नागेश्वर और वेंकटम्मा से जब कोई सरिता के बारे में पूछता है तो वे कुछ नहीं कहते. बस दीवार पर टंगी एक फोटो की तरफ इशारा कर देते हैं. आप कुछ और कहें इससे पहले उनकी आंखों से आंसू झरने लगते हैं और फिर वे फफक-फकर रो पड़ते हैं.
‘यह धोखाधड़ी का बहुत गंभीर मामला है. भारत को इस तरह के टीकाकरण पर सावधान रहने की जरूरत है. स्वास्थ्य मंत्रालय को विस्तार से जांच करनी चाहिए कि अभियान के लिए इन आदिवासी और कम पढ़ी-लिखी लड़कियों को ही क्यों चुना गया’आंध्र प्रदेश में खम्मम जिले के अंजुपका गांव में रहने वाले नागेश्वर और वेंकटम्मा खेतिहर मजदूर हैं. सरिता उनकी बेटी थी. इस साल की 21 जनवरी का दिन वेंकटम्मा को भूलता नहीं. इस दिन उन्हें 13 साल की सरिता घर में बेहोश पड़ी मिली थी. पहले तो उन्होंने सोचा कि बेटी ने आत्महत्या करने के इरादे से कीड़े मारने की दवा पी ली है. मगर ऐसा था नहीं क्योंकि दवा की बोतल ज्यों-की-त्यों अलमारी में पड़ी थी. सरिता को तुरंत पास के स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया जहां सहायक स्टाफ और एक डॉक्टर की टीम ने इस बात की पुष्टि की कि मामला जहर का नहीं है. यहां से उसे 25 किमी दूर भद्राचलम के एक अस्पताल भेज दिया गया. रास्ते में उसे मिरगी का एक तेज दौरा पड़ा. अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टरों ने कहा कि सरिता की मौत पहले ही हो चुकी है. पोस्टमार्टम किया गया. मगर इसकी रिपोर्ट सरिता के मां-बाप को नहीं दी गई. इस इलाके में जन्म और मौतों का पंजीकरण करने वाले नल्लीपका स्वास्थ्य केंद्र में सरिता की मौत को खुदकुशी के रूप में दर्ज कर लिया गया. नागेश्वर और वेंकटम्मा ने यह मानने से इनकार कर दिया और इसका विरोध करते हुए अपनी बेटी का अंतिम संस्कार कर दिया.
सरिता की मौत गरीबी, लालच, लापरवाही और उपेक्षा के मेल की कहानी है. नागेश्वर कहते हैं, ‘मेरी बेटी ने आत्महत्या नहीं की थी. उसने जहर नहीं खाया था. उसे टीका लगाने के बाद दौरे पड़ने लगे थे. यह बात उसने भी हमें बताई थी और उसके हॉस्टल सुपरवाइजर ने भी. अस्पताल के अधिकारी झूठ बोल रहे हैं.’ नरशापुरम जन स्वास्थ्य केंद्र, जहां सरिता को सबसे पहले ले जाया गया था, में तैनात डॉक्टर आर बालसुधा का कहना है, ‘जब सरिता को यहां लाया गया था तो वह जिंदा थी. उसने कोई जहर नहीं खाया था. उसे मिरगी के बेहद तेज दौरे पड़ रहे थे और वह बहुत बीमार थी.’
कुछ समय बाद सरिता के अभागे मां-बाप को पता चला कि भद्राचलम से 60 किमी दूर येरागट्टू गांव में पिछले साल 30 अगस्त को 13 साल की सोडी सयम्मा की मौत भी इसी तरह हुई थी. इसे भी डॉक्टरों ने आत्महत्या करार दिया था, मगर सयम्मा के मां-बाप का कहना था कि उनकी बेटी ने न तो जहर खाया था और न ही फांसी लगाई थी. दोनों ही मामलों में स्थानीय जन स्वास्थ्य केंद्रों ने लड़कियों के जहर न पीने की पुष्टि की थी और उन्हें भद्राचलम इलाके के अस्पताल के लिए रेफर किया था. दिलचस्प बात यह है कि इन्हीं स्वास्थ्य केंद्रों के जरिए इन गांवों में ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) का टीका लगाया गया था.
