एंकर हंट या एंकरों का आखेट?

समाचार चैनलों के संपादकों की अक्सर यह शिकायत रहती है कि उन्हें प्रतिभाशाली पत्रकार और एंकर नहीं मिल रहे. चैनलों में कंटेंट के स्तर को देखते हुए उनकी यह शिकायत काफी हद तक सही भी मालूम होती है. शायद यही वजह होगी कि स्टार न्यूज ने राष्ट्रीय स्तर पर स्टार एंकर हंट के जरिए प्रतिभाशाली एंकरों की तलाश शुरू की है. चैनल जल्दी ही देश के दस शहरों में ऑडिशन और अन्य प्रतियोगिताओं के जरिए ऐसी प्रतिभाओं को खोजने निकल रहा है. इस हंट के जज हैं एंकर दीपक चौरसिया, लेखक चेतन भगत और फिल्म अभिनेत्री टिस्का चोपड़ा. स्टार न्यूज ने जिस जोर-शोर के साथ यह हंट शुरू किया है उससे लगता है कि उन्हें इस प्रतियोगिता से काफी उम्मीदें हैं.

यह मान लिया गया है कि एंकर की भूमिका सिर्फ टेलीप्रॉम्प्टर पर लिखी खबरों को पढ़ देना भर है. आश्चर्य नहीं कि अधिकांश चैनलों में एंकर अभी भी पत्रकार एंकर नहीं बल्कि न्यूजरीडर अधिक लगते हैं. जबकि न्यूजरीडर और एंकर में बहुत फर्क होता है

स्टार न्यूज को इस खोज में कामयाबी मिलने की शुभकामनाएं देते हुए भी यह कहना मुश्किल है कि उसे अपने इस प्रयास में कितनी कामयाबी मिलेगी? संदेह की वजहें कई हैं. पहली बात तो यह है कि क्या समाचार चैनल का एंकर खोजने और डांस या म्यूजिक के टेलेंट खोजने के बीच कोई अंतर नहीं है? जवाब खोजने के लिए जरूरी है कि समाचार चैनल में एंकर की भूमिका को समझने की कोशिश की जाए. आखिर एंकर से चैनल और दर्शकों की क्या अपेक्षाएं होती हैं? असल में, एंकर किसी चैनल की पहचान होता/होती है. बेहतरीन एंकर वह है जिसपर दर्शक पूरा भरोसा करें. लेकिन कोई एंकर दर्शकों का यह भरोसा कैसे हासिल करता है?

जाहिर है कि इसके लिए उसके व्यक्तित्व से अधिक उसका ज्ञान और सबसे बढ़कर उसका अनुभव महत्वपूर्ण है. ऐसा एंकर एक दिन में नहीं मिलता और स्टार न्यूज के एंकर हंट में मिलने की उम्मीद और भी कम है क्योंकि इसमें अनुभव और ज्ञान से ज्यादा जोर व्यक्तित्व पर दिखता है.

दरअसल, असली समस्या यहीं है. अधिकांश समाचार चैनलों खासकर हिंदी चैनलों में एंकर का अर्थ खूबसूरत बोलने वाली गुड़िया भर रह गया है. एंकर की प्रतिभा से ज्यादा जोर उसकी खूबसूरती पर होता है. यह मान लिया गया है कि एंकर की भूमिका सिर्फ टेलीप्रॉम्प्टर पर लिखी खबरों को पढ़ देना भर है. आश्चर्य नहीं कि अधिकांश चैनलों में एंकर अभी भी पत्रकार एंकर नहीं बल्कि न्यूजरीडर अधिक लगते हैं. जबकि न्यूजरीडर और एंकर में बहुत फर्क होता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि अधिकांश चैनलों में यह फर्क साफ दिखाई पड़ता है. यही कारण है कि अधिकांश एंकरों की अपनी कोई पहचान नहीं बन पाई है. दर्शकों का भरोसा जीतना तो बहुत बड़ी बात है. 24 घंटे के चैनल आने के इतने साल बाद भी हिंदी के समाचार चैनलों में इक्का-दुक्का को छोड़कर वैसा विश्वसनीय और प्रभावी एंकर कोई नहीं दिखता जैसा एक जमाने में अमेरिका में वाल्टर क्रोनकाईट थे जिनके बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने कहा था कि वे वियतनाम युद्ध उसी दिन हार गए थे जिस दिन क्रोनकाईट ने उसकी आलोचना की थी.

यह सच है कि अंग्रेजी और हिंदी के कई एंकरों में संभावनाएं दिखती हैं. पर चैनल खुद इन एंकरों की संभावनाओं को सामने लाने के लिए माहौल और मौके देने को तैयार नहीं हैं. अधिकांश हिंदी चैनलों का मौजूदा स्वरूप और चरित्र ऐसा है जिसमें खबरों और पत्रकारों के लिए जगह लगातार कम होती जा रही है. उन्हें पत्रकारों से अधिक गल्प-लेखक चला रहे हैं. स्वाभाविक है कि चैनलों में एंकर की भूमिका भी सज-धजकर ‘फिल्मी खबरें या खबरें फिल्मी अंदाज में’ पढ़ने तक सीमित कर दी गई है. उसकी पहचान पत्रकार नहीं, एंकर के रूप में बना दी गई है. जबकि बुनियादी बात यह है कि हर एंकर सबसे पहले पत्रकार है और होना चाहिए.

लेकिन अधिकांश चैनलों और उनके एंकरों को देखिए तो ऐसा लगता है कि एंकर, पत्रकार नहीं और पत्रकार, एंकर नहीं होते. अधिकांश एंकर रिपोर्टिंग या डेस्क के पत्रकारीय कामों से आम तौर पर दूर ही रहते हैं या रखे जाते हैं. चैनलों में एंकरिंग को जिस तरह अन्य पत्रकारीय कामों से अलग कर दिया गया है. उसके कारण अधिकांश एंकर उस अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान से अनजान रहते हैं जो उनकी एंकरिंग को गहराई दे सकता है. यह गहराई ही दर्शकों का भरोसा हासिल कर सकती है, लेकिन अधिकांश चैनल और उनके एंकर शायद ही कभी स्टूडियो से बाहर फील्ड में लोगों के बीच पसीना बहाते या धूल-गर्द से सने नजर आते हैं. अफसोस कि यह एक नियम-सा बनता जा रहा है और स्टार के एंकर हंट जैसी कथित प्रतिभा खोज प्रतियोगिताओं से इसे और बल मिलेगा.

सवाल उठता है कि समाज में बदलाव के एजेंट बनने की आकांक्षा वाले युवा एंकर मिल भी जाएं तो क्या स्टार न्यूज में उनके लिए सचमुच कोई जगह है? सचमुच, यह एंकर हंट कम और एंकर आखेट अधिक लग रहा है. अन्यथा एंकरों और प्रतिभाओं की नहीं बल्कि चैनलों में नए विचारों की कमी हो गई है जिसकी भरपाई किसी एंकर हंट से नहीं हो सकती.

आनंद प्रधान