कौन चला रहा है समानांतर सरकारें?

मैं नहीं चाहता था कि आईपीएल पर लिखूं. इससे बचने की बहुत कोशिश की, लेकिन श्रीकांत वर्मा की पंक्ति जैसे बार-बार इसी मैदान में लौटाती रही- ‘जो बचेगा, वह रचेगा कैसे?’

जहां हितों का टकराव हुआ, जहां परदा हिलना शुरू हुआ, वहीं राज खुलने शुरू होते हैं. फिर वही पंक स्नान दिखाई पड़ता है जो आईपीएल में नज़र आ रहा है

क्रिकेट को तमाशा बनाने वाली इंडियन प्रीमियर लीग की सामने आ रही अनियमितताओं से जो हैरान हैं, वे शायद कहीं ज्यादा भोले लोग हैं. उन्हें वह नया भारतीय अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र समझ में नहीं आ रहा जिसमें आईपीएल जैसे आयोजन संभव होते हैं. एक विशेषाधिकारसंपन्न तबका इन आयोजनों से अपने शौक भी पूरे करता है, अपनी हैसियत भी हासिल करता है और उसमें निहित दौलत की संभावनाओं का चालाक संरक्षण भी करता है.
20 साल पहले नरसिंह राव के वित्त मंत्री के तौर पर आज के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोटा-परमिट राज और उससे जुड़े भ्रष्टाचार के दौर के अंत की घोषणा करते हुए नई आर्थिक नीतियों का खाका खींचा था. तब तक भारत की तथाकथित मिश्रित अर्थव्यवस्था की सड़ांध इतनी बड़ी हो चुकी थी कि उदारीकरण का यह झोंका भारतीय उद्योगपतियों और भारत में नई आर्थिक-सामाजिक हैसियत हासिल करने को बेताब मध्यवर्ग के लिए एक बड़ी राहत की तरह आया. सेंसेक्स अचानक एक बड़ी खबर बन बैठा और अपने वैध-अवैध तौर-तरीकों से ऊपर आई भारतीय कॉरपोरेट जगत की हस्तियां देश की नियामक शक्तियां बन गईं.

दरअसल, 21वीं सदी शुरू ही भारत के अश्वमेध की कामनाओं और भविष्यवाणियों से हुई. उदारीकरण ने एक घोड़ा दिया तो बाकी घोड़े सूचना औरतकनीक के क्षेत्र में आई क्रांति ने दिए जिनकी वजह से खाते-पीते मध्यवर्गीय भारतीयों को देश के भीतर और बाहर ढेर सारे मौके मिले. इस प्रक्रिया ने भारतीयता का एक ग्लोबल ब्रांड बनाया जिसके बारे में कहा गया कि वह अपनी मेधा और मेहनत से दुनिया को जीत सकता है. लेकिन इस पर किसी की नज़र नहीं पड़ी कि यह ग्लोबल ब्रांड भारतीय समाज में चुपचाप एक बड़ी दरार पैदा कर रहा है. राष्ट्रीय या सामाजिक पहचान इस ब्रांड की पोशाक भर रही जो बहुराष्ट्रीय मान्यता वाली टेलरिंग शॉप में सिली जाती रही. लेकिन इस नए ब्रांड की त्वचा और आत्मा पैसे से बनती रही. पैसा है तो सफलता है, पैसा है तो ईमान है, पैसा है तो मनोरंजन है. जो पढ़ाई पैसा दिलाए, वही सबसे सार्थक पढ़ाई, जो फिल्म पैसा कमाए, वही सबसे अच्छी फिल्म, जो खेल पैसा जुटाए, वही सबसे अच्छा खेल. बाकी उद्यम बेमानी- चाहे वह जितना भी अच्छा साहित्य हो, कला हो या संगीत हो या फिर खेल ही हो. जो कानून पैसा बनाने की राह में रोड़ा अटकाए, जो कानून करों के गैरजरूरी जाल में पांव उलझाए, वह बीते ज़माने का और बेमानी कानून है- कहीं यह मान्यता इस नए ब्रांड की रगों में खून की तरह बहती रही. इसलिए ऐसे कानूनों को या तो वह अपने पैसे की मदद से ठेंगा दिखाता रहा या अपनी हैसियत से बदलवाता रहा.
आईपीएल इसी सोच की संतान है. यह क्रिकेट का नहीं, पैसे का खेल है. इसने क्रिकेट को लेकर इस देश की दीवानगी का इस्तेमाल भर किया. क्रिकेटरों की बोली लगी और टीमें तैयार की गईं. इसके बाद खिलाडि़यों ने अपने निवेशकर्ताओं की उम्मीदों के मुताबिक रोमांच का झाग पैदा किया, दर्शक जुटाए और आईपीएल को एक कामयाब ब्रांड में बदल डाला.