यौन संबंध के जरिए फैलने वाला एचपीवी गर्भाशय कैंसर के कई ज्ञात कारणों में से एक है. जानी-मानी कंपनी मेर्क से जुड़ी एमएसडी नाम की एक कंपनी गार्डसिल नाम का टीका बनाती है. कंपनी दावा करती है कि मासिक चक्र शुरू होने से पहले अगर लड़कियों को यह टीका लगा दिया जाए तो इससे उनका गर्भाशय के कैंसर से बचाव हो जाता है. स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले दुनिया के सबसे बड़े गैर सरकारी संगठनों में से एक पाथ की भारतीय इकाई ने पिछले साल नौ जुलाई से एचपीवी टीका अभियान शुरू किया. शुरुआत में यह परियोजना नमूने के तौर पर आंध्र प्रदेश और गुजरात में चली. इसके तहत खम्मम जिले में 14,000 लड़कियों को गार्डसिल के तीन डोज दिए गए. इनमें एक बड़ा हिस्सा गरीब और आदिवासी परिवारों से आने वाली लड़कियों का था. जिले के जिन तीन क्षेत्रों को इस अभियान के लिए चुना गया वे थे थिरूमलयपलम (शहरी), कोठगुड़म (ग्रामीण) और भद्राचलम (आदिवासी).
मगर इस अभियान को लेकर कुछ गंभीर सवाल हैं. मसलन, क्या इस टीके को बनाने वालों या फिर उनके सहयोगियों ने इसके सारे संभावित दुष्प्रभावों, जिन्हें हम साइड इफेक्ट्स भी कहते हैं, की जानकारी सार्वजनिक की है? क्या इन नाबालिग लड़कियों के मां-बाप ने अपनी स्वीकृति सारी बातें जानने के बाद दी है? जिस आबादी को टीका लगना था उसका चुनाव किस आधार पर हुआ है? क्या किसी तरह के दुष्प्रभावों या उलटे असर की जानकारी देने के लिए कोई तंत्र बनाया गया है?
इस अभियान को लेकर कुछ गंभीर सवाल हैं. मसलन, क्या इस टीके को बनाने वालों या फिर उनके सहयोगियों ने इसके सारे संभावित दुष्प्रभावों, जिन्हें हम साइड इफेक्ट्स भी कहते हैं, की जानकारी सार्वजनिक की है?
हैदराबाद स्थित सूत्र बताते हैं कि आंध्र प्रदेश के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डी नागेंद्र ने इस परियोजना पर पाथ और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के साथ काफी करीब से जुड़कर काम किया है. मंत्रालय का तर्क है कि तीनों इलाकों को गर्भाशय कैंसर की घटनाओं की बड़ी संख्या के कारण चुना गया. मगर इस दावे को कई लोग खारिज करते हैं. सामा रिसोर्स ग्रुप फॉर विमन एंड हेल्थ नाम के संगठन से जुड़ी एनबी सरोजनी कहती हैं, ‘इस बात को साबित करने के लिए कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है. यह पूरी तरह झूठ है.’ इस संगठन ने दूसरे 80 संगठनों और डॉक्टरों के साथ मिलकर इस मुद्दे पर स्वास्थ्य मंत्रालय को एक ज्ञापन भेजा है.
उधर, पाथ का दावा है कि टीके से होने वाले साइड इफेक्ट्स न के बराबर हैं. संगठन के मुताबिक टीका लगाने के बाद बांह में होने वाले दर्द के अलावा इसका कोई और दुष्प्रभाव नहीं. जबकि अमेरिका स्थित जुडिशियल वॉच और वैक्सीन एडवर्स इवेंट्स रिपोर्टिग सिस्टम (वीएईआरएस) जैसे संगठन बताते हैं कि गार्डसिल से सेहत पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों की सूची लंबी है. इनमें खून का थक्का जमना, मिरगी और एलर्जी जैसी चीजें शामिल हैं.
