नेहरू-गांधी परिवार के राजनीतिक रूप से सक्रिय ज्यादातर सदस्यों की कर्मस्थली रहे सुल्तानपुर और रायबरेली में उद्योगों का खुलकर बंद होना और इस प्रक्रिया में लोगों की पहले जमीनें और बाद में रोजगार छिनना एक परिपाटी जैसा बन चुका है. जय प्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश में विकास के मुद्दे पर कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी में कभी शिलान्यास को लेकर रस्साकशी चलती है तो कभी किसी फैक्ट्री की जमीन को लेकर. मगर जहां बसपा में विकास के मायने दलित अस्मिता के प्रतीकों से सुसिज्जत स्मारकों का विकास है वहीं कांग्रेस की विकासवादी राजनीति भी काफी कुछ प्रतीकों पर ही टिकी हुई है.
रायबरेली व सुलतानपुर की सीमा पर स्थित जगदीशपुर औद्योगिक क्षेत्र का शिलान्यास स्वर्गीय संजय गांधी ने दोनों जिलों के विकास के लिए किया था. वर्ष 1984 से वहां बड़े उद्योग-धंधे लगने शुरू तो हुए मगर अधिक समय तक टिक नहीं सके. देखते ही देखते एक-एक कर यहां की कुल 127 में से 74 इकाइयों ने अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है देश का सबसे प्रभावशाली लोकसभा क्षेत्र और गांधी परिवार की कर्मस्थली अमेठी. यहां पिछले तीन सालों में हजारों करोड़ों की परियोजनाओं के शिलान्यास गांधी परिवार और उनकी सरकार द्वारा किए जा चुके हैं. पर इनमें से ज्यादातर अभी शुरू तक नहीं हो सकी हैं. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि पिछले 24 सालों में यहां शुरू हुए ज्यादातर बडे़ और कुछ छोटे उद्योग-धंधे एक-एक कर बंद होते चले जा रहे हैं.
लखनऊ-वाराणसी रोड पर राजधानी से करीब 80 किलोमीटर दूर सुलतानपुर जिले की अमेठी लोकसभा का जगदीशपुर औद्योगिक क्षेत्र. रायबरेली व सुलतानपुर की सीमा पर स्थित इस औद्योगिक क्षेत्र का शिलान्यास स्वर्गीय संजय गांधी ने दोनों जिलों के विकास के लिए किया था. वर्ष 1984 से वहां बड़े उद्योग-धंधे लगने शुरू तो हुए मगर अधिक समय तक टिक नहीं सके. देखते ही देखते एक-एक कर यहां की कुल 127 में से 74 इकाइयों ने अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया. आज आलम यह है कि इस क्षेत्र से गुजरने वाले को सड़क के दोनों ओर खंडहर-हाल फैक्ट्रियां और उनके बोर्ड ही नज़र आते हैं.
लखनऊ की दिशा से आने वाले मार्ग से औद्योगिक क्षेत्र में घुसते ही बाएं हाथ पर सबसे पहले बंद पड़ी मालविका स्टील फैक्ट्री से हमारा सामना होता है. वर्ष 1995 में 29 एकड़ में लगी पिग आयरन बनाने की यह फैक्ट्री शुरू होने के केवल तीन साल में ही बंद हो गई. इसका नतीजा यह रहा कि 1,700 कर्मचारियों के घरों में जलने वाले चूल्हों की आग एकाएक ही मंद पड़कर बुझने के कगार पर जा पहुंची. कर्मचारियों में सबसे अधिक संख्या स्थानीय कामगारों की थी. पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव से पूर्व मालविका को स्टील अथॉरिटी आफ इंडिया ने खरीद लिया. इससे जुड़े समारोह में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव व अमेठी के सांसद राहुल गांधी, पेट्रोलियम मंत्री जितिन प्रसाद सहित कई केंद्रीय मंत्री शामिल हुए थे. अब एक साल से ज्यादा समय हो चुका है मगर इससे आगे कुछ नहीं हो सका है.
