बेहतर नहीं तो यही सही

आंध्र प्रदेश सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की एक श्रेणी बनाकर 14 मुस्लिम समूहों को सरकारी नियुक्तियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देने का फैसला किया है. इन समूहों में धोबी, फकीर, हाम और कसाई जैसे लोग शामिल हैं. पठान, अरब, मुगल तथा बोहरा जैसे अपेक्षाकृत समृद्ध समूहों को इससे बाहर रखा गया है.

फिलवक्त सर्वोच्च न्यायालय आंध्र प्रदेश सरकार के इस संवेदनशील कानून के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है, किंतु आगे भी ऐसा ही होगा कहा नहीं जा सकता. वह इसी कानून पर एक बार स्थगनादेश देने के बाद उसे हटाकर मामले को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के विचारार्थ भेज चुका है. उसके बाद उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट कर उसने सरकार और कानून के पक्ष में 25 मार्च को अंतरिम निर्णय सुनाने के बाद अंतिम निर्णय के लिए इसे एक बड़ी संवधानिक पीठ के हवाले कर दिया है.

जिस तरह से आंध्र प्रदेश सरकार ने इससे पहले साल 2004 और फिर उसके बाद 2005 में संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के उलट जाकर मुस्लिम समुदाय के लिए प्रदेश में आरक्षण का प्रावधान किया था – जिन्हें बाद में अदालतों ने अमान्य ठहरा दिया था – वह इस मसले पर आंध्र सरकार की नीयत पर तमाम सवाल खड़े करता है. मगर नीयत चाहे जो भी रही हो आरक्षण के लिए उसने जो आखिरी कानून पारित किया है उसपर विचार करें तो तमाम बातें उसके पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं

सबसे पहले तो हमें उन तर्कों को समझना होगा जो यह कहते हैं कि यह आरक्षण इसलिए भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता. संविधान तो अनुसूचित जातियों को छोड़कर पिछड़ी जातियों को आरक्षण की बात भी नहीं करता था मगर उन्हें भी तो संविधान में संशोधन लाकर, इन जातियों को पिछड़ा वर्ग मानकर आरक्षण दिया ही जा रहा है. इसके अलावा आंध्र सरकार जो आरक्षण दे रही है वह सिर्फ पिछड़े मुसलमानों के लिए है न कि समूचे मुस्लिम समुदाय के लिए. यानी इन्हें भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग माने जाने में किसी को ज्यादा परेशानी होनी ही नहीं चाहिए.

मंडल आयोग की सिफारिश पर पिछड़े वर्गों के लिए जो आरक्षण लागू किया गया है उसमें मुस्लिम समुदायों के भी सौ के करीब समूह शामिल हैं. इसके बावजूद सिविल सेवा में मुस्लिम समुदाय का कुल प्रतिनिधित्व बढ़ने की बजाय कुछ घट ही गया है. दूसरे क्षेत्रों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थितियां हैं. ओबीसी आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा पिछड़े समुदायों के कुछ सबसे ज्यादा समृद्ध लोगों ने ही उठाया है. फिर ओबीसी आरक्षण में शामिल मुस्लिम समूह तो पिछड़ों के भी पिछड़े हैं. ऐसे में उनके लिए अलग से आरक्षण का प्रावधान न हो तो क्या हो?

यह कैसे हो इसपर बहस हो सकती है मगर बिना शक अल्पसंख्यक समुदाय के पिछड़ों और वंचितों को भी इस सकारात्मक भेदभाव की जरूरत है और इसके लिए बदले जमाने की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमें जातियों और जनजातियों के दायरे से बाहर जाकर सोचने की जरूरत है. या फिर हम इस भेदभाव का कोई और बेहतर तरीका सोचें!

संजय दुबे