क्रिकेट की कप्तानी में देश की कहानी

कैप्टन ‘कूल’ तो वे थे ही, मगर उस दिन ऐसा लगा मानो वे शीतलता के हर मानक की परीक्षा लेने पर तुले हों. भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच ग्वालियर में दूसरा एकदिवसीय मैच था. सचिन तेंदुलकर 199 के स्कोर पर पहुंच गए थे. किसी एकदिवसीय मैच में दोहरा शतक जमाने वाला पहला बल्लेबाज बनने के लिए उन्हें बस एक रन बनाना था. मगर धोनी थे कि उन्हें स्ट्राइक देने की बजाय गेंदों को ताबड़तोड़ पीटे जा रहे थे. उनकी हर बाउंड्री के साथ स्टेडियम में बैठे और टीवी पर इस मैच को देख रहे करोड़ों दर्शकों की चिंता थोड़ी और बढ़ जाती. दस गेंदों में 25 रन जमाकर धोनी देखते ही देखते 35 से 60 रन के स्कोर तक पहुंच गए. उनके धुर प्रशंसक तक हर चौके-छक्के के लिए चुपचाप उन्हें कोसे जा रहे थे. आखिरकार आखिरी ओवर की तीन गेंदें रहते सचिन को स्ट्राइक मिली और उन्होंने अपना दोहरा शतक पूरा किया.

जब धोनी ने अपना पहला मैच खेल रहे अमित मिश्रा से राउंड द विकेट गेंदबाजी करने को कहा तो उन्होंने माइकल क्लार्क का विकेट झटक लिया. प्रेस कांफ्रेंस में जब दूसरे कप्तान शायद जब विनम्र बनने का असफल अभिनय कर रहे होते तो धोनी का कहना था, ‘फ्लूक था यार’, यानी तुक्के से मिल गया विकेटलेकिन पारी खत्म होने पर धोनी के दोनों हाथों में लड्डू थे. वे न सिर्फ भारत को 400 रनों के पार ले जा चुके थे बल्कि यह भी पक्का कर चुके थे कि तेंदुलकर दोहरे शतक की अद्भुत उपलब्धि तक पहुंच जाएं. ऐसे ही हैं धोनी. नम्र भी और निर्मम भी. वे बखूबी जानते हैं कि कब बेलागलपेट कहना है और कब व्यावहारिक रहना है. वे इतिहास का बोझ लादकर नहीं चलते. वे सरल हैं मगर एकपक्षीय नहीं. वे भोले हुए बिना निष्कपट रहते हैं. और सबसे बड़ी बात यह है कि अपने दिमाग पर उनकी ऐसी पकड़ है जो ज्यादातर लोगों को अप्राप्य होती है.

सटीक फैसले लेने की धोनी की असाधारण क्षमता उनके अपने सहज ज्ञान पर यकीन से उपजती है. उनका विश्वास बच्चों जैसी इस निश्चितता से आता है कि आखिर में सब ठीक ही होगा. नागपुर टेस्ट में जब उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 8-1 की फील्डिंग लगाई तो सुबह के सत्र में ऑस्ट्रेलियाई टीम सिर्फ 42 रन ही बना सकी. धोनी किसी ऊंचे रूमानी आदर्श का पीछा नहीं कर रहे. उनका लक्ष्य कहीं ज्यादा मूर्त है. और वह यह है कि जब भी वे नेतृत्व करें, टीम जीते. ताकत और टाइमिंग के मेल से बनी उनकी बल्लेबाजी क्रिकेट के शुद्धतम रूप को खोजने वाले किसी सौंदर्यशाशास्त्री को खुश नहीं कर सकती. इसके बावजूद वे एकदिवसीय मैचों के शीर्ष बल्लेबाजों की सूची में भी शीर्ष पर हैं. बल्लेबाजी भी उनकी ऐसी है कि एक जैसी सहजता से वे हमलावर भी हो सकते हैं और सुरक्षात्मक भी. यह इसपर निर्भर करता है कि कोई टेस्ट मैच जीतना है या बचाना है.

