सलीब पर साहस (1)

2006 की बात है. तब विजयकुमार डिपार्टमेंट ऑफ पब्लिक एंटरप्राइजेज के सचिव थे. एक दिन आधीरात के करीब उनके घर की घंटी बजी. दरवाजे पर कुछ लोग थे जिन्होंने कहा कि विजयकुमार के बड़े बेटे का एक्सीडेंट हो गया है और वे उनके साथ चलें. मगर विजयकुमार जानते थे कि उनका बेटा उनसे थोड़ी ही दूर पर आराम से सो रहा है. यह उनकी जुबान खामोश करने की एक और कोशिश थी. तकरीबन एक साल बाद दिसंबर, 2007 में जब वे बेलगाम में नियुक्त थे तो एक दिन एक हुड़दंगी उनके ऑफिस में घुस गया. उसने धमकी देने वाले अंदाज में कहा, ‘मैं दिनदहाड़े दो लोगों का खून कर चुका हूं और अभी-अभी जेल से बाहर आया हूं. मैं आपको एक बार देखना चाहता था.’ यह तब हुआ था जब आधिकारिक रूप से विजयकुमार को पुलिस सुरक्षा मिली हुई थी.

चालीस बार जान से मारने की धमकियां, तीन हमले, दस महीनों में सात ट्रांसफर…फिर भी एमएन विजयकुमार अपना काम उसी जुनून के साथ कर रहे हैं जो उनमें तब था जब 1985 में उन्होंने एक आईएएस अधिकारी के रूप में कर्नाटक से अपने करिअर की शुरुआत की थी

कर्नाटक कैडर के आईएएस अधिकारी के रूप में अपने 25 साल के कार्यकाल में विजयकुमार ने हमेशा भ्रष्टाचार का भांडाफोड़ करने की कोशिश की है. वे कहते हैं, ‘अगर जनहित के खिलाफ कोई चीज हो रही है और आप अकेले हैं जो उनकी तरफ इशारा कर सकते हैं तो आपको बोलना होगा. जनसेवकों के रूप में हम सतर्क रहने की शपथ लेते हैं.’ 

अपनी जान पर खतरे के बारे में विजयकुमार केंद्रीय सतर्कता आयोग और कर्नाटक मानवाधिकार आयोग, दोनों को लिख चुके हैं मगर कोई फायदा नहीं हुआ. जब उनकी पत्नी जयश्री को यह अहसास हो गया कि व्यवस्था में किसी को भी उनके पति की जान की परवाह नहीं तो उन्होंने जनता के पास सीधे जाने का फैसला किया. जैसा कि वे बताती हैं, ‘मैंने एक वेबसाइट बनाई और हर चीज को दस्तावेज के रूप में इस पर सहेजना शुरू किया. मैं नहीं चाहती थी कि इंसाफ के लिए लड़ाई मुझे उन्हें खोने के बाद छेड़नी पड़े.’

2007 में वेबसाइट शुरू होने के बाद जल्द ही विजयकुमार को तत्कालीन मुख्य सचिव पीबी महिषि की चिट्ठी मिली. इसमें कहा गया था कि सरकारी सेवक की पत्नी इस तरह की वेबसाइट नहीं चला सकती क्योंकि पति और पत्नी के रूप में वे दोनों एक ही इकाई हैं. इसमें यह भी कहा गया था कि वेबसाइट जारी रखने के लिए जयश्री को अपने पति से अलग होना होगा.

इस दंपत्ति के लिए मुसीबत तब शुरू हुई थी जब ऊर्जा सुधार विभाग में विशेष सचिव के रूप में तैनात विजयकुमार ने 344 करोड़ रुपए के दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठाई थी. 2005 में उन्होंने इस बारे में कर्नाटक के मुख्य सचिव को 30 पन्नों की एक रिपोर्ट सौंपी. जैसा कि वे बताते हैं, ‘सबसे बुरी चीज जो मुझे लगी वह यह थी कि गरीबों के लिए किए गए कामों पर करोड़ों रुपए खर्च करने के दावे किए गए थे. जबकि आंकड़े इसके उलट कहानी कह रहे थे.’ आधिकारिक तौर पर गरीबों तक बिजली पहुंचाने के लिए भारी सब्सिडियां दी जा रही थीं. मगर 800 गांवों के टैरिफ और मीटर रीडिंगों का अध्ययन करने के बाद विजयकुमार ने पाया कि असल में गरीबों के नाम पर अमीरों को सब्सिडियां मिल रही थीं.

