दोधारी तलवार

जाति आधारित जनगणना गैरज़रूरी भी है और नहीं भी

कई दिनों तक संसद में हुए हो-हल्ले के बाद केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना के लिए तैयार हो गई है. इस तरह की आखिरी मर्दुमशुमारी आज से 80 साल पहले 1931 में हुई थी. उस समय अपेक्षाकृत निचली मानी जाने वाली जातियों के सदस्यों को गलत जानकारी देकर उच्च जातियों में शामिल होने की कोशिश करते देखा गया था. आज से बीस साल पहले तक उत्तर भारत के कुछ राज्यों में भी ऐसा ही होता रहा है. मसलन बढ़ई सरीखी कुछ पिछड़ी जातियां अपने उपनाम के स्थान पर शर्मा लिखकर खुद को ब्राह्मण और जाट, गुर्जर सरीखी जातियां सिंह लिखकर खुद को राजपूत बताने के प्रयास किया करती थीं. 1990 में केंद्रीय नियुक्तियों में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर ओबीसी आरक्षण क्या दिया गया स्थितियों में 180 अंश का बदलाव आ गया. आज गुर्जर राजपूतों की बजाय खुद को अनुसूचित जनजातियों में शुमार कराने की लड़ाई लड़ते देखे जा सकते हैं. ऐसा ही कुछ आगे होने वाली जनगणना में भी देखने को मिल सकता है.

जाति आधारित जनगणना इसलिए भी जरूरी लग सकती है कि अब तक अन्य पिछड़े वर्गों की गणना के जितने भी प्रयास हुए हैं वे एक-दूसरे के आंकड़ों को झुठलाते नज़र आते हैं: कालेलकर आयोग कुछ कहता है तो मंडल आयोग कुछ और. एनएसएसओ कुछ और कहता है तो एनएचएस कुछ और. आशा की जा सकती है कि इस मर्दुमशुमारी के बाद ऐसे हवा हवाई अनुमानों से हमें छुटकारा मिल सकेगा. सही है कि हमारा संविधान जाति की कोई बात ही नहीं करता और करता भी है तो इसे खत्म करने के संदर्भ में लेकिन एक दुखद सच यह भी है कि जाति व्यवस्था हमारे आज की भी उतनी ही बड़ी सच्चाई है जितनी कल की थी. तमाम तरह के आरक्षण और अन्य योजनाओं के लाभ जब इसी असंवैधानिक होते हुए भी संवैधानिक आधार पर दिए जाते हों तो इसे थोड़ा कम विवादित और ज्यादा तर्कसंगत बनाने के प्रयास क्यों न किए जाएं?

मगर यह भी उतना ही सच है कि 1931 और उससे पहले 1901 में जो जाति आधारित जनगणनाएं हुई थीं उनके आंकड़ों में भी ज़मीन-आसमान का फर्क था. ऐसे में बिना किसी ठोस तैयारी के अधबीच में जनगणना में जाति आधारित आंकड़ों को शामिल करने का निर्णय कम खतरों से भरा नहीं है. क्योंकि इस बार के आंकड़े न तो अंग्रेजों के होंगे और न ही नकार सकने लायक किसी अन्य संस्था के! ये सरकार के अपने होंगे.

सुधार, पर अधूरा

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला राज्यपालों को निष्पक्ष होने की आजादी भर देता है

जिस तरह से हमें आजादी मिली थी, जितनी तरह की विविधता हमारे देश में है और जितना विशाल यह है उसे देखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के संघीय ढांचे को एक अनोखा ही स्वरूप दिया था. उन्होंने तब तक की संघीय लोकतंत्र की स्थापित मान्यताओं के उलट केंद्र को ज्यादा  शक्तिशाली बनाया और राज्यों के हाथ में अपेक्षाकृत काफी कम शक्तियां सौंपीं. इसी क्रम में राज्यपाल को नियुक्त करने और हटाने की जिम्मेदारी भी केंद्र सरकार के पाले में डाल दी गई. पिछले कुछ समय के हमारे अनुभव ये बताते हैं कि जिन दो संस्थाओं के दुरुपयोग ने केंद्र की शक्तियों में कई गुना इजाफा करने का कार्य किया है वे हैं सीबीआई और राज्यपाल. फिलहाल सीबीआई के दुरुपयोग की तो कोई काट नजर नहीं आती किंतु  करीब 6 साल बाद आए सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने राज्यपालों के मामले में थोड़ी उम्मीद ज़रूर जगाई है. 2004 में चार राज्यपालों को एकसाथ बर्खास्त कर दिए जाने पर दायर याचिका पर अदालत ने यह व्यवस्था दी है कि बिना किसी समुचित कारण के बस ऐसे ही राज्यपाल को बर्खास्त नहीं किया जा सकता. भले ही अदालत के इस निर्णय से राज्यपालों की – अगर वे चाहें तो – निष्पक्ष रहने की सामर्थ्य को बल मिलता हो लेकिन उनसे संबंधित सुधार तब तक पर्याप्त नहीं हो सकते जब तक उनकी नियुक्तियों की प्रक्रिया में सुधार नहीं लाया जाता. जब तक बिना राज्यों से विचार किए, बूटा सिंह और सिब्ते रजी जैसे लोगों को राजनीतिक सेवानिवृत्ति देने के लिए राज्यपाल बनाया जाता रहेगा उनके दुरुपयोग की आशंकाओं को कैसे खारिज किया जा सकता है.