आतंकवाद को लेकर जो स्टीरियोटाइप और सुविधाजनक सोच विकसित की जाती है, वह बार-बार गलत साबित होती है
जिस समय भारतीय मीडिया में कसाब की सज़ा को लेकर सनसनी का माहौल बना हुआ था, लगभग उसी समय न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वेयर पर बम से लदी एक गाड़ी मिली जिससे धुआं निकल रहा था. गाड़ी में बहुत आम इस्तेमाल की चीज़ों के सहारे एक ऐसा बम जोड़ा गया था जो फटता तो काफ़ी ख़तरनाक होता. यह 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हुए आतंकी हमले जितना विनाशकारी नहीं होता, लेकिन अपने मनोवैज्ञानिक असर में उतना ही घातक होता. निश्चय ही न्यूयॉर्क पुलिस अपनी पीठ थपथपा सकती है कि उसने वक्त रहते एक आतंकी साज़िश नाकाम कर यह ख़तरा टाल दिया. इतना ही नहीं, सक्रियता दिखाते हुए उसने इस साज़िश के संदिग्ध आरोपी फ़ैसल शहज़ाद को दुबई फ़रार होने से पहले विमान से उतारकर गिरफ्तार करने में कामयाबी हासिल की. इस सक्रियता से चाहें तो हमारी एजेंसियां भी सबक सीख सकती हैं.
लेकिन सीखने लायक सबक इसमें अमेरिका के लिए भी हैं. फ़ैसल शहजाद अमेरिका बम रखने नहीं आया था. वह नब्बे के दशक में पहली बार स्टुडेंट वीजा लेकर अमेरिका पहुंचा था. वहीं उसने एमबीए तक पढ़ाई की. एक निजी कंपनी में ठीक-ठाक नौकरी करने लगा. उसकी शादी भी एक पढ़ी-लिखी लड़की से हुई.उसकी बीवी हूमा खान कोलोरैडो विश्वविद्यालय से विज्ञान की स्नातक है और ऑरकुट नाम की सोशल नेटवर्किंग साइट में ख़ुद को गैरराजनीतिक बताती है. उनके दो बच्चे भी हैं. इस परिवार ने 2004 में कनेक्टिकट में एक छोटा- सा घर भी खरीदा. पाकिस्तानी वायुसेना के एक अफसर के इस बेटे ने अमेरिकी नागरिकता तक हासिल कर ली. यह ऐसी खुशहाल ज़िंदगी थी जिस पर आम हिंदुस्तानी या पाकिस्तानी को रश्क हो सकता है.
सवाल यहीं से पैदा होता है. फिर ऐसा क्या हुआ कि इस खाते-पीते परिवार के पढ़े-लिखे नौजवान ने अचानक एमबीए की पढ़ाई के बाद पाक-अफगान सीमा पर दहशत की ट्रेनिंग ली और अमेरिका लौटकर उस एक प्रसिद्ध चौराहे पर बम से लदी गाड़ी रखने के बाद पकड़ा गया?
क्या पाकिस्तान की मिट्टी में ऐसा कुछ है कि वह अपने नौजवानों को आतंकवादी बना डालती है? कम से कम इसी आशय की एक ख़बर वाशिंगटन टाइम्स में एक पत्रकार ने दी. उसने बताया कि पाकिस्तान के 11,000 मदरसों से सालाना 5 लाख छात्र निकलते हैं जिनमें से करीब 2 फीसदी- यानी 10,000 के करीब जेहादी हो जाते हैं. यानी पाकिस्तान जेहादी पैदा करने का वह कारखाना है जिससे दुनिया को डरना चाहिए. इससे मिलती-जुलती कुछ और ख़बरें बताती हैं कि पाकिस्तान में किस तरह आतंकवादी शिविर चल रहे हैं और कैसे यह देश एक रोग- यानी- दुष्ट देश में बदल चुका है जो पूरी दुनिया के लिए ख़तरा है.
फिलहाल इस ख़बर और प्रचार में कितना सच और कितना झूठ है, इस सवाल को यहीं छोड़कर फैसल शहजाद पर लौटें. वाशिंगटन टाइम्स की रिपोर्ट जिन 11,000 मदरसों का उल्लेख करती है, उनमें फैसल शहज़ाद की पढ़ाई नहीं हुई. यानी वह उन 10,000 जेहादियों में नहीं है जो उन मदरसों में तैयार हो रहे हैं. उसने शायद अपने लिए ऐसे जीवन की कल्पना भी नहीं की होगी. फिर फैसल शहज़ाद को किसने बनाया? पाकिस्तान के मदरसों ने या अमेरिका के स्कूलों ने?
