‘अब हर किसी को गेहूं और चावल चाहिए’

सुबह के आठ बजे हैं. लेकिन 69 वर्षीय भारत के कृषि मंत्री  शरद पवार अपने दिल्ली स्थित घर में बने ऑफिस में व्यस्त हो चुके हैं…अनाज और सब्जियों की लगातार बढ़ रही कीमतों के मुद्दे पर आलोचनाओं से घिरे पवार ने अजित साही और राना अय्यूब से उनके कार्यकाल में कृषि नीतियों पर काफी लंबी बात की. साक्षात्कार के अंश

यूपीए सरकार के कार्यकाल में कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन

यूपीए जब सत्ता में आई तब कृषि वृद्धि दर में एक ठहराव आ चुका था. मोंटेक सिंह अहलूवालिया (योजना आयोग के उपाध्यक्ष) की एक रिपोर्ट बताती है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के पहले दो सालों में कृषि वृद्धि दर 3.2 फीसदी थी जो 10वीं योजना से बेहतर थी. हमारा लक्ष्य 4 फीसदी वृद्धि दर का था और यदि हम यह हासिल कर लेते तो देश की कुल वृद्धि दर 8 फीसदी को पार कर जाती. लेकिन पिछले साल देश के कई जिलों में बारिश नहीं हुई. देश का आधे से ज्यादा हिस्सा सूखा पड़ा रहा. हमारे काम से सबसे बड़ा बदलाव यह आया कि इससे कृषि क्षेत्र में निवेश उल्लेखनीय रूप से बढ़ गया. देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी जो 2004-05 में 14.1 फीसदी थी वह 2008 में 19.8 फीसदी हो गई. किसानों के लिए सबसे जरूरी होता है कि वे सही समय पर बुवाई के लिए बीज खरीद पाएं. पहले वे सूदखोरों के मनमाने ब्याज पर उनसे पैसा उधार लेते थे. जब हमारी सरकार बनी तो उस समय किसानों को फसल के लिए कुल 86 हजार करोड़ रुपए के कर्ज बांटे गए थे, इस साल यह आंकड़ा 3.2 लाख करोड़ रु हो चुका है.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत हमारे सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम- राष्ट्रीय बागवानी मिशन और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन बेहद सफल साबित हो रहे हैं. हमने राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में 55 हजार करोड़ रु का निवेश किया है और इसके लिए राज्यों को अधिकार दिया गया है कि वे इन योजनाओं के लिए क्षेत्र का निर्धारण करें.  कुछ राज्य मत्स्यपालन में रुचि ले रहे हैं तो कुछ बागवानी में. उन्हें योजना बनाने का विकल्प भी दिया गया है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत हमने गेहूं, चावल और दालों पर ध्यान केंद्रित किया है. हम चाहते हैं किसानों को अच्छी गुणवत्ता के बीज मिलें. इसलिए हमने 5 हजार करोड़ रुपए जारी किए हैं.

अगले कुछ ही दिनों में सरकार इस साल भंडारण के लिए अनाज की खरीद शुरू कर देगी. हमारा अनुमान है इस बार पिछले साल से ज्यादा अनाज का भंडारण होगा. अब हमें इस दिशा में भी काम करना होगा कि नए अनाज को कहां रखा जाए, साथ ही हम यह भी कोशिश कर रहे हैं कि इसे खुले बाजार में बेच दिया जाए. हम बिक्री भी शुरू कर चुके हैं (इंटरनेट पर). इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत आम लोगों तक पहुंचाया जा रहा है. इसके तहत वितरित किए जाने वाले अनाज की कीमत 2002 में तय की गई थी. हमारी लागत तब से बढ़ती रही लेकिन हमने राशन के दाम नहीं बढ़ाए.

आपको याद होगा 2009 में जब संसद का सत्र शुरू हुआ ही था तो दो दिनों तक कोई कामकाज नहीं हो पाया क्योंकि उत्तर प्रदेश से आए किसान संसद का घेराव कर रहे थे. पूरा विपक्ष उनकी मांग के साथ सुर मिलाते हुए कह रहा था कि आपको अनाज की कीमत बढ़ानी होगी. फिर जब हमने गन्ने की कीमत बढ़ाई तो उसका असर चीनी पर तो पड़ेगा ही. उस वक्त किसानों को प्रति क्विंटल गन्ने के 120 रुपए मिल रहे थे, अब 250 मिल रहे हैं. इसलिए चीनी की कीमतें भी बढ़ गईं. अब किसानों ने गन्ने का रकबा बढ़ाने पर ध्यान देना शुरू कर दिया. चीनी उद्योग का प्रारंभिक अनुमान है कि इस साल चीनी उत्पादन 140 लाख टन होगा, जबकि मुङो लगता है कि हम 170 लाख टन के आंकड़े को पार कर जाएंगे.

मोटा अनाज या नकदी फसलें

हमारे यहां असली मुश्किल यह है कि यहां कोई मांग ही नहीं है. बचपन में मैं भाखरा खाया करता था (बाजरे की रोटी), आज हम घर में बनी गेहूं की चपाती खाते हैं. हम चाहते हैं कि बाजरा और रागी का उत्पादन हो, लेकिन एक भी राज्य इनको उपजाना नहीं चाहता. वे कहते हैं हमें गेहूं और चावल चाहिए. हम अपने खाने की आदतें बदल रहे हैं पहले जो स्थान ज्वार और बाजरा पर निर्भर थे, अब वहां के लोगों को गेहूं चाहिए. दक्षिण भारत में जहां लोग गेहूं को हाथ भी नहीं लगाते थे उन्हें भी अब गेहूं चाहिए.