मालविका से कुछ दूर आगे जाने पर सड़क के किनारे पड़ा आरिफ सीमेंट फैक्ट्री का जंग खाया बोर्ड और चारों तरफ पसरा सन्नाटा यह बताने के लिए काफी हैं कि यह फैक्ट्री अब बंद हो चुकी है. 1986 में लगी आरिफ सीमेंट फैक्ट्री दस साल तक जैसे-तैसे चलने के बाद 1996 में बंद हो गई. बंद फैक्ट्री की देखभाल करने वाले जीके श्रीवास्तव बताते हैं कि कर्मचारियों की यूनियन इसे ले डूबी. स्थानीय लोगों की जरूरतों को देखते हुए कंपनी प्रबंधन ने ज्यादातर उन्हें ही काम पर रखा था. पहले तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन जैसे-जैसे उत्पादन बढ़ा कर्मचारी संघ ने अपनी मांगों को भी बढ़ाना शुरू कर दिया. श्रीवास्तव के मुताबिक जिस समय फक्ट्री बंद हुई थी उस समय इसमें 100 टन प्रतिदिन तक उत्पादन हुआ करता था.
औद्योगिक क्षेत्र में ही एग्रो के नाम से अगल-बगल में ही कागज बनाने की तीन फैक्ट्रियां हुआ करती थीं. बंद फैक्ट्री की जंग लगी मशीनें और चारों ओर उग आई झाड़ियां उनका हाल बताने के लिए पर्याप्त हैं. इन फैक्ट्रियों के बंद होने के पीछे वहां के कर्मचारी एम जार्ज का तर्क अलग है. वे बताते हैं कि उनके यहां कागज बनता था, लेकिन चाइना का कागज आने के बाद बाजार में स्थानीय कागज की मांग कम होने लगी और मिल बंद हो गई. तीनों एग्रो कारखानों में कुल मिलाकर 400 से अधिक लोग काम किया करते थे जो अब या तो आस-पास के इलाकों में छोटा-मोटा काम करके अपना गुजारा कर रहे हैं या दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों की ओर रुख कर चुके हैं.
एग्रो की ही तर्ज पर शुरू होते ही बंद होने वाले कारखाने यहां बहुतायत में हैं. उदाहरण के तौर पर, कभी 50 से ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाली रैक्सीन उत्पादक कंपनी राक्सी पेट्रोकेम वर्ष 1985 में लगी और दो वर्ष के भीतर 1987 में बंद हो गई. चिप्स बनाने वाली फैक्ट्री गोल्डन क्रिप्सस 1988 में लग कर 1990 में बंद हो गई.
एक स्थानीय कांग्रेसी नेता बताते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के समय जगदीशपुर में एक हाईटेक प्रिंटिंग प्रेस भी लगाया गया था, जहां लॉटरी, बस आदि के टिकट छापने की बात कही गई थी. लेकिन स्थितियां ऐसी बनीं कि जमीन लेकर फैक्ट्री तो लग गई लेकिन वहां काम नहीं हो सका
आलम यह है कि अमेठी लोकसभा क्षेत्र के लोग ही नहीं स्थानीय कांग्रेसी नेता व कार्यकर्ता भी अब विकास के मुद्दे को छलावा बताने लगे हैं. एक स्थानीय कांग्रेसी नेता बताते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के समय जगदीशपुर में एक हाईटेक प्रिंटिंग प्रेस भी लगाया गया था, जहां लॉटरी, बस आदि के टिकट छापने की बात कही गई थी. लेकिन स्थितियां ऐसी बनीं कि जमीन लेकर फैक्ट्री तो लग गई लेकिन वहां काम नहीं हो सका. वे यह भी बताते हैं कि यहां अमेठी टेक्सटाइल्स के नाम से एक धागा बनाने की फैक्ट्री भी उसी समय लगाई गई थी लेकिन वह भी बंद हो गई.