आखिर ऐसा कैसे हुआ कि रांची जसे छोटे शहर से निकली यह अद्भुत प्रतिभा आज इस खेल के बड़े हरफनमौलाओं में से एक और सबसे प्रतिष्ठित कप्तान के रूप में उभर चुकी है? दरअसल, भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी की कहानी देश के समाज की अलग-अलग परतों के उदय की कहानी है जिसमें अक्सर समाज में होने वाला बदलाव पहले क्रिकेट में  दिखता है. इसलिए एक तरह से देखा जाए तो धोनी का कप्तानी तक पहुंचना एक ऐतिहासिक अनिवार्यता थी. यह कहानी छोटे शहरों में बसने वाले भारत के उन अवसरों तक पहुंचने की कहानी है जिनसे उसे सालों तक वंचित किया जाता रहा. इन वजहों में खेल को अपने तक सीमित रखकर उसे विशिष्ट बनाए रखने की शासकों की इच्छा से लेकर बुनियादी सुविधाओं की कमी तक शामिल हैं. प्रगति के इस पहलू से देखने पर कुलीन वर्ग से मध्यवर्ग और फिर उससे भी नीचे के तबके तक इस खेल का प्रसार नियति द्वारा नियत लगता है.

शुरुआत में क्रिकेट राजाओं या नवाबों का खेल था. 1932 में जब पहली भारतीय टीम लंदन गई तो इसकी कप्तानी पोरबंदर के महाराजा ने की थी. मगर अच्छे खिलाड़ी से ज्यादा उनकी ख्याति एक ऐसे राजा की ज्यादा थी जिसके खाते में रन कम थे, रोल्स रॉयस कारें ज्यादा, इसलिए मैदान पर कप्तानी सीके नायडू ने की. भारत के दूसरे कप्तान विजयनगरम के राजकुमार बने और इस कड़ी में तीसरा नाम जुड़ा पटौदी के नवाब इफ्तिखार अली का.

भारत की आजादी और देश में आए आत्मविश्वास के साथ कप्तानी में वे लोग आए जो महाराजाओं के यहां काम करते थे. लाला अमरनाथ (पटियाला) और विजय हजारे (बड़ौदा) इसके उदाहरण हैं. इसके बाद एक उथल-पुथल का दौर आया जिसमें कप्तान आया राम गया राम की तर्ज पर आते-जाते रहे. मगर फिर भी एयर इंडिया में काम करने वाले जीएस रामचंद और टाटा से जुड़े नारी कांट्रेक्टर के रूप में कप्तानी के भविष्य मौजूद थे ही.

भारत के पहला टेस्ट खेलने के करीब तीन दशक बाद टाइगर पटौदी कप्तानी की कुर्सी पर स्थिरता लाए. यह एक तरह से महाराजा-नवाब दौर की वापसी थी. हालांकि फर्क यह था कि पटौदी खेल को जानते थे और इसे आम लोगों से बेहतर खेलते थे. कप्तान के तौर पर अजित वाडेकर की ताजपोशी के साथ मध्यवर्ग की क्रांति का सूत्रपात हो चुका था. अगले 13 कप्तान पढ़े-लिखे और अच्छा कमाने वाले लोग थे जो पूरे देश में मध्यवर्ग के उभार को दर्शाते थे.

धोनी के नेतृत्व संभालने के कुछ ही महीनों बाद तेंदुलकर का कहना था, ‘धोनी ने अपना व्यवहार जैसा रखा है उससे मुझे बेहद खुशी है. वे एक संतुलित इंसान हैं जिसके पास एक तेज दिमाग है. उनका तरीका साफ और सरल है.’