तब के मुख्य सचिव केके मिश्रा ने विजयकुमार को चेतावनी दी थी कि वे संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई न करें. विजयकुमार के मुताबिक मिश्रा ने उनसे कहा, ‘वे तुम्हें खत्म कर देंगे. ऐसा मत करो. वे तुम्हें बर्बाद करने के लिए किसी भी हद तक चले जाएंगे.’ मगर विजयकुमार माने नहीं. मिश्रा जल्द रिटायर हो गए और कुछ समय बाद उनकी जगह पीपी महिषि ने ले ली. विजयकुमार ने मांग की कि उनकी रिपोर्ट पर कार्रवाई की जाए वर्ना वे इसे सार्वजनिक कर देंगे. महिषि का जवाब था, ‘मुझे इससे भी बड़े घोटालों की खबर है. तुम इतना शोर क्यों मचा रहे हो?’ जयश्री भी इस बैठक के दौरान मौजूद थीं. वे महिषि के शब्द याद करती हैं, ‘भ्रष्टाचारियों के ऊपर मेरा हाथ है. जांच करने की जरूरत नहीं.’

तहलका ने जब इस बारे में महिषि से संपर्क किया तो उन्होंने माना कि विजयकुमार उनसे मिले थे. मगर उनका कहना था, ‘वे मेरे पास ऐसी कोई रिपोर्ट लेकर नहीं आए थे जिस पर मैं कार्रवाई करता. इसलिए मैंने उनसे कहा कि वे अपना काम करें और भ्रष्टाचार से निपटने का काम दूसरी संस्थाओं पर छोड़ दें. वे झूठे आरोप लगा रहे हैं.’ महिषि आगे यह भी जोड़ते हैं कि उन्होंने विजयकुमार के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की थी और अपने और विजयकुमार के बीच के पत्राचार को मनोरोगी वार्ड को भेज दिया था. विजयकुमार कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि मुख्य सचिव ने मेरी रिपोर्ट उन्हीं लोगों को दे दी जिनके खिलाफ मैंने शिकायत की थी. बाद में आरटीआई के तहत आवेदन लगाने पर पता चला कि मेरी रिपोर्ट का कहीं कोई पता नहीं.’

सितंबर 2006 से जून 2007 के बीच विजयकुमार का सात बार तबादला किया गया. एक बार तो उन्हें अपने रैंक से नीचे का पद तक दे दिया गया जबकि असल में उनका प्रमोशन होना था. इन्हीं तबादलों के दौरान एक बार उन्हें एक ऐसे विभाग में भेज दिया गया जो काम ही नहीं कर रहा था. यहां उन्हें चार महीनों तक तनख्वाह नहीं मिली.

विजयकुमार जहां भी गए भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ न कुछ करते रहे और नतीजतन उन्हें फिर दूसरी जगह पटका जाता रहा. बेंगलुरू का क्षेत्रीय आयुक्त बनने के बीस दिन बाद ही विजयुकमार ने एक योजना बनाई जिसमें जनता सूचना के अधिकार के तहत आने वाली जानकारी को बिना किसी झंझट के सीधे इंटरनेट पर देख सकती थी. इसमें खास दिन या समय जैसी कोई बाधा नहीं होती. मगर योजना अमल में आने से दो दिन पहले ही उनका तबादला कर दिया गया. इसके बाद उन्हें मैसूर लैंप्स नाम की एक कंपनी की एक बेकार पड़ी इकाई का प्रबंध निदेशक बना दिया गया. जब उन्होंने इसे पुनर्जीवित करने की एक योजना बनाकर सौंपी तो तबादला कर उन्हें बेलगाम भेज दिया गया. यहां उन्हें कमांड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी में एक ऐसे पद पर काम करना था जो दरअसल इंजीनियरों के लिए होता है.