खम्मम में सयम्मा और सरिता की मौत के अलावा भी ध्यान खींचने वाली दूसरी बातें हुई हैं. मसलन, टीके के बाद 120 छात्राओं में मिरगी के दौरे, एलर्जी, डायरिया, चक्कर आने और उल्टी की शिकायत जैसी कई समस्याएं पैदा हो गईं. इसकी खबरें पहले टीवी9 नाम के स्थानीय चैनल पर आनी शुरू हुईं. नरशापुरम के स्वास्थ्य केंद्र में तैनात डॉ आर बालसुधा ने इसकी पुष्टि कीं. यह स्वास्थ्य केंद्र भद्राचलम ब्लॉक के उन चार स्वास्थ्य केंद्रों में से एक था जिसे 16 जुलाई, 2009 से 28 फरवरी, 2010 तक चले टीका अभियान के लिए चुना गया था. नल्लीपका स्वास्थ्य केंद्र से जुड़े डॉ. शेखर बताते हैं, ‘कइयों में समस्याएं पैदा हो गईं. मगर हमें पता नहीं कि क्या आगे जाकर वे गंभीर हुईं क्योंकि हम उन लड़कियों के संपर्क में नहीं हैं.’ इस स्वास्थ्य केंद्र में 2,400 लड़कियों को यह टीका लगाने का लक्ष्य था, मगर 27 फरवरी तक आंकड़ा 1,800 तक ही पहुंच सका था.
माकपा नेता वृंदा करात कहती हैं, ‘यह धोखाधड़ी का बहुत गंभीर मामला है. भारत को इस तरह के टीकाकरण पर सावधान रहने की जरूरत है. स्वास्थ्य मंत्रालय को विस्तार से जांच करनी चाहिए कि अभियान के लिए इन आदिवासी और कम पढ़ी-लिखी लड़कियों को ही क्यों चुना गया. यह गलत धारणा है कि आदिवासी लड़कियों की यौन सक्रियता अधिक होती है और इसलिए उन्हें इस अभियान का हिस्सा बनाना चाहिए.’ करात यह मुद्दा संसद में उठाने की भी योजना बना रही हैं. उधर, इस अभियान में हर अंतरराष्ट्रीय दिशा-निर्देश के पालन का दावा करने वाला पाथ, मौतों और दुष्प्रभावों की खबर से हो रहे नुकसान को काबू करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता नजर आ रहा है. संगठन के एक शीर्ष अधिकारी तहलका से कहते हैं, ‘हमें आंध्र प्रदेश सरकार के कल्याण विभाग द्वारा सिर्फ जिम्मा सौंपा गया था और हम वक्सीन लगाने की प्रक्रिया में शामिल नहीं थे. हम तकनीकी सहयोगी थे और हम तो बस राज्य सरकार की टीम के साथ गए.’ वे यह नहीं बताते कि उनके संगठन को इस परियोजना, जिसे पाथ-आईसीएमआर पोस्ट लाइसेंस्योर ऑबजर्वेशनल स्टडी ऑफ एचपीवी वैक्सीनेशन नाम दिया गया था और जिसमें बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन का पैसा लगा था, के लिए कितने पैसे मिले.