उदारीकरण के दौर में अजहरूद्दीन कप्तान बने. उनके आने के बाद क्रिकेट में और भी अधिक पैसा आया और उनकी कप्तानी में भारत ने 14 टेस्ट मैच जीते. इनमें से ज्यादातर जीतें घर पर दर्ज की गईं थीं. इसके बाद आई गांगुली-द्रविड़-कुंबले की पीढ़ी. ये ऐसे कप्तान थे जिनके पास अपने पैसे या फिर शिक्षा की बदौलत क्रिकेट के इतर भी विकल्प थे. और फिर आए धोनी. तब तक राजनीतिक और आर्थिक रूप से शहरी भारत छोटे कस्बों के भारत के साथ घुलने-मिलने लगा था. टीवी ने उस पीढ़ी की कल्पनाओं को उड़ान दे दी थी जिसने 1983 में लॉर्ड्स में कपिल को क्रिकेट का विश्वकप उठाए हुए देखा था. क्रिकेट को महानगरों से बाहर फैलाने के क्रिकेट बोर्ड के फैसले से कई प्रतिभाशाली पर अपर्याप्त प्रशिक्षण पाए नौजवानों का इस खेल की मुख्यधारा में आना मुमकिन हो गया. उनकी महत्वाकांक्षाएं अब अवास्तविक नहीं रह गई थीं. सफलता की भूख उनमें थी ही. इस भूख को ईंधन मिला ज्यादा विकल्पों और निचले स्तर पर मिलने वाली सफलताओं से. नई सदी में भारतीय क्रिकेट में आया यह सबसे बड़ा बदलाव था. अब ऐसी जगहों के युवा भी टीम में आ रहे थे जिन्हें क्रिकेट के हिसाब से अपारंपरिक केंद्र कहा जा सकता है. मसलन, भरूच के मुनाफ पटेल, अलीगढ़ के पीयूष चावला, जालंधर के हरभजन सिंह, पलारिवात्तम के श्रीसंत, क्विलोन के टी योहानन, रायबरेली के आरपी सिंह, कूर्ग के रॉबिन उथप्पा. इन जगहों से अंतरराष्ट्रीय स्तर के क्रिकेटर आने लगे थे.

ऐसे में रांची से भी एक नौजवान निकला. इस नौजवान ने फुटबाल की गोलकीपिंग छोड़कर क्रिकेट में विकेटकीपिंग करनी शुरू की और खेल में ऐसे सरल तरीके का प्रदर्शन किया कि अंडर19 स्तर पर ही उसकी भविष्य के खिलाड़ी के रूप में चर्चा होने लगी. शायद सामाजिक बदलाव धोनी के उभार की व्याख्या कर सकें, मगर ये एक कप्तान के रूप में उनकी सफलता या वरिष्ठ खिलाड़ियों में उनकी स्वीकार्यता की व्याख्या नहीं कर पाएंगे. इसके लिए हमें कुछ दूसरे पहलुओं से देखना होगा. जब तेंदुलकर ने अपना पहला मैच खेला था तो धोनी आठ साल के रहे होंगे. इसके बावजूद धोनी के नेतृत्व संभालने के कुछ ही महीनों बाद तेंदुलकर का कहना था, ‘धोनी ने अपना व्यवहार जैसा रखा है उससे मुझे बेहद खुशी है. वे एक संतुलित इंसान हैं जिसके पास एक तेज दिमाग है. उनका तरीका साफ और सरल है.’ वीवीएस लक्ष्मण उन्हें सर्वश्रेष्ठ कप्तानों में से एक बताते हुए कहते हैं कि धोनी ‘शांतचित्त और संतुलित हैं और उनसे आत्मविश्वास फूटता है.’

बहुत समय तक ऐसा रहा कि भारतीय कप्तान की खासी ऊर्जा मैदान के इतर होने वाले खेल में भी जाया होती रही. क्योंकि उसे पता नहीं होता था कि कौन साथी खिलाड़ी उसे कब डस लेगा. यह सहज स्वीकार्यता ही अपने आप में एक बड़ा बदलाव है. धोनी के पूर्ववर्ती अनिल कुंबले को पता है कि ऐसा क्यों है. वे कहते हैं, ‘वरिष्ठ खिलाड़ियों की वर्तमान पीढ़ी में विनाशकारी अहम नहीं है. टीम ही सब-कुछ है.’ इसके उलट दौर में अपना करियर शुरू करने वाले कुंबले इस बदलाव के साथ धोनी के शांत तरीके, दृढ़ रहने की योग्यता और उससे भी अहम टीम के हित में अपनी बल्लेबाजी का सुर बदलने की क्षमता को भी अहम मानते हैं.