यह दिसंबर, 2007 की बात है. विजयकुमार ने पुलिस सुरक्षा के बिना बेलगाम जाने से इनकार कर दिया. उन्हें सुरक्षा तो मिली पर सिर्फ कागजों पर. जयश्री बताती हैं, ‘अधिकारी एक बार भी हमारे यहां आए बिना अपनी बीट बुक भरते रहे.’ इस तरह की पुलिस सुरक्षा में रहते हुए विजयकुमार पर दो जानलेवा हमले हुए. जैसा कि वे याद करते हैं, ‘पुलिस का कहना था कि वे मेरी सुरक्षा नहीं कर सकते इसलिए मुझे सीबीआई सुरक्षा के लिए कहना चाहिए.’ इन दिनों वे प्रधान सचिव के स्तर के पद पर हैं और कर्नाटक सिल्क मैनेजिंग बोर्ड के चेयरमैन बनकर काम कर रहे हैं जो कि काफी हद तक नाम का ही पद है.

मगर विजयकुमार यह प्रताड़ना झेलने वाले अकेले नहीं हैं. 2006 से उनकी पत्नी जयश्री उनके समर्थन में लगातार आरटीआई आवेदन दाखिल कर रही हैं. जब भ्रष्टाचार पर बनी एक उच्चस्तरीय समिति की कार्यशैली के बारे में पूछे गए उनके सवालों का कोई जवाब नहीं मिला तो जयश्री ने कर्नाटक सूचना आयोग की शरण ली. आयोग की इमारत से वे बाहर निकली ही थीं कि एक शख्स ने उनका रास्ता रोककर उनसे कहा, ‘अपने सभी आवेदन वापस ले लो वरना नतीजे बहुत खतरनाक होंगे.’ एक अन्य घटना में जब वे मुख्य सचिव के खिलाफ मिली एक जानकारी को सार्वजनिक करने के लिए एक प्रेस

कॉफ्रेंस में जा रही थीं तो एक बस ने उनकी कार में टक्कर मारने की कोशिश की. जयश्री बताती हैं, ‘ड्राइवर की सतर्कता से हम बच गए. हमारी किस्मत ठीक रही है. जब भी किसी ने हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, कोई न कोई हमें बचाने के लिए मौजूद रहा. मुझे नहीं पता ऐसा कब तक चल पाएगा.’

‘अब भी मेरी जान को खतरा है’ 

एचएस डिलिमा

                                                                                                                                                                                        पांच साल पहले 75 वर्ष के बुजुर्ग पर उनके घर के सामने हंसिए से हमला हुआ. खून से लथपथ होने के बावजूद उन्होंने हमलावर से जूझते हुए अपनी जान बचाई. तब से पांच वर्ष बीत गए. डिलिमा कई बार हमलावर को अंधेरी इलाके में आजादी से घूमते हुए देख चुके हैं. वे उसके घर का पता जानते हैं और उन्होंने कई बार पुलिस को वहां तक पहुंचाने की पेशकश की. इसके बावजूद मुंबई पुलिस ने यह कह कर उनका केस बंद कर दिया कि उनके हमलावर को खोजा नहीं जा सका.

डिलिमा की व्यथा कथा इतनी भर नहीं है. हमले से कुछ ही महीने पहले उन्होंने पुलिस से सुरक्षा की मांग की थी, क्योंकि किसी ने उन्हें जान से मारने की धमकियां दी थीं. यह वही आदमी था, जिसने बाद में उनकी जान लेने की कोशिश कीलेकिन डिलिमा की व्यथा कथा इतनी भर नहीं है. हमले से कुछ ही महीने पहले उन्होंने पुलिस से सुरक्षा की मांग की थी, क्योंकि किसी ने उन्हें जान से मारने की धमकियां दी थीं. यह वही आदमी था, जिसने बाद में उनकी जान लेने की कोशिश की. लेकिन डालमिया को कोई सुरक्षा नहीं दी गई. आज भी वे बिना सुरक्षा के ही घूमते हैं. पिछले एक दशक से डिलिमा मुंबई के अंधेरी पश्चिम इलाके में अवध इमारतों के निर्माण के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं. वे बताते हैं,‘इस इलाके तक पहुंचने वाले सभी रास्तों पर अवैध इमारतें बन गई हैं. इस इलाके में अब सिर्फ उसी तंग गली के जरिए पहुंचा जा सकता है जहां मैं रहता हूं.’