ये मौतें गार्डसिल की वजह से हुईं या नहीं, इसपर बहस की जा सकती है. मगर फिर भी इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि 2006 के बाद वीएईआरएस ने ही हजारों मामलों में इस टीके के प्रतिकूल प्रभावों की बात मानी है
पाथ के एक और अधिकारी कहते हैं, ‘अगर टीके से कोई समस्या है तो इसके बारे में एमएसडी ही बता सकती है, हम नहीं.’ ये अधिकारी आगे कहते हैं कि उनका संगठन इस साल खम्मम जिले में 18,000 और लड़कियों को यह टीका लगाने की योजना बना रहा है जिससे यह जानने में मदद मिलेगी कि क्या यह टीका, राष्ट्रीय टीकाकरण योजना में शामिल किया जा सकता है. पाथ के एक अन्य अधिकारी बताते हैं, ‘हमें पूरा यकीन है कि यह गर्भाशय के कैंसर को रोकने वाला सबसे कम जोखिम वाला टीका है और हम इसे समाज के सबसे कमजोर तबकों तक पहुंचाने में मदद करना चाहते हैं. हम गोपनीयता के प्रावधानों से बंधे हुए हैं और इस वजह से दुष्प्रभाव वाली किसी घटना के बारे में जानकारी नहीं दे सकते. हम यही कह सकते हैं कि हम इसकी काफी करीब से निगरानी कर रहे हैं और चिंता की कोई बात नहीं है. ऐसी घटनाओं को संदर्भ से हटाकर बताना इस समूचे जन स्वास्थ्य कार्यक्रम को जोखिम में डाल देगा.’
‘भारत में सात या आठ तरह के गर्भाशय कैंसर पाए गए हैं. दुर्भाग्य से हमारे पास वास्तविक आंकड़े नहीं हैं’
हैरत की बात यह है कि खम्मम के डिस्ट्रिक्ट इम्यूनिटी ऑफिसर डॉ. बी जयकुमार, जिनपर जिले में इस अभियान की जिम्मेदारी है, कहते हैं कि उन्हें बिल्कुल पता नहीं कि इस अभियान के लिए उनके इलाके का चुनाव आखिर हुआ क्यों. उनके पास न इसे साबित करता कोई आंकड़ा है कि यहां पर कैंसर के मामलों की संख्या बहुत ज्यादा है, न ही उनके या उनकी टीम के पास टीके का सही या गलत असर जांचने का कोई माध्यम है. तो फिर सवाल उठता है कि टीके क्यों लगाए गए? जयकुमार कहते हैं, ‘मुझे इसकी वजहों की जानकारी नहीं है. परिवार कल्याण आयुक्त ने कहा कि यहां पर यह करना है.’ हम उनसे पूछते हैं कि क्या उनके जिले को एक मानव प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था तो वे कहते हैं, ‘ये परीक्षण अंतरराष्ट्रीय बाजार में किए जा चुके हैं.’ मगर खुद जयकुमार ने इस टीके पर कोई अंतरराष्ट्रीय स्तर का अध्ययन नहीं पढ़ा. वे कहते हैं कि यह सब राज्य सरकार का काम है, उनका नहीं.
अंतरराष्ट्रीय परीक्षणों का यह छलावा बहुत चिंताजनक है. यह कोई छिपी हुई बात नहीं कि गर्भाशय के कैंसर से बचाव का टीका बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत पर बहुत बड़ा दांव लगा रही हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में कैंसर से पीड़ित ज्यादातर महिलाओं में इस तरह का कैंसर पाया जाता है. हर घंटे आठ महिलाओं को गर्भाशय के कैंसर की वजह से जान गंवानी पड़ती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह भी अनुमान है कि प्रति वर्ष एक करोड़ तीस लाख महिलाओं में कैंसर की बीमारी देखने में आती है और इनमें से 74,000 की मौत गर्भाशय के कैंसर से होती है. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इसका मतलब है कि दुनिया भर में इससे होने वाली मौतों में से एक-चौथाई से भी ज्यादा भारत में होती हैं. यही वजह है कि भारत में गर्भाशय के कैंसर से लड़ाई का बाजार तकरीबन बारह हजार करोड़ रुपए का है. अंतरराष्ट्रीय दवा कंपनियां इसकी उपेक्षा नहीं कर सकतीं. भारत में इस बाजार के बड़े खिलाड़ी दो हैं. मेर्क की भारतीय इकाई एमएसडी और ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन जो अपना एचपीवी टीका सेर्वेरिक्स नाम से बेचती है. आगे इस बाजार में होड़ और भी कड़ी होने की पूरी संभावना है. पाथ-आईसीएमआर अध्ययन का एक मकसद यह आकलन करना भी था कि अगर इस टीके को जन स्वास्थ्य कार्यक्रम में शामिल कर लिया जाए तो सरकारी खजाने पर कितना बोझ पड़ेगा.
