हिंदुस्तानी ईस्ट इंडिया कंपनी

लम्हों की खता उस वक्त सदियों की सजा बन गई जब 1615 में मुगल बादशाह जहांगीर ने सर थॉमस रो के साथ एक व्यावसायिक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. थॉमस रो उस कंपनी के तेज-तर्रार अधिकारी थे जिसने आने वाले साढ़े तीन सौ सालों तक भारत के इतिहास का एक ऐसा अजीबोगरीब अध्याय लिखा जिसमें शोषण और अत्याचार के साथ आधुनिकता और औद्योगीकरण, सभ्यता और शिष्टाचार के साथ वहशत और बर्बरता की इबारतें यहां-वहां छिटकी नज़र आती हैं. वह ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में पहला कदम था. अतिथि को भगवान मानने वाले देश ने इस नई नस्ल का भी दिल खोलकर स्वागत किया. किंतु यहां की नायाब विरासत और अकूत दौलत ने इस अपेक्षाकृत छोटे-से व्यापारिक समझौते को जल्द ही साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा की सुरसा मे तब्दील कर दिया. बाद में कंपनी के हाथ से भारत का शासन ब्रिटिश सरकार के हाथों में चला गया.

‘भावनात्मक स्तर पर मेरे लिए यह अभिभूत कर देने वाला पल है. यह सोचना ही जोश से भर देता है कि आज मैं उस कंपनी का मालिक हूं जिसका कभी मेरे पूरे देश पर राज था’

ज्यादातर लोगों के लिए यह कहानी 1947 में देश की आजादी के साथ ही खत्म हो गई लेकिन साढ़े तीन सौ साल तक चले  भलाई-बुराई, लूट-खसोट, मनमानी-तानाशाही के खेल का अंतिम अध्याय लिखा जाना अभी बाकी था. और बीते फरवरी महीने की एक शाम मुंबई के एक व्यवसायी संजीव मेहता ने अपने वतन से दूर लंदन में बिल्कुल खामोशी से यह अंतिम अध्याय लिख दिया. इस दिन वे अपने वतन पर सैकड़ों साल तक राज करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी के मालिक बन गए.आश्चर्य की बात है कि जिस हिंदुस्तान में इस बात की सबसे अधिक चर्चा होनी चाहिए थी वहां इसकी जानकारी भी बमुश्किल थोड़े ही लोगों को होगी.

इतिहास के इस अंतिम अध्याय को लिखने की अहमियत का अंदाजा संजीव को भी अच्छी तरह से हैः एक कंपनी जिसे दुनिया की पहली बहुराष्ट्रीय कंपनी होने का गौरव हासिल है, जिसके झंडे तले एक समय दुनिया के कुल मानव श्रम का एक-तिहाई हिस्सा काम करता था, ऐसी कंपनी जिसके अतीत में जितने उजले पन्ने हैं उससे कहीं ज्यादा स्याह पक्ष हैं. ‘व्यावहारिक रूप से तो यह मेरे लिए एक बड़ी चुनौती है लेकिन भावनात्मक स्तर पर मेरे लिए यह अभिभूत कर देने वाला पल है. यह सोचना ही जोश से भर देता है कि आज मैं उस कंपनी का मालिक हूं जिसका कभी मेरे पूरे देश पर राज था,’ संजीव का पत्रकारों से बातचीत में कहना था.

ईस्ट इंडिया कंपनी में संजीव ने लगभग 250 करोड़ रुपए का निवेश किया है. इसके भविष्य के लिए संजीव की योजनाएं बेहद विस्तृत हैं लेकिन कंपनी की पुरानी साम्राज्यवादी सोच का इनमें कोई स्थान नहीं है. मार्च में ही लंदन के विशिष्ट इलाके मेफेयर में कंपनी ने अपना पहला ईस्ट इंडिया कंपनी स्टोर खोला है और आने वाले कुछेक सालों में कंपनी एक बार फिर से भारत में अपने कदम रखने वाली है. लेकिन इस बार स्थितियां और भूमिकाएं अलग रहेंगी. चाय, कॉफी और मसालों की जगह रियल एस्टेट, सुपर स्टोर्स, हॉस्पिटैलिटी ले लेगी.

सन 1600 के आस-पास ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने लंदन के 30-40 व्यापारियों को ‘द कंपनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ लंदन ट्रेडिंग इन टू ईस्ट इंडिया’ के नाम से लाइसेंस दिया था जिससे उन्हें ब्रिटिश शासन के तहत पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने की इजाजत मिल गई थी. पीढ़ी दर पीढ़ी इन्हीं 30-40 परिवारों के पास इस कंपनी के अधिकार चले आ रहे थे.

2005 से ही संजीव कंपनी को खरीदने की हिमालयी मुहिम में लगे हुए थे. इतने सारे मालिकाना हक रखने वालों को किसी एक मुद्दे पर एकमत करना टेढ़ी खीर था इसलिए पांच साल बाद 2010 में जाकर संजीव को अपने लक्ष्य में कामयाबी मिल सकी.

ज्यादातर लोगों के लिए कहानी एक बार फिर से खत्म हो चुकी है लेकिन कुछ लोगों के लिए यह एक नई कहानी की शुरुआत है. ईस्ट इंडिया कंपनी अब जाकर केवल नाम की नहीं बल्कि हकीकत में भारतीय कंपनी बन गई है.