उनकी शिकायतें वर्षो तक धूल खाती रहीं. नवंबर, 2004 में अधिकारियों ने एक शिकायत पर कार्रवाई की. डिलिमा ने कुछ तसवीरों की मदद से बॉम्बे म्युनिसिपल कारपोरेशन (बीएमसी) से लड़ाई लड़ी और एक स्टे ऑर्डर जारी करवाने में सफल रहे. जल्दी ही अंधेरी की लेन नं 1 का हाउस नं 77 ढहा दिया गया. यह एक छोटी सी जीत थी जिसने आगे के लिए उम्मीदें बड़ी कर दी थीं.

लेकिन इस छोटी सफलता के लिए भी डिलिमा को कीमत चुकानी पड़ी. कुछ ही महीने बाद मार्च, 2005 में एक दिन जब डिलिमा अपने घर लौट रहे थे, तो उनके घर के बाहर उन पर पीछे से हमला हुआ. यह हमला हंसिए से हुआ था. उन्होंने मामले की एफआईआर में कम से कम 8 लोगों के नाम दर्ज कराए, जिन पर उन्हें शक था. तब से डिलिमा न केवल भू-माफियाओं से बल्कि उस पुलिस और व्यवस्था से भी जूझ रहे हैं जिसका फर्ज ही है नागरिकों की सुरक्षा. उनके अनुसार पुलिस ने जांच के नाम पर सिर्फ खानापूरी की. 2006 में एक संक्षिप्त रिपोर्ट जमा कर मामले को बंद कर दिया गया. लेकिन डिलिमा को इसकी जानकारी नहीं थी. जब इस बारे में उनके सवालों को नहीं सुना गया तो उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन किया. तब कहीं जाकर जनवरी, 2007 में उन्हें पता लगा कि संदिग्धों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही नहीं की गई.

इस बीच डिलिमा ने अपनी खोज-बीन के जरिए 2004 में अपनी हत्या की सुपारी देनेवालों के बारे में कुछ पक्की सूचनाएं जमा कर ली थीं. वे उन्हें लेकर अपना मामला फिर से शुरू करने के लिए जून, 2007 में अंधेरी के डीजीपी और एसीपी से मिले. लेकिन अधिकारियों ने केस को फिर से खोलने से मना कर दिया. तब एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मजिस्ट्रेट के आदेश से नवंबर, 2008 में मामला फिर से खुल सका.

लेकिन डिलिमा बताते हैं कि इसके बावजूद कुछ खास कार्रवाई नहीं हुई है. जांच भी रुकी हुई है. इसे लेकर उन्होंने बीएमसी और मुंबई पुलिस को कम से कम 200 चिट्ठियां लिखी होंगी. उन्होंने आरटीआई के तहत जमा किए गए सबूत पेश किए हैं जो करोड़ों रुपए के अवैध निर्माण की तरफ इशारा करते हैं. डिलिमा कहते हैं, ‘मुंबई का बिल्डिंग प्रपोजल्स डिपार्टमेंट खुद ही मानता है कि इन निर्माणों के लिए उससे मंजूरी नहीं ली गई थी.’

लेकिन इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हो रही है. 2006 में डिलिमा ने मुंबई हाई कोर्ट में इन्हीं सबूतों के साथ एक जनहित याचिका दायर की थी, जो अब भी लंबित पड़ी है. जबकि डिलिमा को अब भी धमकियां मिल रही हैं. दो महीने पहले उन्हें मुंबई के भू-माफिया की चिट्ठी मिली है, जिसमें कहा गया था कि उनकी हत्या के लिए पांच लाख की सुपारी दे दी गई है.

डिलिमा कहते हैं, ‘मेरे जैसे कार्यकर्ता तब तक सुरक्षित नहीं हैं जब तक पुलिस जवाबदेह और जिम्मेदार नहीं बनती जो कि उसे भारतीय संविधान के मुताबिक होना चाहिए. अब भी मेरी जान को खतरा है.’