धोनी के कप्तानों द्वारा उनके विकास में अदा की गई भूमिका भी महत्वपूर्ण है. राहुल द्रविड़ के नेतृत्व में उन्होंने 19 टेस्ट खेले. कुंबले के नेतृत्व में 13. कर्नाटक के ये दोनों खिलाड़ी कप्तानी के काम में एक दुर्लभ किस्म की बुद्धि, गरिमा और मानव प्रबंधन कौशल लेकर आए. धोनी ने इनसे सीखा कि अगर टीम की अगुवाई करनी हो तो आपका खुद का प्रदर्शन भी मिसाल होना चाहिए. धोनी ने खुद से पहले टीम को रखने की अहमियत भी सीखी (अब भले ही यह पुराने फैशन की बात लगती हो). भारतीय टीम से पहले किसी भी स्तर पर कप्तानी न करने के बावजूद धोनी ने अगर यह काम बहुत ही सहजता से संभाल लिया तो यह उनकी शुरुआती ट्रेनिंग का ही कमाल था. और उनके व्यवहार का भी. अपना आखिरी टेस्ट खेलते कप्तान कुंबले को मैच खत्म होने के बाद अपने कंधों पर बिठाकर पूरे मैदान का चक्कर लगाते धोनी को देखना कितना अविश्वसनीय दृश्य था इसे समझने के लिए आप सीके नायडू को इसी तरह घुमाते विजी या टाइगर पटौदी को कंधे पर बिठाए अजित वाडेकर या फिर बिशन सिंह बेदी को इसी तरह घुमाते सुनील गावस्कर की कल्पना कीजिए. जिस तरह कोई मालिक अपने नौकरों के लिए हीरो नहीं होता इसी तरह कोई भारतीय कप्तान अपने उत्तराधिकारी के लिए भी हीरो नहीं होता. अपने वरिष्ठों के प्रति सम्मान (सौरव गांगुली से उनके आखिरी टेस्ट में कप्तानी करवाना एक और उदाहरण है) और किसी मैच में जीतने पर स्टंप या फिर कोई स्मृतिचिह्न उस खिलाड़ी को देना जो उनकी नजर में इसके सबसे ज्यादा योग्य हो, बताता है कि टीम की अगुवाई करने के लिए कुछ खूबियां धोनी में जन्म से ही मौजूद हैं.

धोनी अब एक ऐसा गुड़ हो गए हैं जिनकी तरफ किस्सारूपी चीटियां अपने आप आकर्षित हो जाती हैं. खुद को धोनी का पुराना दोस्त कहने वालों, उनके नए परिचितों और उनके पास भी जो इन दोनों श्रेणियों में नहीं आते, धोनी से जुड़ा कोई न कोई वाकया जरूर होता है

भारत के सबसे अनुभवी और सफलतम टेस्ट कप्तान (49 मैचों में 21 जीत) गांगुली ने भारतीय टीम में आत्मसम्मान आंदोलन की दूसरी लहर की अगुवाई की. पहली का श्रेय टाइगर पटौदी को जाता है. उन्होंने टीम में अपनी ही तरह का एक भरोसा भरा. अब धोनी दादा के स्वाभाविक उत्तराधिकारी लगते हैं. उनमें गांगुली जैसी कूटनीति है, पर उन जैसे तर्कहीनता के दौरे नहीं. ट्वेंटी-20 विश्वकप में धोनी के लिए जुनून तब अपने चरम पर पहुंच गया जब पाकिस्तान के खिलाफ फाइनल मैच के आखिरी ओवर में जोगिंदर शर्मा को बॉल थमाने का उनका फैसला एक मिसाल बन गया. गांगुली की तरह धोनी ने भी युवाओं में भरोसा किया है और तनावपूर्ण परिस्थितियों में उन्हें झोंकते हुए उन्हें पकने का मौका दिया है. जैसा कि गांगुली कहते हैं, ‘उनके पास किस्मत का वह अतिरिक्त उपहार है जिसकी आपको जरूरत होती है.’

ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मोहाली टेस्ट के दूसरे दिन आखिरी ओवर में जब धोनी ने अपना पहला मैच खेल रहे अमित मिश्रा से राउंड द विकेट गेंदबाजी करने को कहा तो उन्होंने माइकल क्लार्क का विकेट झटक लिया. प्रेस कांफ्रेंस में जब दूसरे कप्तान शायद जब विनम्र बनने का असफल अभिनय कर रहे होते तो धोनी का कहना था, ‘फ्लूक था यार’, यानी तुक्के से मिल गया विकेट. खुद को बेफिक्री से कमतर कहने की यह खासियत कम कप्तानों में देखी गई है. किंग्स्टन में एक दिवसीय मैच हारने के बाद उनका कहना था, ‘हम विकेट को सही तरीके से समझ नहीं पाए.’ भारतीय कप्तानों के बारे में यह माना जाता है कि वे इतना सुरक्षित महसूस नहीं करते कि सीधे अपनी गलती मान सकें.

फिर भी न तो भाग्य हर बार साथ दे सकता है, न ही तुक्के. लेकिन कहना पड़ेगा कि धोनी की सहजवृत्ति ने कभी-कभार ही उन्हें नीचा दिखाया है, चाहे वह बीसमबीस के फाइनल में युसुफ पठान से बल्लेबाजी का आगाज करवाने का फैसला हो या फिर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ एकदिवसीय श्रंखला के फाइनल में प्रवीण कुमार से गेंदबाजी की शुरुआत का निर्णय. धोनी से उनकी टीम के खिलाड़ियों को प्रेरणा मिलती है. कप्तानी को लेकर उनकी सोच एकदम अनूठी है. उनके शब्दों में कप्तान ‘बुनियादी रूप से एक स्वार्थी इनसान होता है जो खिलाड़ियों को अपने काम के लिए चुनता है.’ धोनी का चुनाव सही होता है. स्टीव वॉ की तरह ही वे भी ध्यान रखते हैं कि पूरी टीम खुद को एक इकाई समझे. वे कहते हैं, ‘बतौर कप्तान मैदान के भीतर और बाहर आपको एक-एक सदस्य के साथ हर पल का लुत्फ उठाना चाहिए.’ हेमिल्टन टेस्ट मैच एक दिन पहले ही खत्म होने पर वे फुर्सत के कुछ पल बिताने पूरी टीम को ऑकलैंड ले गए. वहां उन्होंने खूब आराम किया और पूरी टीम नेपियर टेस्ट शुरू होने से महज 18 घंटे पहले ही वहां पहुंची. कभी-कभी आपस में घुलना-मिलना नेट प्रैक्टिस से ज्यादा अहम होता है. 

धोनी अब एक ऐसा गुड़ हो गए हैं जिनकी तरफ किस्सारूपी चीटियां अपने आप आकर्षित हो जाती हैं. खुद को धोनी का पुराना दोस्त कहने वालों, उनके नए परिचितों और उनके पास भी जो इन दोनों श्रेणियों में नहीं आते, धोनी से जुड़ा कोई न कोई वाकया जरूर होता है. उनके चार लीटर दूध पीने का किस्सा कैसे उड़ा इसके बारे में धोनी ने खुद पता लगाया कि यह बात पूर्व भारतीय खिलाड़ी रवि शास्त्री के मुंह से निकली थी. धोनी कहते हैं कि वे एक या दो ही लीटर दूध पीते हैं और किसी ने इसी को बढ़ा-चढ़ाकर आगे बता दिया.