भारत के लिए ज्यादा अहम यह समझना है कि आतंकवाद सिर्फ किसी एक मुल्क की साज़िश या किसी एक कौम की सोच से नहीं पनपता
अमेरिका इस सवाल से मुंह चुराता है. वह यह बताना नहीं चाहता कि आतंकवाद का बीज सिर्फ पाकिस्तान की मिट्टी से नहीं, अमेरिका की हवा से भी पोषण पाता है. फैसल शहज़ाद से पहले जिस डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गिलानी को शिकागो की पुलिस ने गिरफ्तार किया, उसने भी किसी मदरसे में पढ़ाई नहीं की थी. मुंबई में हेडली के साथ अपने बेटे राहुल भट्ट के संपर्कों का बचाव करते हुए फिल्मकार महेश भट्ट ने ठीक ही कहा था कि डेविड हेडली के आतंकवादी होने की कल्पना कोई कर ही नहीं सकता था. जब हेडली ने शिकागो की अदालत में वादामाफ गवाह बनकर बताया कि उसका नाता किन-किन मुल्कों में चल रही साज़िशों से है तो लोग हैरान रह गए. यह मान लें कि हेडली एक टूटे हुए परिवार का भटका हुआ बच्चा था जो पाकिस्तानी पिता और अमेरिकी मां के तनाव में, पाकिस्तान के अकेलेपन और अमेरिका की अजनबीयत के बीच पहले ड्रग्स और फिर आतंकवाद के जाल में चला गया. लेकिन हाल के दिनों में ऐसे पढ़े-लिखे नौजवान आखिर क्यों आतंकवादी बन रहे हैं जिन्होंने अपने लिए करिअर के कहीं बेहतर विकल्प चुन रखे थे?
फ़ैसल शहजाद का वाकया एक और शख्स की याद दिलाता है. करीब दो साल पहले बेंगलुरु का एक नौजवान मोहम्मद कफ़ील ग्लासगो के एयरपोर्ट पर एक जलती हुई जीप लेकर दाखिल हो गया. उस दिन भी एक बड़ा हमला टला. बुरी तरह झुलसे कफील की आखिरकार अस्पताल में मौत हो गई. कफ़ील तो पाकिस्तानी भी नहीं था.वह हिंदुस्तान से ब्रिटेन गया था और किसी रिसर्च पर काम कर रहा था. कफ़ील के हिस्से की कुछ सज़ा उसके दूर के मित्र या रिश्तेदार डॉ हनीफ ने काटी जिन्हें ऑस्ट्रेलिया में गिरफ़्तार कर लिया गया. अपनी इस चूक पर बाद में ऑस्ट्रेलियाई सरकार को माफी मांगनी पड़ी.
दरअसल, इन सारी मिसालों को याद करने का मतलब सिर्फ यह बताना है कि आतंकवादी वैसे नहीं होते, जैसी हमारी व्यवस्था मानकर चलती है और अक्सर उन पोशाकों और पृष्ठभूमि में नहीं मिलते, जिनमें उनके मिलने की उम्मीद की जाती है. आतंकवाद को लेकर जो स्टीरियोटाइप और सुविधाजनक सोच विकसित की जाती है, वह बार-बार गलत साबित होती है. इसके नतीजे अलग-अलग तबकों को भुगतने पड़ते हैं. अस्सी के दशक में भारत में हर सिख आतंकवादी की तरह देखा जाने लगा था और आज किसी भी मुसलमान को आतंकवादी करार दिया जा सकता है.
ठीक है कि कसाब, शहजाद और सिद्दीक़ी या ऐसे और भी लड़के मुसलमान हैं और यह भी मुमकिन है कि उनके पीछे खुद को जेहादी बताने वाले कुछ संगठनों की सक्रियता भी रही हो, लेकिन आतंकवाद को इस सपाट चश्मे से देखने का एक नतीजा तो यह होता है कि हम आतंकवादी को खोज निकालते हैं और आतंकवाद की वजहों को समझने में चूक जाते हैं. लेकिन आतंकवादी की यह तलाश भी कई बार गलत साबित होती है और नए आतंकवादी पैदा करने का जरिया बन जाती है.