भारत के लिए चिंता की बात यह भी है कि जून, 2006 के बाद से अमेरिका में गार्डसिल का टीका लगने के बाद 61 मौतों की घटनाएं हुई हैं. इसके बाद वहां के मीडिया में मेर्क के खिलाफ काफी शोर हुआ. सरकारी संगठन वीएईआरएस द्वारा दर्ज ऐसे मामलों की सूची में एक 11 साल की लड़की का मामला भी है जिसे मई, 2007 में गार्डसिल का एक टीका लगाया गया था और उसकी तीन दिन बाद ही गंभीर प्रतिक्रियात्मक एलर्जी से मौत हो गई. एक दूसरे मामले में टीका लगने के तीन हफ्ते बाद 12 साल की एक लड़की छह अक्टूबर, 2007 को नींद में ही चल बसी जबकि उसे कोई दूसरी बीमारी नहीं थी. एक और मामले में 20 साल की एक महिला की, 1 अप्रैल, 2008 को टीका लगने के चार दिन बाद ही मौत हो गई.
ये मौतें गार्डसिल की वजह से हुईं या नहीं, इसपर बहस की जा सकती है. मगर फिर भी इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि 2006 के बाद वीएईआरएस ने ही हजारों मामलों में इस टीके के प्रतिकूल प्रभावों की बात मानी है
ब्रिटेन में जहां सेर्वेरिक्स का ज्यादा चलन है, पहली मौत सितंबर, 2009 में सुर्खियों में आई जब 14 साल की नैटली मॉर्टन की टीका लगने के बाद मौत हो गई. यूरोपियन मेडिसिंस एजेंसी भी जर्मनी और ऑस्ट्रिया में हुई उन मौतों का उल्लेख करती है जो कथित तौर पर गार्डसिल से हुई थीं. 2006 में इसकी स्वीकृति मिलने के बाद अमेरिका और यूरोप में गार्डसिल पर 70 से अधिक मौतों और हजारों मामलों में गंभीर समस्याएं पैदा होने का आरोप लगा है. अहम बात यह है कि तहलका को लिखे एक जवाब मेर्क ने खुद भी माना है कि 1 सितंबर, 2009 से गार्डसिल के टीके के बाद वीएईआरएस के पास इसके प्रतिकूल प्रभावों की पंद्रह हजार सैंतीस रिपोर्टें आई हैं जिनमें से 93 फीसदी को गंभीर नहीं माना गया है.
ये मौतें गार्डसिल की वजह से हुईं या नहीं, इसपर बहस की जा सकती है. मगर फिर भी इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि 2006 के बाद वीएईआरएस ने ही हजारों मामलों में इस टीके के प्रतिकूल प्रभावों की बात मानी है. इस तथ्य की पुष्टि यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने भी की है. इन प्रतिकूल प्रभावों में तंत्रिका तंत्र, सांस, रोग प्रतिरोधी तंत्र से संबंधित बीमारियां शामिल हैं.