ध्यान से देखें तो यह हमारी पूरी धूल खाई, जंग लगी, सार्वजनिक व्यवस्था से अलग एक पूरी समानांतर, चमकती हुई, तेज़ रफ़्तार दौड़ती हुई व्यवस्था है जिसकी रास इस देश के ताकतवर घरानों के हाथ में है

लेकिन कामगारों की मेहनत अपनी जगह है, मालिकान के इरादे अपनी जगह. उनके लिए खिलाडि़यों की शोहरत या खेल की दीवानगी बस एक माध्यम है जिसे पैसे में बदलना है. जब पैसा इस हद तक नियामक शक्ति है तो फिर तथाकथित ‘कॉरपोरेट वैल्यू’ या किसी सांगठनिक शुचिता का कोई मतलब नहीं रह जाता. फिर जोड़-तोड़ कर टीमें बनती हैं, हेर-फेर कर कागज तैयार किए जाते हैं और लेन-देन कर किसी को अधिकार दिए जाते हैं, किसी के नाम उजागर किए जाते हैं.खेल पर तब तक परदा पड़ा रहता है जब तक सबके हित सधते हैं. जहां हितों का टकराव हुआ, जहां परदा हिलना शुरू हुआ, वहीं राज खुलने शुरू होते हैं. फिर वही पंक स्नान दिखाई पड़ता है जो आईपीएल में नज़र आ रहा है.

आईपीएल का यह खेल और उसके बाद चल रहा तमाशा कई पुराने खेलों की याद दिलाता है. आधी रात को एक ई-मेल के जरिए ललित मोदी को निलंबित करने वाली बीसीसीआई जिस तरह जांच का नाटक कर रही है, उससे यह साफ है कि यह पूरी कवायद मोदी को बलि का बकरा बनाकर छोड़ देगी और बाकी लोग बेदाग निकल आएंगे. केंद्र सरकार के उन मंत्रियों की जिम्मेदारी कोई तय नहीं करेगा जो आईपीएल के कारोबार की संभावनाओं को लेकर दूसरे मंत्रियों को ई-मेल भेजते रहे और जिनकी बेटियां अपने बाप की हैसियत का इस्तेमाल कर सरकारी विमानों के रास्ते और मुसाफ़िर बदलवाती रहीं.
असल में यह पूरी व्यवस्था इसी तरह चलती है. जब प्रतिभूति घोटाला हुआ तो हर्षद मेहता को उसके इकलौते खलनायक की तरह पेश किया गया. जब मेहता ने बताया कि वह बड़े नेताओं को नोटों से भरे सूटकेस देता रहा है, तब किसी ने आगे जांच की जरूरत नहीं समझी. यह समझना भी किसी को जरूरी नहीं लगा कि हर्षद मेहता आखिर इस व्यवस्था में कैसे जगह पाता है. आने वाले दिनों में और भी हर्षद मेहता दिखे और यह समझ में आता रहा कि यह व्यवस्था ऊपर से जितनी चमकीली है, भीतर से उतनी ही खोखली.

आईपीएल इसी खोखलेपन का एक चमकीला आवरण है. वरना जिस दौर में देश और दुनिया सदी की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी का सामना करने को मजबूर थे, उन दिनों आईपीएल में पैसा लगाया जा रहा था, प्रसारण के अधिकारों का सौदा हो रहा था और प्रतियोगिता भारत से दक्षिण अफ्रीका ले जाई जा रही थी. आखिर ये साधन कहां से आ रहे थे, यह धंधा किस बात का चल रहा था? इसकी न तब जांच हुई न अब होने की संभावना है. जबकि हाल के दिनों में आईपीएल के दुबई कनेक्शन की संदिग्ध और खुसफुसाती चर्चा राजनीतिक और आर्थिक गलियारों में सुनी जा सकती है.

