एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ में समाचार चैनल रिपोर्टिंग के बहुत बुनियादी नियमों और उसूलों की भी परवाह नहीं करते
समाचार चैनलों में अपराध की खबरों को लेकर एक अतिरिक्त उत्साह दिखाई पड़ता है. लेकिन अपराध की खबर शहरी-मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से हो और उसमें सामाजिक रिश्तों और भावनाओं का एक एंगल भी हो तो चैनलों की दिलचस्पी देखते ही बनती है. ऐसी खबरों में अतिरिक्त दिलचस्पी में कोई बुराई नहीं बशर्ते रिपोर्ट करते हुए पत्रकारिता और रिपोर्टिंग के बुनियादी उसूलों और नियमों का ईमानदारी से पालन हो.
लेकिन दिक्कत तब शुरू होती है जब चैनल ऐसी खबरों को ना सिर्फ अतिरिक्त रूप से सनसनीखेज बनाकर बल्कि खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हैं. यही नहीं, एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ में वे रिपोर्टिंग के बहुत बुनियादी नियमों और उसूलों की भी परवाह नहीं करते. इस प्रक्रिया में उनके अपराध संवाददाता पुलिस के प्रवक्ता बन जाते हैं. वे ऐसी-ऐसी बेसिर-पैर की कहानियां गढ़ने लगते हैं कि तथ्य और गल्प के बीच का भेद मिट जाता है.
ताजा मामला दिल्ली की युवा पत्रकार निरुपमा पाठक की मौत का है. निरुपमा अपने सहपाठी और युवा पत्रकार प्रियभांशु रंजन से प्रेम करती थीं. दोनों शादी करना चाहते थे. लेकिन निरुपमा के घरवालों को यह मंजूर नहीं था. निरुपमा की 29 अप्रैल को अपने गृहनगर तिलैया (झारखंड) में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी जो बाद में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ‘हत्या’ निकली. इसे स्वाभाविक तौर पर ‘आनर किलिंग’ का मामला माना गया जिसने निरुपमा के सहपाठियों, सहकर्मियों, शिक्षकों के अलावा बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और महिला-छात्र संगठनों को आंदोलित कर दिया (इनमें यह लेखक भी शामिल है).
स्वाभाविक तौर पर अधिकांश चैनलों ने निरुपमा मामले को जोर-शोर से उठाया. हालांकि अधिकांश चैनलों की नींद निरुपमा की मौत के चार दिन बाद तब खुली जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हत्या की बात सामने आने के बाद एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस ने इसे प्रमुखता से उठाया. असल में, चैनलों के साथ एक अजीब बात यह भी है कि जब तक किसी खबर को दिल्ली का कोई बड़ा अंग्रेजी अखबार उसके पूरे पर्सपेक्टिव के साथ अपने पहले पन्ने की स्टोरी नहीं बनाता, चैनल आम तौर पर उस खबर को छूते नहीं हैं या आम रूटीन की खबर की तरह ट्रीट करते हैं. लेकिन जैसे ही वह खबर इन अंग्रेजी अख़बारों के पहले पन्ने पर आ जाती है, चैनल बिलकुल हाइपर हो जाते हैं. चैनलों में एक और प्रवृत्ति यह है कि अधिकांश चैनल किसी खबर को पूरा महत्व तब देते हैं जब कोई बड़ा और टीआरपी की दौड़ में आगे चैनल उसे उछालने लग जाता है.
निरुपमा के मामले में भी यह भेड़चाल साफ दिखी. पहले तो चैनलों ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट, निरुपमा के पिता की चिट्ठी, निरुपमा के एसएमएस और प्रियभांशु के बयानों के आधार पर इसे ‘ऑनर किलिंग’ के मामले की तरह उठाया लेकिन जल्दी ही कई चैनलों के संपादकों/रिपोर्टरों की नैतिकता और कई तरह की भावनाएं जोर मारने लगीं. खासकर प्रियभांशु के खिलाफ स्थानीय कोर्ट के निर्देश और पुलिस की ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग ने इन्हें खुलकर खेलने और कहानियां गढ़ने का मौका दे दिया. अपराध संवाददाताओं को और क्या चाहिए था? पूरी एकनिष्ठता के साथ वे प्रियभांशु के खिलाफ पुलिस द्वारा प्रचारित आधे-अधूरे तथ्यों और गढ़ी हुई कहानियों को बिना क्रॉस चेक किए तथ्य की तरह पेश करने लगे.
दरअसल, अपराध संवाददाताओं का यह ‘अपराध’ नया नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर चैनलों और अखबारों में क्राइम रिपोर्टिंग पूरी तरह से पुलिस के हाथों का खिलौना बन गई है. सबसे आपत्तिजनक यह है कि अधिकांश क्राइम रिपोर्टर पुलिस से मिली जानकारियों को बिना पुलिस का हवाला दिए अपनी एक्सक्लूसिव खबर की तरह पेश करते हैं.
यह ठीक है कि क्राइम रिपोर्टिंग में पुलिस एक महत्वपूर्ण स्रोत है लेकिन उसी पर पूरी तरह से निर्भर हो जाने का मतलब है अपनी स्वतंत्रता पुलिस के पास गिरवी रख देना. दूसरे, यह पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत यानी हर खबर की कई स्रोतों से पुष्टि या क्रॉस चेकिंग का भी उल्लंघन है. आश्चर्य नहीं कि इस तरह की गल्प रिपोर्टिंग के कारण पुलिस और मीडिया द्वारा ‘अपराधी’ और ‘आतंकवादी’ घोषित किए गए कई निर्दोष लोग अंततः कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए. लेकिन अपराध रिपोर्टिंग आज भी अपने अनगिनत ‘अपराधों’ से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है.