आरिफ सीमेंट प्लांट के ठीक पीछे कभी अवध ऑयल प्रोडक्ट के नाम से एक फैक्ट्री हुआ करती थी, लेकिन अब न तो वहां मशीनें बची हैं और न ही इमारत. फैक्ट्री की समतल जमीन को देख इस बात का अंदाजा तक नहीं होता कि यहां कभी ऐसी फैक्ट्री भी थी जो 20 हजार लीटर तेल का उत्पादन किया करती थी. ऑयल मिल के सामने बंद पड़ी राइस मिल के मालिक राकेश उपाध्याय बताते हैं कि कभी यहां डेढ़ दर्जन कमरे और बीस हजार लीटर क्षमता वाली तेल की तीन टंकियां हुआ करती थीं. लेकिन वर्ष 2005 में मिल अचानक बंद हो गई. 4.65 एकड़ में फैली मिल के बीच में अब सिर्फ बिना मूर्ति और गुंबद वाले एक मंदिर के अवशेष ही बचे हैं. ऑयल और आरिफ प्लांट के बीच में जगदीशपुर सीमेंट फैक्ट्री थी जो महज छह साल ही चल सकी और 1997 में बंद हो गई. अहम बात यह है कि इन फैक्ट्रियों के नाम पर स्थानीय किसानों की कई एकड़ जमीन विकास की बलिवेदी पर तो चढ़ गई लेकिन इसका पूरा जायज लाभ किसानों को नहीं मिल सका.
एक-एक कर फैक्ट्रियों के बंद होने का कारण, स्थानीय उद्यमियों के संगठन उद्योग कल्याण संस्थान के अध्यक्ष राजेश मिश्र, सरकार की उदासीनता मानते है. उनका आरोप है कि चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, दोनों ही उद्योग-धंधों के लिए किसी तरह का सहयोग नहीं कर रही हैं. मिश्र बताते हैं कि जब औद्योगिक क्षेत्र का गठन हुआ था उस समय उद्योगों के लिए उत्तर प्रदेश वित्त निगम से फाइनेंस होता था. सरकार की नीति ऐसी थी कि निगम सिर्फ मशीन लगाने और इमारत का निर्माण करवाने के लिए धन उपलब्ध करवाता था. वे बताते हैं, ‘उद्यमी फैक्ट्री तो किसी तरह लगा लेते थे लेकिन कच्चे माल की खरीद और अन्य जरूरतों के लिए उन्हें धन नहीं मिल पाता था, लिहाजा लगाई गई रकम भी फंस जाती थी और धीरे-धीरे ब्याज चढ़ता जाता था. कुछ समय में ही स्थितियां ऐसी हो जाती थीं कि उद्योगों में ताले लग जाते थे.’ वे आगे बताते हैं कि जिस समय एक के बाद एक उद्योग धंधे जगदीशपुर में लगने शुरू हुए स्थानीय लोगों को ही नहीं आसपास के जिलों के भी बेरोजगारों को खूब काम मिला, जिसके कारण सूरत, दिल्ली, मुंबई, लुधियाना जैसे शहरों की ओर होने वाला पलायन खत्म-सा हो गया था. लेकिन स्थितियां फिर से पहले जैसी हो गई हैं.
इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन की सुलतानपुर इकाई के चेयरमैन शहनवाज बताते हैं कि उद्योग धंधों को बढ़ावा देने के लिए गठित किए गए विभाग भी सरकारी योजनाओं के बारे में फैक्ट्री मालिकों को ठीक से जानकारी नहीं देते. उनका आरोप है कि बैंकों का सहयोग भी उद्यमियों को नहीं मिल पा रहा है और प्रदेश व केंद्र सरकार के बीच विकास के नाम पर चल रहे विवाद का खामियाजा भी स्थानीय उद्यमियों को भुगतना पड़ रहा है. शहनवाज कहते हैं, ‘सरकारी उपेक्षा के चलते वर्ष 2000 तक ऐसी स्थितियां बन गई थीं कि उद्यमियों की अधिकांश इकाइयां बंद हो गईं, लेकिन विभिन्न संगठनों के प्रयास से अब कुछ सुधार हुआ है. मगर अभी भी सिर्फ छोटे उद्यमी ही आ रहे हैं, बड़े उद्यमी अभी भी जगदीशपुर की ओर रुख करने से कतराते हैं.’
