एक के दाम में तीन शाहकार : एल एस डी

फिल्म  एल एस डी

निर्देशक  दिबाकर बनर्जी

कलाकार  अंशुमन झा, श्रुति, राज कुमार यादव, नेहा चौहान, आर्य देवदत्त, हैरी, अमित सियाल

एक के दाम में तीन शाहकार, हां, एल एस डी इसी तरह शुरु होती है. इस चेतावनी के साथ कि कैमरा हिलता रहेगा और आउट ऑफ फोकस भी होता रहेगा. दिल, जिगर, भगंदर, बवासीर के रोगियों को कोई रिफंड नहीं दिया जाएगा. पल्प फिक्शन वाले शीर्षकों से और कस्बे में आने वाले सर्कस या जादूगर का जिस तरह रिक्शे पर रखा लाउड स्पीकर प्रचार करता है, उसी शैली में. वे अपनी पिछली शाहकार ‘चर्चगेट की चुड़ैल’ का हवाला देते हैं और एक के दाम में तीन नए शाहकार दिखाने का वादा करते हैं. 

खैर, यह नाम काल्पनिक है. हां, उनके पिछले दो शाहकार ‘खोसला का घोंसला’ और ‘ओए लकी लकी ओए’ तो हैं और उन्हें बार बार देखने के बाद आप इस गुमान में हैं कि आपने दिबाकर को पूरा जान लिया है. दिबाकर हर बार आपके इसी भ्रम को तोड़ते हैं. ‘ओए लकी’ में जब आप उनकी उस डीटेलिंग पर मुग्ध हो रहे होते हैं, जिसमें अभय और नीतू एक कॉफी शॉप में बैठे हैं और बाहर पार्किंग को लेकर दिल्ली के स्टाइल की लड़ाई हो रही है (वह लड़ाई, जिसमें दोनों पक्ष गालियां बकते हुए एक दूसरे को देख लेने की धमकी देते हैं, मगर दूसरे को हाथ तक नहीं लगाते), तब आप सोचते हैं कि इससे ज्यादा गहराई अब नहीं हो सकती. लेकिन वे और गहरे गड्ढ़े खोदते हैं और एल एस डी को देखते हुए आप मान ही नहीं सकते कि यह एक फिल्म होगी. एक साहसी और समझदार निर्देशक ही दिखा सकता है कि डिप्लोमा फिल्म बनाने वाले साधारण लड़कों का कैमरा या तो जूम इन होता रहेगा या जूम आउट. ‘मैं सब का इंट्रीव्यू…इंटरव्यू ले लूं…’ कहती हुई बच्ची जब अटकती है, तो आप यह निश्चय कर लेते हैं कि अब फिल्म बनाने वाले लोग आपके सामने आकर भी कहें कि यह फिक्शन है, तब भी आप उनकी बात नहीं मानेंगे.

फिल्म के सबसे दुखद दृश्य में, जो पहले हिस्से में है, मुझसे अगली कतार में बैठी एक लड़की उठकर चली जाती है. एक लड़का, जो शायद उसका बॉयफ्रेंड है, यह कहते हुए भागता है कि ‘यह तो फिल्म है पागल…’. मैंने ऐसा होते हुए पहले कभी नहीं देखा.

दिबाकर की फिल्मों के बारे में मेरे एक दोस्त ने कहा था कि वे आपको सिनेमाहॉल में जितना हँसाती हैं, बाद के अकेले अँधेरों में उतना ही रुलाती भी हैं. ‘लव, सेक्स और धोखा’ देखने के बाद आपको फिर से ऐसा ही लगता है. आप चाहते हैं कि जो मर गए हैं, वे मासूम से लोग फिर लौट आएं और सब कुछ अच्छा हो जाए. एक अच्छी और प्यारी दुनिया हो, जिसमें कैमरा खलनायक न हो.

मगर उस दुनिया को बनाने के लिए वह कैमरा सबसे ज्यादा जरूरी है, जिससे दिबाकर हमें हमारी ही दुनिया दिखाते हैं. वे आईना लेकर मुस्कुराते हुए हमारे सामने खड़े हैं, इसीलिए उनकी हर फिल्म अमर है और पिछली फिल्म से अच्छी. वे लगातार काली और ‘बहनजी टाइप’ लड़कियों और चश्मे वाले प्रतिभाहीन, साधारण लड़कों के पक्ष में खड़े हैं और जब हम हँस रहे होते हैं, फिल्म हम पर हँसती है.

गौरव सोलंकी