यह है संक्षेप में धोनी की कहानी. उनसे जुड़ी हर चीज बड़ी बन जाती है. अपने पहले ही अंतरराष्ट्रीय सत्र में धोनी कुछ हद तक एक ‘लार्जर देन लाइफ’ व्यक्तित्व बनकर उभरे जो असाधारण उन्मुक्तता से बल्लेबाजी करता था. प्रशंसकों का अपने पसंदीदा खिलाड़ियों का स्वागत करने का एक विशेष तरीका होता है. कपिल देव या वीरेंद्र सहवाग के प्रशंसकों का तरीका हमेशा गांगुली या द्रविड़ के प्रशंसक से अलग होगा. अपने भारी-भरकम रिकॉर्ड के बावजूद गांगुली और द्रविड़ एक बौद्धिक दर्जे का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके खेल की बाकायदा चीरफाड़ की जाती है. धोनी, कपिल-सहवाग वाली श्रेणी में आते हैं. यानी आगे की कतार वाले दर्शकों के पसंदीदा सितारे.

धोनी के बारे में किस्से तेजी से पैदा हुए हैं. वे तेज रफ्तार बाइक चलाना पसंद करते हैं, किशोर कुमार के फैन हैं, कभी-कभी लंबे बाल रखते हैं, उन्हें जानवरों से लगाव है, खासकर कुत्तों से..जब वे पहली बार बल्लेबाजों की सूची में पहले नंबर पर पहुंचे तो प्रशंसकों और मीडिया की तुलना में उनकी प्रतिक्रियाएं कहीं ज्यादा नियंत्रित दिखीं. प्रशंसकों ने उत्साह से इसका जश्न मनाया जबकि मीडिया इसे लेकर पागल-सा हो गया. हर उस व्यक्ति के इंटरव्यू दिखने लगे जो धोनी से हल्की-सी भी जान-पहचान रखता था. रिश्तेदार, दोस्त, साथी खिलाड़ी सब बार-बार वही कहते दिखे.

अपने भारी-भरकम रिकॉर्ड के बावजूद गांगुली और द्रविड़ एक बौद्धिक दर्जे का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके खेल की बाकायदा चीरफाड़ की जाती है. धोनी, कपिल-सहवाग वाली श्रेणी में आते हैं. यानी आगे की कतार वाले दर्शकों के पसंदीदा सितारे

इस दौरान धोनी ने अपने दो बयानों के जरिए धाक जमा दी. उन्होंने कहा कि उन्हें पता है कि ये चीजें अस्थायी हैं और नंबर 1 का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक उनका प्रदर्शन टीम को जीत नहीं दिला सके. दूसरा, उन्होंने मीडिया से निवेदन किया, ‘कृपया हर बार मेरे 40 रन बनाने पर आप इंटरव्यू लेने के लिए मेरे माता-पिता के पास न दौड़ें.’ पहला बयान उनकी परिपक्वता का संकेत था और दूसरा उनकी खीज का जिसे उन्होंने हंसी-हंसी में व्यक्त कर दिया था. गैर पारंपरिक स्थानों से आने वाले खिलाड़ी आगे बढ़ने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं और मिले हुए मौके को हड़बड़ी में जाया नहीं करते. इससे उन्हें दो फायदे होते हैं, एक तो वे अपने लक्ष्य के प्रति बहुत समर्पित हो जाते हैं, दूसरे उनमें बेमतलब की शुद्धता के लिए एक तरह का असम्मान दिखता है. ऐसे क्षेत्रों से आने वाले खिलाड़ियों के लिए तकनीक और सीधे बल्ले से खेलने जैसी बातें सिर्फ किताबी ही होती हैं क्योंकि वहां ताबड़तोड़ बल्लेबाजी की मांग ज्यादा होती है.