तर्क यह भी दिया जा सकता है कि दुनिया भर में चार करोड़ महिलाओं को गार्डसिल का एचपीवी का टीका लग चुका है और इनमें 70 मौतों या कुछेक हजार प्रतिकूल प्रभावों के मामलों का इसके साथ जुड़ जाना, वह भी जब इस पर राय बंटी हो, कोई बड़ी बात नहीं है. मगर यहां फिर से सवाल इस बारे में ईमानदारी से बताए जाने, यह सब बताने के बाद अनुमति लेने और पर्याप्त निगरानी तंत्र का उठता है. हैदराबाद स्थित ग्राम्या रिसोर्स सेंटर फॉर विमन की डॉ. रुक्मिणी राव कहती हैं, ‘पश्चिमी देश एचपीवी टीके के खतरों के बारे में तभी जागरूक हुए क्योंकि वहां कड़ी निगरानी व्यवस्थाएं हैं जिसके जरिए दवा के प्रभावों का नियमित अध्ययन किया गया. मगर भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं है.’ खम्मम में आदिवासियों के बीच काम कर रहे एक संगठन एएसडीएस से जुड़े एसवीआरवी प्रसाद कहते हैं, ‘मुझे समझ में नहीं आता कि उन्होंने इस टीके के लिए खम्मम को क्यों चुना. उन्होंने दिल्ली या हैदराबाद में यह प्रयोग क्यों नहीं किया?’ ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमन असोसिएशन की राज्य इकाई की अध्यक्ष पी ज्योति कहती हैं, ‘ग्रेटर हैदराबाद में कहीं ज्यादा लड़कियां हैं. खम्मम ही क्यों? इससे बहुत सवाल खड़े होते हैं. वे इसे गरीब लड़कियों पर इस्तेमाल करते हैं जो कम पढ़ी-लिखी हैं और जिन्हें टीके और इसके प्रतिकूल प्रभावों के बारे में ज्यादा पता नहीं है.’
आरोप और भी हैं. पाथ का दावा है कि टीका तभी असर करता है जब इसे मासिक चक्र शुरू होने से पहले लगाया जाए. लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि टीके के लिए जो आयु वर्ग चुना गया था वही गलत था. भद्राचलम के आदिवासी इलाके में एक दशक तक काम करने वाले चिकित्सक एस प्रभाकर कहते हैं, ‘गर्भाशय का कैंसर सिर्फ प्रौढ़ महिलाओं के गर्भाशय को प्रभावित करता है तो फिर हम क्यों ऐसी लड़कियों को टीका लगा रहे हैं जिनके प्रजनांग अभी विकसित ही हो रहे हों.’
दूसरे सवाल असर और कीमत से जुड़े हैं. मसलन, क्या एचपीवी टीके हर तरह के गर्भाशय कैंसर को रोक सकते हैं? क्या सरकार इसका खर्च उठा सकती है? जवाब थोड़ा निराशाजनक है. गार्डसिल के एक इंजेक्शन की बाजार में कीमत 2,000 रु. है. इस तरह तीन इंजेक्शनों की कीमत 6 हजार रु. आएगी. इसके इतने महंगे होने और इसके असर के बारे में कोई निश्चितता नहीं होने के कारण राव की तरह अनेक लोगों का मानना है कि यह पूरा अभियान ही झांसा है. वे कहती हैं, ‘6,000 रु. खर्च करने के बाद भी लोगों को गर्भाशय की जांच या स्क्रीनिंग करानी होगी. इन लड़कियों या उनके मां-बाप में से कितनों को पता है कि टीके पर इतना खर्च करने से अधिक सस्ता है शरीर की जांच करवा लेना. टीका बहुत महंगा है और गर्भाशय के कैंसर को रोक पाएगा या नहीं, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकते. फिर ऐसा टीका उस देश में कैसे चल सकता है जहां सरकार का सालाना प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य खर्च महज 10 डॉलर हो?’
यह भी गौर करने वाली बात है कि एचपीवी टीका गर्भाशय के कैंसर से जुड़े हर कारण के खिलाफ प्रभावी नहीं है. नई दिल्ली स्थित ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क के सदस्य डॉ गोपाल दाबाडे कहते हैं कि एचपीवी टीके कितना असर करेंगे यह अभी साबित नहीं हुआ है. मौजूदा गार्डसिल टीका गर्भाशय का कैंसर पैदा कर सकने वाले दो तरह के वायरसों एचपीवी 16 और 18 के संक्रमण को रोक सकता है. यह एचपीवी 6 और 11 के संक्रमण को भी रोक सकता है जो जननांगों में गांठ के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं. यह सही है कि दुनिया भर में 16 और 18 एचपीवी गर्भाशय के कैंसर के 70 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार हैं. लेकिन दाबाडे के शब्दों में ‘एचपीवी के अलावा और भी बहुत सारे कारक हैं जिनसे गर्भाशय का कैंसर हो सकता है. यह अनेक लोगों से यौन संबंध बनाने और साफ-सफाई न रखने के कारण भी हो सकता है. अलग-अलग इलाकों में इसकी अलग-अलग वजहें हो सकती हैं.’ करात इससे सहमति जताते हुए कहती हैं, ‘मुझे यह चिंता है कि वे टीके को गर्भाशय के कैंसर के समाधान के रूप में पेश कर रहे हैं. कोई पारदर्शिता नहीं बरती जा रही. एचपीवी तो उन वायरसों में से सिर्फ एक है जिनसे गर्भाशय का कैंसर होता है. बाकी का क्या?’
