फिल्म राइट या रांग
निर्देशक नीरज पाठक
कलाकार सनी देओल, इरफान, ईशा कोप्पिकर
फिल्म का पहला दृश्य पूरी लगन से कोशिश करता है कि आप फिल्म के बारे में बुरी राय बना लें. इसके बाद बेवजह एक आइटम गीत आता है, जो इस तरह की थ्रिलर फिल्मों का जरूरी हिस्सा बन गया है और जिसमें बहुत-सारी विदेशी लड़कियां बहुत कम कपड़ों में बार के किसी खंभे के इर्द-गिर्द नाचती हैं. उसके बाद दीपल शॉ इरफान और सनी देओल के साथ कुछ गैर कानूनी काम करते गुंडों को मिलाकर (यह ‘कुछ’ कभी समझ में नहीं आता) दस-पंद्रह या शायद इससे भी ज्यादा मिनट का, पीछा करने वाला सीक्वेंस रचा गया है. हां, इस बात का हमेशा की तरह खयाल रखा गया है कि सनी जब भी घूंसा या गोली मारें, आदमी पांच फीट ऊपर उछलकर आठ फीट दूर जाकर गिरे. और जब भी हमारे दोनों पुलिसवाले नायक किसी गुंडे को मारकर निकलते हैं तो उनके स्टाइल से चलने को स्लो मोशन में दो-दो मिनट दिखाना तो बनता ही है बॉस!
फिर बहुत-सारी चीजें बेमन से इस तरह बारी-बारी से पेश की जाती हैं, जैसे नागरिक शास्त्र के किसी प्रश्न के उत्तर के बिंदु लिखने हों. इसी क्रम में ईशा और उनके बेटे से हमारा परिचय होता है. बेटे को आगे बहुत काम आना है. पिता को उनकी जिम्मेदारियां याद दिलाते रहनी हैं और कई लंबे और खोखली भावुकता से भरे दृश्यों को हम मासूमों पर थोपना है. बेवकूफ खलनायकों को छोड़कर सब किरदार एक जितने मानसिक स्तर के हैं और इसी फेर में वह बच्चा भी बड़े-बड़े और भयंकर डायलॉग बोलता है. फिल्म की पटकथा इतनी सतही है कि आखिर में काम लेने के लिए जो सूत्न शुरू में छोड़े जाते हैं उन्हें आप बिना चाहे ही पकड़ लेते हैं.
आप सोचते रहते हैं कि कोंकणा ने ऐसा रोल जाने क्यों किया होगा. इरफान तो खराब फिल्मों में भी अपने हिस्से की तालियां बटोर ही लेते हैं. वही हैं जो टीवी सीरियल की गति वाली इस थ्रिलर में आपको दो-तीन बार खुलकर हंसने का मौका देते हैं.
कुछ फिल्मों को अपने साधारण होने का अंदाजा होता है. मगर यह उन फिल्मों में से है जो अपने महत्व को कई गुना बढ़ाकर आंकती हैं और इस गुमान में रहती हैं कि उन्होंने एक नई नैतिक बहस को जन्म दिया है और फिर नया समाधान निकाला है. इसके निर्देशक नीरज पाठक ‘परदेस’ के लेखक थे. जिन एकाध अच्छे दृश्यों पर कैमरा भड़ाम-धड़ाम म्यूजिक के साथ आत्ममुग्ध होकर रुक जाता है उन्हें देखकर लगता है कि नीरज के लिए समय भी नब्बे की फॉर्मूला फिल्मों में ही रुका रह गया है.
बहरहाल, अगर आपका काम हर शुक्रवार समीक्षा लिखना नहीं है तो क्यों बेकार में परेशान होते हैं? फिल्में देखना इतना भी जरूरी नहीं.
गौरव सोलंकी