दरअसल, यह पूरी आर्थिक वैचारिकी एक ग्लोबल नागरिकता को समर्पित है और राज्य और उसके कानूनों को बेमानी मानती है. दुर्भाग्य से राजकाज में शामिल लोगों को भी यह अर्थव्यवस्था माकूल पड़ती है क्योंकि इसके अवांतर लाभ उनकी झोली में, उनके बैंक अकाउंट में गिरते रहते हैं. उनके बेटे-बेटियों को एक-दूसरे के दफ्तरों में नौकरी मिलती है और उनकी प्रेमिकाओं तक को मुफ्त के शेयर मिलते हैं. बदले में परस्पर लाभ और सुरक्षा की गारंटी होती है जो कभी-कभी किसी असंतुलन में टूट जाती है. इस बार टूटी है तो आईपीएल का एक कुरूप पहलू सामने आ गया है.

खतरा यही है कि आईपीएल की ऊपरी साफ-सफाई और उसके रंगरोगन के बाद कहीं बाकी गड़बड़ियां भुला न दी जाएं- क्योंकि जब वे खुलेंगी तो सिर्फ मोदी की ही नहीं, राजनीति और कारोबार के कहीं ज्यादा बड़े चेहरों की कलई भी खुलेगी. शायद इसीलिए मोदी भी आश्वस्त हैं कि उनका कुछ नहीं होगा और बाकी लोग भी इस समूची कवायद पर एक गोपनीय आम सहमति के साथ चलते नज़र आ रहे हैं कि जांच की आंच उन तक न पहुंचे. बड़े सवालों और संकटों को छोटे हितों और टकरावों में सीमित करने की यह कारगर रणनीति भारत के सार्वजनिक जीवन का अभ्यास हो चुकी है.

ध्यान से देखें तो यह हमारी पूरी धूल खाई, जंग लगी, सार्वजनिक व्यवस्था से अलग एक पूरी समानांतर, चमकती हुई, तेज़ रफ़्तार दौड़ती हुई व्यवस्था है जिसकी रास इस देश के ताकतवर घरानों के हाथ में है. इस व्यवस्था के पांव कानून की ज़ंजीरों से नहीं बंधे हैं, इसके हाथ इस देश की सरहदों के बाहर पहुंचते हैं. यह पूरी व्यवस्था हमारे राष्ट्र राज्य और उसके नागरिकों का मखौल बनाकर खड़ी होती है. 2008 के लोकसभा चुनावों के समय जब सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए गृहमंत्री पी चिदंबरम ने आईपीएल की तारीखें बदलवाने की कोशिश की तो इसे इस व्यवस्था ने उनकी हिमाकत देखा. आईपीएल रातों-रात दक्षिण अफ्रीका ले जाया गया और मोदी की पीठ थपथपाई गई. शायद इसी समानांतर व्यवस्था होने के अहंकार और मुनाफ़े पर टिकी बारीक नज़र की वजह से बेंगलुरु में स्टेडियम के पास धमाकों के फौरन बाद सेमीफाइनल मुकाबले कराए गए. आम लोगों की सुरक्षा के साथ ऐसे खिलवाड़ की इजाज़त अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील कोई व्यवस्था नहीं देती.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम को पलामू के पठारों और अबूझमाड़ के जंगलों में चलती समानांतर सरकारें नज़र आती हैं, दिल्ली में चलती ये समानांतर सरकारें नहीं दिखतीं. उड़ीसा में हथियारों के दम पर तीन घंटे तक ट्रेन रोक लेने वाले नक्सली खतरनाक नजर आते हैं, लेकिन इंडियन एअरलाइंस के विमान को पैसे और बाप की हैसियत के दम पर अपनी तरफ मोड़ लेने वाले बेटे-बेटियों की फौज परेशान नहीं करती.
संसदीय लोकतंत्र के लिए जितने खतरनाक नक्सलवादी हैं, उससे कहीं ज्यादा खतरनाक ये लोग हैं जो लोकतंत्र की दुहाई देते हैं और अवैध पूंजीतंत्र का वह खेल खेलते हैं जिसमें संसदीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता सबसे पहले आउट होती है.   

प्रियदर्शन