इन आलोचनाओं का असर भी दिखने लगा है. पिछले साल ग्लैक्सो ने भारी-भरकम विज्ञापनों के साथ एक अभियान शुरू किया था, जिसमें दावा किया गया था कि यह टीका रामबाण है. मेर्क भी ऐसा अभियान शुरू करने वाली थी. अभियान के चार महीनों के भीतर दवा नियंत्रक कार्यालय, जो सीधे स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत काम करता है, ने ग्लैक्सो को यह अभियान रोकने के निर्देश दिए.
हमेशा की तरह भारत में पारदर्शिता का अभाव सबसे बड़ी बाधा है. उच्च पदस्थ सूत्र बताते हैं कि आंध्र प्रदेश परिवार कल्याण विभाग से आदेश आने के बाद हजारों लड़कियों के माता-पिता के नाम सहमति पत्र भेजे गए गए. इन लड़कियों में से ज्यादातर सरकारी होस्टलों में रह रही थीं. सहमति पत्र में दावा किया गया कि खम्मम में मेर्क और वडोदरा, गुजरात में ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन द्वारा मुफ्त में मुहैया करवाया जा रहा यह टीका एचपीवी संक्रमण से बचाएगा. लेकिन इसमें टीके से होने वाले अनेक नुकसानों का जिक्र नहीं था. छात्राओं से कहा गया था कि वे सहमति पत्र पर अपने अभिभावकों के हस्ताक्षर करा लाएं. इसकी एक प्रति तहलका के पास भी है. इसमें लिखा गया है, ‘अगर आप यह टीका नहीं भी लेती हैं तो कोई बात नहीं. आपको इसके लिए कोई सजा नहीं दी जाएगी.’ सरकारी स्कूलों की अनेक लड़कियों और उनके माता-पिता के लिए यह संकेत ही काफी था.
यह मानना गलत होगा कि टीकाकरण इन दो जिलों तक ही सीमित रहेगा. अनेक गैर सरकारी संगठन ऐसे अभियान के लिए देश के ग्रामीण इलाकों में संभावित इलाकों की तलाश में जुट गए हैं. बिहार की राजधानी पटना से 145 किमी दूर गांव गदरौल का मामला लेते हैं, जिसका जिक्र अब तक कहीं नहीं हुआ है. पिछले दिसंबर में कुछ लोगों का एक दल बक्सर जिले में स्थित इस गांव में पहुंचा जिन्होंने गर्भाशय कैंसर से बचाव के टीकों से होने वालेफायदों पर 45 मिनट की एक कार्यशाला का आयोजन किया. इसमें जिस तरह की टीके की गुलाबी तसवीर पेश की गई, उसके बाद किसी श्रोता ने सवाल पूछने की जरूरत नहीं महसूस की. यह दल मई में फिर गांव में लौटने वाला है. पटना मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल के डॉ. भरत सिंह बताते हैं, ‘ग्रामीण बिहार में सबसे बड़ा मिथक यह है कि टीके किसी बीमारी को रोकने का सबसे सुरक्षित उपाय हैं. और बिहार को दोष क्यों दिया जाए? भारत में कुछ ही शहर होंगे जहां डेफिनिटिव स्क्रीनिंग सिस्टम होगा (जहां दवा के दुष्प्रभावों की जांच होती है).’ स्वास्थ्य सचिव के सुजाता राव जैसी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की अधिकारी कहती हैं कि ऐसे महंगे टीके को राष्ट्रीय प्रतिरक्षण कार्यक्रम में शामिल करने की कोई संभावना नहीं है. 2008 में उनके पूर्ववर्ती नरेश दयाल ने भी यही रुख अपनाया था.