आतंकवाद की इस सांप्रदायिक शिनाख्त का असर समझना हो तो मालेगांव, अजमेर और हैदराबाद के आतंकी हमलों को देखना चाहिए. अब यह बात खुल रही है कि इन हमलों के पीछे हूजी या किसी और मुस्लिम संगठन का नहीं, भगवा विचारधारा का हाथ था. लेकिन यह सच सामने आने से पहले न जाने कितने लोग सिर्फ इसलिए पूछताछ में पकड़े गए कि वे मुसलमान थे. आतंकवाद की ऐसी सांप्रदायिक पहचानें कितने ख़तरनाक नतीजे पैदा कर सकती हैं, यह गुजरात में सोहराबुद्दीन और इशरत जहां जैसे लोगों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या बताती है. इन दोनों की हत्या के बाद पुलिसवालों ने यही आरोप लगाया कि ये नरेंद्र मोदी को मारने की साज़िश कर रहे थे. शुक्र है कि भारतीय न्याय व्यवस्था अभी इतनी सांप्रदायिक नहीं हो गई है कि वह तथ्यों से आंख मूंद ले. सोहराबुद्दीन मामले में चल रही जांच का एक नतीजा यह है कि कम से कम 5 आईपीएएस अफसरों सहित करीब डेढ़ दर्जन पुलिसवाले इस मामले में सलाखों के पीछे किए जा चुके हैं. काश कि यह इंसाफ़ बाकी मामलों में भी होता. लेकिन अभी वह दूर है, क्योंकि सोहराबुद्दीन के मामले में इंसाफ के साथ पहले हुए खिलवाड़ को देखने के बावजूद हम आतंकवाद को सांप्रदायिक या राष्ट्रवादी चश्मे से बाहर जाकर देखने को तैयार नहीं हैं. बताया जा रहा है कि कसाब की फांसी पाकिस्तान और वहां से चलने वाले आतंकवादी संगठनों के लिए एक सबक होगी. लेकिन कसाब तो अपने नौ साथियों के लिए मरने ही चला था- उसे फांसी होगी तो राहत की सबसे पहली सांस पाकिस्तान लेगा, क्योंकि कसाब के साथ पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा करने वाला आतंकवाद का जीता-जागता सबूत भी ख़त्म हो जाएगा.पाकिस्तान आतंकियों को जिंदा रहने के लिए भारत नहीं भेजता, मरने और मारने के लिए भेजता है.
कसाब को देर-सबेर फांसी हो जाएगी, लेकिन भारत के लिए ज्यादा अहम यह समझना है कि आतंकवाद सिर्फ किसी एक मुल्क की साज़िश या किसी एक कौम की सोच से नहीं पनपता. वह जिन रसायनों से तैयार होता है, वे हमारी अपनी सामाजिक-राजनीतिक प्रयोगशालाओं में बन रहे हैं. अमेरिका अपनी चौकसी से अपने ख़िलाफ़ हुई साज़िशों को नाकाम कर ले रहा है, लेकिन 9/11 का प्रेत जैसे अब भी उसका पीछा कर रहा है. हमारे तो अपने कई 9/11 हैं जिनकी अमेरिका ने कभी परवाह नहीं की. अमेरिका अपनी राजनीति और सुविधा के हिसाब से आतंकवाद की परिभाषा तय कर रहा है, उसके विरुद्ध युद्ध लड़ रहा है. हमें भी अपने ढंग से अपने यहां पनप रहे उस असंतोष को समझना होगा जो आतंकी साज़िश का हथियार भी बन जाता है. जब तक हमारी सामाजिक-राजनीतिक प्रयोगशालाएं गैरबराबरी और नाइंसाफ़ी के मेल से तैयार होनेवाला असंतोष का यह रसायन तैयार करती रहेंगी, तब तक कई तरह की हिंसा हमारे ऊपर मंडराती रहेगी- हम इसे आतंकवाद का नाम दे लें या कुछ और कह लें. फैसल की मिसाल देने और कसाब को फांसी दिला देने भर से न आतंकवाद समझ में आएगा और न ही आतंकवादी ख़त्म हो जाएंगे.