धोनी बिना सोचे-समझे ताबड़तोड़ खेलने वाले खिलाड़ी नहीं हैं, लेकिन उनके भीतर आत्मविश्वास और शारीरिक दमखम का वैसा ही अनूठा संतुलन है जो इन क्षेत्रों से आने वाले खिलाड़ियों की खास पहचान होती है. टाइमिंग ऐसे खिलाड़ियों के खेल की पहचान होती है और धोनी की टाइमिंग तो लाजवाब है. छोटी जगहों से आने वाले खिलाड़ियों पर उम्मीदों का बोझ भी कम होता है. टेस्ट क्रिकेट में पहले विकेट की रिकॉर्ड साझेदारी को तोड़ने के करीब पहुंच गए सहवाग ने बाद में कहा कि उन्होंने कभी वीनू मांकड़ या पंकज रॉय का नाम तक नहीं सुना. धोनी ने भी कभी खुद ही माना था कि शुरुआती वर्षों में उन्हें विव रिचर्ड्स के बारे में पता नहीं था; हालांकि बाद में उन्होंने दावा किया कि रिचर्ड्स उनके हीरो थे. रिचर्ड्स का तो पता नहीं, पर धोनी को तेंदुलकर के बारे में पता था और यह प्रेरणा ही अपने आप में काफी थी. अपने हीरो की तरह ही उनका भारत के लिए मैच जीतने का सपना था और जब उन्होंने विशाखापत्तनम में पाकिस्तान के खिलाफ 148 रनों की शानदार पारी खेली तो वे पूरे देश की निगाहों में आ गए.

छह महीने से भी कम समय के भीतर उन्होंने श्रीलंका के खिलाफ 183 रन बनाकर अपना ही रिकॉर्ड सुधार दिया; खेल का खात्मा उन्होंने दसवें छक्के के साथ किया. एकदिवसीय क्रिकेट में किसी विकेटकीपर का यह सबसे बड़ा स्कोर था और उस समय तक सबसे बड़े स्कोरधारक सईद अनवर के रिकॉर्ड से महज 11 रन कम. उस टीम के कप्तान रहे द्रविड़ का कहना था, ‘इस तरह की पारी देखना खुशकिस्मती है.’ द्रविड़ ने उस पारी की तुलना सचिन तेंदुलकर द्वारा ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ शारजाह में खेली गई 143 रनों की पारी से की थी. 50 ओवर तक उन्होंने विकेटकीपिंग की थी और इसके बाद 46 ओवर तक बल्लेबाजी. यह जितना उनके दिल और दिमाग की परीक्षा थी उतनी ही उनकी शारीरिक क्षमता की भी.

बहुत कम बल्लेबाजों को एकदिवसीय मैचों के प्रदर्शन के आधार पर टेस्ट टीम में स्थान बनाने में सफलता मिली है. होता अक्सर इसके उलट रहा है. लेकिन छोटे संस्करण में उनकी ताबड़तोड़ बल्लेबाजी के बाद धोनी को टेस्ट टीम से बाहर रखना मूर्खता होती. चयनकर्ताओं को इस बात का अहसास हुआ और उन्होंने दिनेश कार्तिक की जगह धोनी को रखने का फैसला किया. कार्तिक का कोई दोष नहीं था सिवाय इसके कि वे धोनी नहीं थे. इसके बाद एक नई बहस खड़ी हो गई. क्या धोनी अपनी अनूठी शैली टेस्ट क्रिकेट में जारी रख पाएंगे? क्या यह संभव भी है? इन सवालों के जवाब के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. पाकिस्तान के फैसलाबाद में उन्होंने तेज गेंदबाज शोएब अख्तर को हुक शॉट के जरिए छक्का मारकर शुरुआत की और 34 गेंदों में उनके 50 रन आ गए. शतक पूरा करने के लिए उन्होंने सिर्फ 93 गेंदें खेलीं.

उनकी विकेटकीपिंग में सुधार ने भी तभी रफ्तार पकड़ी जब उन्होंने एक बल्लेबाज के तौर पर खुद को स्थापित करना शुरू किया. विकेट के पीछे खराब प्रदर्शन का दौर बीतने के बाद उन्होंने खुद को एक मजबूत कीपर के रूप में विकसित किया. अब वे लेग स्टंप को छोड़ती गेंदों पर स्टंपिंग के साथ मोटा किनारा लेकर निकली गेंद को फुर्ती के साथ लपकने लगे थे. पूर्व भारतीय विकेटकीपर सैयद किरमानी ने कहा था कि धोनी विकेटकीपिंग के बुनियादी नियमों के मोर्चे पर कमजोर हैं. किरमानी ने धोनी की पंजों की बजाय एड़ियों के बल खड़ा होकर गेंद लपकने वाली शैली की आलोचना की. लेकिन इससे धोनी के प्रदर्शन पर किसी तरह का फर्क नहीं पड़ा. जो चीजें बाकी खिलाड़ियों के लिए गलत लगती वही धोनी की शैली बन गईं, चाहे वह खड़े-खड़े घूमकर की जाने वाली ऑन ड्राइव हो या फिर सपाट बल्ले से लगाई गई कवर ड्राइव.