लेकिन इसके साफ सबूत हैं कि सरकार के पास टीके के बारे में बहुत कम जानकारी है. दो हफ्ते पहले मीडिया के साथ बातचीत में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के महानिदेशक डॉ. वीएम कटोच का कहना था, ‘भारत में सात या आठ तरह के गर्भाशय कैंसर पाए गए हैं. दुर्भाग्य से हमारे पास वास्तविक आंकड़े नहीं हैं. इसलिए हम रोगग्रस्त इलाकों की गंभीरता के बारे में नहीं जानते. हमारे पास कुछ अस्पतालों से जुटाई बहुत थोड़ी जानकारी है. इसलिए टीका किसी खास व्यक्ति को कितना फायदा पहुंचाएगा, यह हम नहीं जानते.’ इस बारे में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से प्रतिक्रिया पाने के लिए की गई बार-बार कोशिशें बेकार रहीं.
डॉ. राव कहती हैं, ‘मैं इसी तरफ इशारा कर रही थी. भारत में ऐसे अभियानों का मतलब यही है कि वे यहां की भोली-भाली लड़कियों पर इसका प्रयोग करके नतीजे देखना चाहते हैं.’ दिल्ली स्थित राष्ट्रीय इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस टेक्नोलॉजी एंड डेवेलपमेंट स्टडीज की डॉ. वाई माधवी इससे सहमत हैं. वे इस टीके के असरकारक होने के संबंध में विस्तृत आंकड़ों के अभाव की ओर भी ध्यान दिलाती हैं. अब तक हुए अध्ययन दिखाते हैं कि टीका सिर्फ पांच वर्ष के लिए ही सुरक्षा देता है. वे कहती हैं, ‘चूंकि टीके द्वारा लंबे समय तक असर और सुरक्षा के बारे में कोई जानकारी नहीं है, इसलिए हम दावा नहीं कर सकते कि इससे 60-70 प्रतिशत सुरक्षा भी हासिल हो सकेगी.’
इससे कई सवाल उठते हैं. मसलन, अगर बचाव पांच साल के लिए ही होता है तो क्या इसके बाद किसी बूस्टर डोज (यानी फिर से टीका लगाने) की जरूरत होगी? अगर बूस्टर डोज की जरूरत होगी और यह भी नहीं पता कि कितनी बार तो टीके से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का पहलू किस तरह प्रभावित होगा? फिर इन बूस्टर डोजों के लिए पैसा कौन देगा? 2008 के लिए चिकित्सा विज्ञान का नोबेल सम्मान हाराल्ड हाउसन को यह खोज करने पर मिला था कि एचपीवी गर्भाशय कैंसर के लिए जिम्मेदार है. वे कहते हैं कि सबसे अच्छी स्थिति में भी एचपीवी टीकों को बूस्टर डोज की जरूरत होगी.
इस साल 20 फरवरी के अंक में चिकित्सा जगत की मशहूर पत्रिका लैंसेट में प्रकाशित एक लेख में एरिक जे सुबा और स्टेफान एस राब ने वियत-अमेरिकी सर्विकल कैंसर प्रिवेंशन प्रोजेक्ट के हवाले से कहा गया है कि जब तक यह साबित नहीं हो जाता कि एचपीवी टीके गर्भाशय का कैंसर रोकने में प्रभावी हैं तब तक विकासशील देशों को अपने इन टीकों पर भारी-भरकम खर्च करने की बजाय अपने सीमित संसाधन गर्भाशय की जांच में लगाने चाहिए. सरोजिनी पूछती हैं कि क्या भारत में किसी ने यह लेख पढ़ा है?
लगता है कि किसी ने नहीं. उन्होंने भी नहीं, जिन्होंने भारी शोर-शराबे के साथ यह टीकाकरण कार्यक्रम शुरू किया है.