खाने की आदतों में बदलाव का मतलब है कि अब आपको मोटे अनाज की बजाय गेहूं और चावल पर ध्यान देना होगा. पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे राज्य अब अपने यहां चावल उत्पादन पर ध्यान दे रहे हैं. लेकिन लगातार गेहूं और चावल की खेती से मिट्टी की उर्वरक क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.

कपास के किसानों की आत्महत्या का मसला

पिछले दो सालों में कपास के किसानों को सबसे ज्यादा सब्सिडी मिली थी. यदि आप विदर्भ की खबरों पर ध्यान दें या वहां जाकर देखें तो पता चलेगा कि इस इलाके में काफी निर्माण कार्य चल रहे हैं और लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ है.

मोंसेंटो के समर्थन पर

देखिए, मोंसेंटो बदनाम है. यह उन कुछेक कंपनियों में से है जिसपर अमेरिका में सबसे ज्यादा केस चल रहे हैं. भारत में 40 संस्थान जेनेटिकली मोडीफाइड (जीएम) तकनीक पर काम कर रहे हैं और हम इस दिशा में काफी शोध कर रहे हैं. लेकिन हम काफी सावधानी भी बरत रहे हैं. यदि हम सफल होते हैं तो हमारा तरीका मोंसेंटो जसा कतई नहीं होगा क्योंकि वह कंपनी यहां परोपकार करने नहीं आ रहे हैं, वे सिर्फ पैसा कमाना चाहते हैं. यदि वे शोध में पैसा खर्च करेंगे तो पैसा कमाएंगे भी. हम इसके लिए उनपर इल्जाम नहीं लगा सकते. मेरी शिकायत सिर्फ यह है कि उन्हें किसानों का शोषण नहीं करना चाहिए.

आयात शुल्क कम करने के मुद्दे पर

तीन साल पहले हमारे यहां काफी मात्रा में चीनी का भंडारण किया गया था और इससे कीमत लगातार नीचे जा रही थी. जब हमने इसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचा तो कीमतें और कम हो चुकी थीं, लेकिन जब भी अंतरराष्ट्रीय बाजार से हमने चीनी की खरीद शुरू की तब-तब कीमतें बढ़ जातीं. तो यह क्रम चलता रहा. मुङो पूरा भरोसा है कि अगले दो साल में हालात ठीक रहे तो चीनी, गेहूं और चावल का इतना उत्पादन होगा कि हमें इनका निर्यात करना पड़ेगा. यदि हम दूसरे देशों पर अपने यहां माल बेचने पर प्रतिबंध लगाएंगे तो दूसरे देश भी बाद में ऐसा ही करेंगे.

अगले 20-30 साल के लक्ष्य

देश की 62 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है. आपको महंगाई के कारणों को समझना चाहिए और उनका विश्लेषण करना चाहिए. जब तक हम उत्पादक को प्रोत्साहन नहीं देंगे वह उत्पादन क्यों करेगा? हर वस्तु की कीमत बढ़ रही है. ऐसे में यदि किसान को अच्छी कीमत नहीं मिलेगी तो वह फसल क्यों उगाएगा? यदि आप पूरी अर्थव्यवस्था को सुधारना चाहते हैं तो यह काम अपने ही लोगों की उपेक्षा करके नहीं हो सकता. इसलिए हमें उनकी आमदनी बढ़ानी होगी. हमें सारे देश का चेहरा बदलना होगा, लेकिन इस दौरान आप ग्रामीण भारत की उपेक्षा नहीं कर सकते. इसके अलावा हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी कृषि पर निर्भर है. जब भारत आजाद हुआ था तो 35 करोड़ में से 80 फीसदी लोग खेती पर निर्भर थे, आज 106 करोड़ आबादी में से 62 फीसदी कृषि पर निर्भर है. इस बीच हमारी जमीन उतनी ही रही. आज हर शहर का फैलाव हो रहा है. हम राजमार्ग बना रहे हैं, सेज बना रहे हैं और इस सबके लिए कृषि भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है. इन सब वजहों से 85 फीसदी किसानों के पास पांच एकड़ से भी कम जमीन है. और उनमें से भी 60 फीसदी के पास सिंचाई के लिए पानी नहीं है. यही हमारे यहां गरीबी बढ़ने की भी वजह है. यदि हमें इसमें सुधार करना है, दबाव कृषि क्षेत्रों से हटाकर गैर कृषि क्षेत्रों पर बढ़ाना होगा. हमें सिंचाई सुविधाओं में भी भारी निवेश करना होगा. ये सभी एक-दूसरे से जुड़े मुद्दे हैं. 60 के दशक में संकर किस्मों से हरित क्रांति सफल हुई थी. आज यदि हमें खाद्य संकट से निपटना है तो हमें बीजों की नई किस्में विकसित करनी होंगी जो चाहे संकर हों या जीएम या और किसी तरह के नए बीज हों. लेकिन इसके पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि ये मिट्टी, किसानों, उपभोक्ताओं और जानवरों के लिए सुरक्षित हों इसके बाद ही इन्हें प्रयोग में लाना चाहिए.