जरूरी भाजपा

अकसर होता यह था कि जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का घटक कोई धर्मनिरपेक्ष दल -जैसे कि जद (यू) – हिंदुत्व या राम मंदिर पर भाजपा के रुख की आलोचना करता तो भाजपा यह समझाती नजर आती थी कि वह और ऐसा करने वाले दो अलग-अलग दल हैं और गठबंधन में ऐसा होना लाजमी है. मगर हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय परिषद के अधिवेशन में जब भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मुसलिम समुदाय से सदाशयता की अपील की तो सहयोगी शिवसेना ने भाजपा पर ही हिंदुओं और भगवान राम के साथ धोखाधड़ी का इलजाम ठोंक दिया. इसके बाद भाजपा इसे गलत बताते हुए खुद के और शिवसेना के दो अलग दल होने की सफाई देते नजर आई. कुछ समय पहले शिवसेना के मराठी मानुस अभियान का भी भाजपा ने स्पष्ट शब्दों में विरोध कर मुंबई को पूरे देश की बताया था जबकि पहले ऐसे मौकों पर वह कुछ भी बोलना तक मुनासिब नहीं समझती थी.

बीती 20 फरवरी को झारखंड के एक अधिकारी को छुड़ाने के एवज में भाजपा समर्थित शिबू सोरेन सरकार ने कुछ तथाकथित नक्सल समर्थकों को छोड़ने की बात मान ली थी. भाजपा ने इस पर अपने सहयोगी दल से सख्त एतराज दर्ज कराते हुए इसे नितांत ही अस्वीकार्य कदम बताया था. पार्टी पुराने आग्रहों को सावधानी से ताक पर रखते हुए जोर-शोर से महंगाई, आतंकवाद और पाकिस्तान से बातचीत आदि को मुद्दे बनाने का प्रयास करती भी नजर आ रही है.

संक्षेप में कहें तो पिछले काफी समय से अपने द्वारा शासित अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों-सा बर्ताव करती नजर आई भाजपा एक राष्ट्रीय दल और केंद्र में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका निभाती-सी प्रतीत हो रही है. यहां तक कि इंदौर में भाजपा की राष्ट्रीय परिषद के अधिवेशन में लगे पोस्टर भी भाजपा की मानसिकता में आते बदलाव को दर्शाते प्रतीत हो रहे थे. जहां पहले ऐसी बैठकों में पोस्टरों और बैनरों पर अटल और आडवाणी ही छाए रहा करते थे वहीं इस बार इनमें अपेक्षाकृत निचले स्तर के नेताओं को भी बहुतायत में देखा जा सकता था. ऐसा लग रहा था कि पार्टी व्यक्ति आधारित राजनीति से किनारा करने की कोशिशों की भी शुरुआत कर चुकी है.

यदि यह केवल प्रतीत होने से आगे का सच है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए, किसी पार्टी विशेष के प्रति रुझान के चलते नहीं बल्कि इसलिए कि किसी भी तरह की एकछत्रता, उदासीनता या निरंकुशता की जनक होती है. ऐसी एकछत्रता की भावना वाली सत्ता की नजर एकोन्मुखी होती है, जैसा कि 2004 में हुआ था, जब भाजपा कांग्रेस को चुका हुआ मानने के बाद महानगरों की चकाचौंध को गरीब-गुरबों और गांवों से जोड़ने की भूल कर बैठी थी. लोकतंत्र में विकल्पों का होना सत्ताधारी के होने जितना ही महत्वपूर्ण होता है. आजादी से पहले और बाद के काफी साल तक कांग्रेस के भीतर भी समाजवादियों और दक्षिणपंथियों आदि का प्रतिनिधित्व करने वाले गुट हुआ करते थे जो विपक्ष के ज्यादा मजबूत न होने की स्थिति में सरकार के विचार और कर्मों में संतुलन बिठाते थे. ऐसा होना आज भी जरूरी है और इसके लिए भाजपा जरूरी है.

संजय दुबे