‘उद्योगों के बंद होने के कई कारण रहे, लेकिन इनके बंद होने का सबसे बड़ा खामियाजा स्थानीय लोगों को ही उठाना पड़ा’
जिला उद्योग केंद्र सुलतानपुर के आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 1984 से 1990 के बीच जगदीशपुर औद्योगिक क्षेत्र में स्थापित हुई 50 से ऊपर फैक्ट्रियां अब बंद हो चुकी हैं. औद्योगिक क्षेत्र में इस दरमियान लगी महज एक दर्जन फैक्ट्रियां ऐसी हैं जो चल रही हैं. वर्ष 1991 से अब तक औद्योगिक क्षेत्र में जो 38 नए उद्योग लगे हैं वे सिर्फ नाम के ही हैं क्योंकि इनमें से 20 में महज चार से आठ व्यक्ति काम करते हैं. अन्य 18 उद्योगों में भी कामगारों की संख्या 10 से 15 के बीच ही है. शहनवाज बताते हैं कि जो भी नए उद्योग लग रहे हैं वे आटा चक्की, मसाला चक्की जैसे कुटीर उद्योग ही हैं.
अमेठी लोकसभा क्षेत्र का कुछ हिस्सा गांधी- नेहरू परिवार की दूसरी प्रतिष्ठित सीट रायबरेली जिले में भी लगता है. यहां खुले उद्योग-धंधों की कमोबेश जगदीशपुर जैसी ही हालत है. रायबरेली से सलोन कस्बे में पहुंचने से पहले ही सड़क के किनारे एक जंग लगा बड़ा-सा बोर्ड दिखता है. बोर्ड के चारों ओर उग आई बड़ी-बड़ी झािड़यों व पेड़ों को हटाकर देखने पर उसके ऊपर वेस्पा कार कंपनी लिमिटेड लिखा दिखाई दे जाता है. बोर्ड के ठीक सामने सड़क के दूसरी ओर छप्पर में चल रही चाय की दुकान पर बैठे संतकुमार बताते हैं कि यहां स्कूटर बना करते थे, लेकिन अब फैक्ट्री को बंद हुए 17 साल हो चुके हैं. नब्बे एकड़ क्षेत्र में फैली कंपनी अब गार्डों के हवाले है, क्योंकि अभी भी लाखों रुपए का लोहा और कुछ मशीने वहां पड़ी हुई हैं. कंपनी के गेस्ट हाउस में रखा पत्थर बताता है कि कंपनी का शिलान्यास 27 सितंबर 1984 को अमेठी के तत्कालीन सांसद स्वर्गीय राजीव गांधी ने किया था. एक ग्रामीम बुजुर्ग मातादीन बताते हैं कि कंपनी लगाने के लिए आसपास के बगहा, उमरी व बहादुरपुर सहित आधा दर्जन गावों के काश्तकारों की जमीनें ली गई थीं. आज कई ऐसे परिवार उन गावों में हैं जिन्हें विकास की अंधी दौड़ में भूमिहीन होने के लिए मजबूर होना पड़ा और उन्हें कोई रोजगार भी नहीं मिल पाया. ऐसे में स्थानीय किसान खुद को ठगा-सा महसूस न करें तो क्या करें?
