात्रा शुरू होने से पहले चैत्र के महिने जोशीमठ के नृसिंह मंदिर में एक सप्ताह का मेला लगता था. इस मेले में यात्रियों के मनोरंजन के लिए मुखौटा नृत्य और रम्माण गायन होता था. जोशीमठ से शुरू होकर यह नृत्य आसपास के सारे गांवों में फैल गया. परंतु अब केवल तीन गांवों में ही मुखौटा नृत्य होते हैं. जोशीमठ में भी यह नृत्य नहीं होता.

सलूड़-डुंग्रा के निवासी डॉ कुशल सिंह भण्डारी बताते हैं कि ये धार्मिक आयोजन सदियों से होते आए हैं. उनके गांव में रम्माण आयोजन के 100 साल पुराने लिखित दस्तावेज उपलब्ध हैं. उनका कहना है कि उससे पहले गांव में कोई भी साक्षर नहीं था. वर्ष 2008 में इंदिरा गांधी  राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली में रामकथा गायन-वाचन व मंचन सम्मेलन का आयोजन हुआ, इसमें सलूड़ की रम्माण को भी गायन और मंचन के लिए बुलावा आया. इस आयोजन से रम्माण राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय राम-कथा समीक्षकों के सामने आई. अमेरिकी रामकथा विद्वान पाॅल रिचर्मिन इस शैली से अभिभूत थीं. इदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने सलूड़ आकर मेले का अभिलेखीकरण किया. डॉ भण्डारी बताते हैं, ‘रिचर्मिन की प्रेरणा से रम्माण के अभिलेखों को यूनेस्को भेजा गया. यूनेस्को ने रम्माण के पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इसे वर्ष 2009 में अमूर्त कलाओं की श्रेणी में विश्व सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया.’

रम्माण में प्रयोग किए जाने वाले पत्तर भोज पत्र नामक पेड़ की लकड़ी से बनाए जाते हैं. डॉ भंडारी बताते हैं, ‘पहले के पत्तर अधिक जीवंत थे लेकिन 2002-2003 में वे सारे चोरी हो गए. चोरों ने सलूड़-डुंग्रा के अलावा बड़गांव, लाता, सेलंग आदि गांवों के सारे पुराने मुखौटे गायब कर दिए.’ सुखद बात यह है कि इसके बावजूद रम्माण के प्रति लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ है. सलूड़ निवासी शरत सिंह रावत बताते हैं कि गांव की इस परपरा को वे पहले से ही दिल लगाकर निभाते थे अब अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलने के बाद इससे जुड़ाव में और भी गौरव होता है.