धोनी को जल्दी ही इस बात का अहसास हो गया था कि वे एक उभरते हुए सितारे हैं. वे आश्चर्य से कहा करते थे, ‘पहले कैमरे मेरे सामने से गुजर जाया करते थे, अब वे मेरे लिए खड़े रहते हैं.’ धोनी सीधे-सीधे अपने दिल की बात कहते हैं. इसी चीज ने उन्हें लोगों का चहेता बनाया. वे कभी भी कोई बेमतलब की बात करते नहीं दिखते. धोनी की इस परिपक्वता के लिए कुछ हद तक यह बात भी जिम्मेदार है कि उन्हें सफलता रातों-रात हासिल नहीं हुई. उनका प्रशिक्षण काफी अच्छे ढंग से हुआ है. अंतरराष्ट्रीय करियर शुरू होने से पहले चार साल उन्होंने प्रथम श्रेणी क्रिकेट में बिताए. साल 2004 में उनके शतक की बदौलत पूर्वी जोन ने देवधर ट्रॉफी पर कब्जा जमाया था. इसके बाद उन्होंने इंडिया ए के लिए नैरोबी में पाकिस्तान ए के खिलाफ दो शतक लगाए और सुर्खियों में आए.

महान कवि टीएस इलियट ने लेखकों को प्रसिद्धि पाने के दो तरीके बताते हुए चेतावनी दी थी कि सनसनीखेज बिकाऊ लेखन के जरिए अचानक अर्जित लोकप्रियता से बेहतर होती है धीरे-धीरे सालों की मेहनत से कमाई गई ख्याति क्योंकि यह टिकाऊ होती है. खिलाड़ियों पर भी यह लागू होता है, विशेषकर भारत में. धोनी मेहनत के जरिए हासिल सफलता और रातों-रात मिली ख्याति का सुंदर मिश्रण बनने में सफल रहे. उनके प्रशिक्षण काल का मकसद उन्हें बड़ी सफलता के लिए तैयार करना था और जब उन्हें इसका मौका मिला तो वे इसके लिए पूरी तरह से तैयार थे.

कप्तान के रूप में धोनी के उत्कर्ष को टाला नहीं जा सकता था. धोनी का उदय शायद इसी तरह की पृष्ठभूमि से आने वाले किसी प्रधानमंत्री के आगमन का संकेत हो. खेल में उपेक्षा का जो संदर्भ क्षेत्र पर लागू होता है राजनीति में वह धर्म और जाति पर ज्यादा सटीक बैठता है. तो धोनी की इस धाक का मतलब शायद यह हो सकता है कि भारत अपने पहले दलित, ईसाई या फिर मुसलमान प्रधानमंत्री के स्वागत की तैयारी कर रहा है. आखिर दक्षिण भारत से पहले कप्तान अजहरुद्दीन के आने के बाद ही देश के पहले दक्षिण भारतीय प्रधानमंत्री (नरसिम्हा राव) की राह सुगम हुई थी.

भारत में क्रिकेट विकास का भी प्रतीक हो सकता है और खुद विकास भी. अगर आप भारत की राजनीति समझना चाहते हैं तो आपको सबसे पहले यहां के क्रिकेट को समझना चाहिए. हालांकि धोनी को इन बातों की चिंता शायद ही हो. वे सिर्फ एक इतिहास बनाने में लगे हुए हैं जिसकी विवेचना का जिम्मा उन्होंने औरों पर छोड़ दिया है. 

सुरेश मेनन 

वरिष्ठ खेल पत्रकार