रायबरेली जिले के ही गौरीगंज कस्बे के पास सम्राट बाइसिकिल व ऊषा रेक्टीफायर नाम से दो कंपनियां लगी थीं, लेकिन वहां भी अब सिर्फ जंग लगे बोर्ड और जंगल ही नज़र आता है. गौरीगंज से रायबरेली रोड पर कुछ किलोमीटर चलने पर जायस कस्बे का औद्योगिक क्षेत्र पड़ता है. जायस में घुसते ही सड़क के किनारे एक चारदीवारी के भीतर कई खंडहरनुमा हॉल दिखाई देते हैं. स्थानीय लोग बताते हैं कि यहां उत्तर प्रदेश चमड़ा उद्योग निगम ने राजीव गांधी के समय एक कारखाना डाला था. चमड़ा कंपनी के ठीक सामने स्थित राइस मिल के मालिक किसी अनजान डर से अपना नाम बताने की बजाय यह बताते हैं कि यह कारखाना सिर्फ तीन या चार साल ही चला था. चूंकि यहां अब एक भी खिड़की-दरवाजा तक नहीं बचा है, लिहाजा कंपनी में आस-पास के ग्रामीणों को मवेशी चराते देखा जा सकता है.
उद्योगों के बंद होने के पीछे जिले के कुछ कांग्रेसी नेता दूसरा ही खेल बताते हैं. एक पूर्व कांग्रेसी विधायक बताते हैं कि जिस समय अमेठी लोकसभा क्षेत्र में उद्योगों को बढ़ावा देने की शुरुआत हुई उस समय केंद्र व राज्य दोनों जगह कांग्रेसी सरकारें थीं, लिहाजा काफी संख्या में उद्यमी इस ओर आकर्षित हुए थे. इनमें अधिकांश केंद्र या राज्य सरकार में शामिल नेताओं से नजदीकी रखते थे. इनका एक ही मकसद था सरकार से मिलने वाली रियायतों का अधिक से अधिक लाभ उठाना. लेकिन 1989 में कांग्रेस की सरकार प्रदेश से चली गई, लिहाजा ये लोग भी फैक्ट्री को नुकसान में दिखाकर यहां से चलते बने. वहीं अपनी ही पार्टी के पूर्व विधायक की इस बात को प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह सिरे से नकारते हैं. वे कहते हैं, ‘जब से कांग्रेस सरकार राज्य से गई है उसके बाद से ही पूरे प्रदेश में बिजली का संकट उत्पन्न हो गया है. इसी समस्या के कारण उद्योग-धंधे एक-एक कर बंद होते गए.’ प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था को भी सिंह उद्योगों के बंद होने का दूसरा सबसे बड़ा कारण बताते हैं. वे कहते हैं, ‘गैरकांग्रेसी सरकारों में अराजकता चरम पर पहुंच गई जिसके कारण उद्यमी अपने को असुरक्षित मानने लगे थे.’
जगदीशपुर से कांग्रेस विधायक रामसेवक कहते हैं, ‘उद्योगों के बंद होने के कई कारण रहे, लेकिन इनके बंद होने का सबसे बड़ा खामियाजा स्थानीय लोगों को ही उठाना पड़ा.’ दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता हृदय नारायण दीक्षित कहते हैं कि उद्योग लगाने के नाम पर कांग्रेसी नेताओं ने आपस में ही बंदरबांट कर ली थी. उन्हें मालूम था कि कांग्रेस की सरकार जाने के बाद वे मनमानी नहीं कर पाएंगे, लिहाजा जगदीशपुर व अमेठी से जितना फायदा ले सके लेकर चले गए. वे व्यंग करते हुए कहते हैं, ‘अभी भी प्रदेश में बिजली संकट बरकरार है और कानून व्यवस्था चौपट है, ऐसे में कांग्रेस अमेठी व रायबरेली के लिए करोड़ों के प्रोजेक्ट फिर क्यों लेकर आई है.’ उनका आरोप है कि कांग्रेस विकास के नाम पर राजनीतिक बयानबाजी कर जनता को सिर्फ बरगलाने का काम कर रही है. l