फिल्म सिटी ऑफ गोल्ड
निर्देशक महेश मांजरेकर
कलाकार करण पटेल, सीमा बिस्वास, सिद्धार्थ
आपको जो शहर चटख रंगों वाली खूबसूरत फिल्मों में दिखाए जाते हैं, महेश मांजरेकर सबसे पहले और सबसे बाद तक उनकी सब तस्वीरों को जलाते हैं. वे हमारे सोने के शहरों के सब अमीर शीशे लाचार से दिखते पत्थरों से तोड़ते हैं. यह अस्सी के दशक की मुंबई की कहानी है और उसमें भी कपड़ा मिलों के उन मजदूरों की जो मल्टीप्लेक्स और मॉलों को जगह देने के लिए अपनी भूखी अंतड़ियों की बलि चढ़ा रहे थे.
पहली नजर में फिल्म के पोस्टर पर कीचड़ में सने हुए कई चेहरे आपको डराते हैं. वैसे भी हम खुश रहना और सुखद फिल्में देखना चाहते हैं. मनोरंजन की हवस हम पर इतनी हावी है कि हमारी अगली कतार में बैठे शहरी युवक-युवतियां भूख और मृत्यु के दृश्यों पर ताली पीटकर हंसते हैं.’सिटी और गोल्ड’ इसीलिए डराती है. उसमें भूखे लड़के हैं, जिन्हें अपने पिताओं की कंगाली देखने के बाद हत्याओं का नशा हो गया है. किसी को गोली मारकर वे संभोग के से चरम आनंद में आंखें बंद कर लेते हैं. उसमें ब्यूटीशियन का काम सीखती लड़कियां हैं, जिनकी बढ़ती उम्र उनके पिताओं के कलेजे पर चाकू-सी लगती जाती है. फिर उनका किसी अय्याश बनिया के झूठे प्रेम में फंसकर गर्भवती होना और मजबूरी में पैसे भी पाना है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि फिल्म कहीं भी आपसे इसलिए बने रहने का अनुरोध नहीं करती कि आप उसके किरदारों की दुर्दशा पर तरस खाएं. वह आपको जोड़े रखती है और मनोरंजन (इस शब्द के सबसे निर्मम और स्वार्थी अर्थ में भी ) भी करती है. हालांकि यह उन फिल्मों में से है जो खालिस जिंदगी ही होती हैं और जिनके कलात्मक पक्ष की बात कर और किसी पैमाने पर तोलकर आप उनका अपमान ही करते हैं. फिर भी यह कहना जरूरी है कि हिंसा के तनाव को महेश और उनके सिनेमेटोग्राफर अजीत रेड्डी जिस स्वाभाविकता से दिखाते हैं वह कमाल है. उसी स्वाभाविकता से महेश चाल में रहने वाले परिवारों के उलझे हुए रिश्ते, उनकी चुहलबाजी और विलाप भी दिखाते हैं.
फिल्म के आखिर में सूत्रधार कहता है कि जिस तरह हम आज कहते हैं कि कभी डायनासॉर हुआ करते थे, शायद उसी तरह कुछ साल बाद कहेंगे कि मिल वर्कर हुआ करते थे. लेकिन शायद हम यह कहेंगे भी नहीं. जब तक हमारे पास प्रेम की उजली कहानियां रहेंगी, हम उनकी शरण में भागेंगे और हकलाते हुए उस भोले लड़के का कारुणिक क्रंदन भूल जाएंगे जिसके जिगरी दोस्त ने उसके पिता को मारा है. उन सब कहानियों की तरह, जिनमें भूख खलनायक है, हम कॉकरोच मारने की उन सब दवाओं को भी भूल जाएंगे जिन्हें लाखों भूखे घरों ने संभालकर रखा है.
गौरव सोलंकी