मई, 2008 में जब अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर संप्रग सरकार चौतरफा वार झेल रही थी तब वामदलों को खुश करने के मकसद से आनन-फानन में महिला आरक्षण के लिए जरूरी संविधान संशोधन बिल राज्यसभा में पेश कर दिया गया. दो महीने बाद ही परमाणु करार पर विश्वास मत के दौरान वामपंथियों की जगह समाजवादी पार्टी ने ले ली जो महिला आरक्षण की धुर विरोधी है. फिर अगले दो साल तक इस विधेयक की किसी को याद तक नहीं आई. पिछले दिनों जब महंगाई के मुद्दे पर समूचा विपक्ष एकजुट हो सरकार की नाक में दम किए दे रहा था तो उसे एक बार फिर से इस संविधान संशोधन विधेयक की उपयोगिता याद आ गई जिसने पलक झपकते ही सारी विपक्षी एकता को हवा कर दिया.
अब बिल राज्यसभा में जैसे-तैसे पारित तो हो गया है मगर यह महिला आरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए उद्धत होना भर है. अभी तो इसे सबसे पहले लोकसभा द्वारा पारित किया जाना है. चूंकि राज्यसभा में नहीं बल्कि महिला आरक्षण को लोकसभा में ही लागू होना है और इसके धुर विरोधी तीनों दलों – सपा, राजद और जदयू – के मुखिया भी इसी सदन से आते हैं, इसलिए यहां विरोध के कुछ और नए आयाम देखने को मिल सकते हैं. इसके बावजूद यदि यह विधेयक पारित हो जाता है तो फिर अति महत्वपूर्ण होने के नाते इसका देश के आधे राज्यों की विधायिकाओं -14- द्वारा अनुमोदन किया जाना जरूरी है. चूंकि इस बिल से इन विधायिकाओं की भी 33 फीसदी सीटें महिलाओं के हाथों में जानी हैं, इसलिए लोकसभा वाला मंजर हमें एक-एक कर 14 बार यहां भी देखने को मिल सकता है. सभी राज्यों को ऐसा कितने समय में करना है इसकी भी कोई सीमा संविधान में नहीं बताई गई है. मान लें कि यह भी कुछ सालों में हो जाता है तो फिर यह विधेयक पहले राष्ट्रपति के पास जाएगा और उसके बाद इस संविधान संशोधन विधेयक की भावनाओं से मेल खाता एक महिला आरक्षण विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित किया जाएगा. तब कहीं जाकर इसका पालन करने के लिए जरूरी संस्थाओं और नियमों के निर्माण का कार्य शुरू होगा.
एक अध्ययन के मुताबिक पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के इतर भी अब काफी महिलाएं चुनकर आने लगी हैं. यह परिघटना लोकसभा और विधानसभाओं पर भी लागू हो सकती है. यानी संसद या विधायिका में महिलाओं की संख्या बढ़कर 45-50 फीसदी या और ज्यादा भी हो सकती है. यही बात पुरुष सांसदों के गले नहीं उतर रही. आज लालू, मुलायम और शरद यादव महिलाओं की हिस्सेदारी के प्रति अपनी सद्भावनाओं का ढिंढोरा पीटते हुए पिछड़ों की जरूरतों का ध्यान रखने की दुहाई दे रहे हैं, मगर जब उनकी ही मदद से पिछड़ों को केंद्रीय नियुक्तियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण दिया जा रहा था तब उन्हें पिछड़ी महिलाओं की याद क्यों नहीं आई? आलोचना इस बात को लेकर भी की जा रही है कि चूंकि आरक्षित सीटें अलग-अलग समय में अलग-अलग होंगी, इसलिए जन प्रतिनिधि अपने क्षेत्रों पर ध्यान देना कम कर देंगे. मगर महिलाएं अनारक्षित होने पर उसी सीट से अपना दावा ठोंकने के लिए और ज्यादा मेहनत भी तो कर सकती हैं और पुरुष पांच साल बाद दुबारा दावा ठोंकने के लिए ऐसा कर सकते हैं.
संजय दुबे