सलीब पर साहस

वे बस अपना फर्ज निभा रहे थे. मगर प्रशंसा के बजाय उन्हें मिली प्रताड़ना, परेशानियां और कभी-कभी मौत भी. तुषा मित्तल बता रही हैं कि भारत में व्यवस्था को कोसने के बजाय उसे बदलने का काम कितना जोखिमभरा है.

संजीव चतुर्वेदी की कहानी सही और गलत के बीच होने वाले सनातन संघर्ष की कहानी है. संयोग देखिए कि इसकी शुरूआत उसी कुरूक्षेत्र से होती है जहां महाभारत का युद्ध लड़ा गया था. लेकिन चतुर्वेदी का महाभारत थोड़ा अलग है. महाभारत में पांडव पांच थे. यहां चतुर्वेदी अकेले हैं. महाभारत में लड़ाई पांडवों ने नहीं छेड़ी थी. यहां छेड़ी है. यह लड़ाई अप्रैल, 2007 की एक दोपहर को शुरू हुई थी. तब चतुर्वेदी को कुरूक्षेत्र का डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर (डीएफओ) बने छह महीने ही हुए थे. नेशनल फॉरेस्ट एकेडमी, देहरादून में प्रशिक्षण के बाद उनकी यह पहली पोस्टिंग थी. हरियाणा के सबसे बड़े संरक्षित क्षेत्रों में से एक सरस्वती वन्यजीव अभ्यारण्य की देखभाल का काम उनके जिम्मे था. काले हिरण जैसी कई दुर्लभ प्रजातियों का बसेरा यह अभ्यारण्य 34 साल के चतुर्वेदी के लिए किसी मंदिर जैसा था और भारतीय वन सेवा का अधिकारी होने के नाते वे खुद को इसका संरक्षक मानते थे. उस दोपहर जब वे इसका दौरा कर रहे थे तो एक जगह पर अचानक कुछ देखकर वे जड़ हो गए. सामने का नजारा चौंकाने वाला था. बबूल, नीम और यूकेलिप्टिस के सैकडों पेड़ जमीन पर गिरे हुए थे और कई मशीनें मलबा साफ करने के काम में जुटी थीं. वन्यजीव सुरक्षा कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए जरूरी मंजूरी लिए बिना अभ्यारण्य के बीच से एक विशाल नहर बनाने का काम चल रहा था.

चतुर्वेदी की लड़ाई को सिर्फ एक अभ्यारण्य बचाने का जुनून या भ्रष्टाचार उजागर करने की कोशिश के तौर पर देखना भूल होगी. दरअसल यह यह उस चीज को बचाने की लड़ाई है जिसे वे बहुत पवित्र समझते हैं. यह चीज है अपने बुनियादी कर्तव्य को निभाने का अधिकार

चतुर्वेदी ने तुरंत निर्माण कार्य रोकने के आदेश दिए. इसके बाद उन्होंने पेड़ों के अवैध कटान और पर्यावास के विनाश पर हरियाणा सिंचाई विभाग के ठेकेदारों और अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई. साथ ही उन्होंने राज्य के मुख्य वन्यजीव संरक्षक (चीफ वाइल्डलाइफ वार्डन) आरडी जकाती को भी इस बारे में सचेत कर दिया.

मगर अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय जकाती ने चतुर्वेदी के आदेश को ही निरस्त कर दिया. इसके बाद फौरन ही चतुर्वेदी का तबादला हो गया. चार साल बाद जकाती नेशनल फॉरेस्ट एकेडमी के निदेशक हैं जबकि चतुर्वेदी आज भी तबादलों, आरोपपत्रों और फर्जी एफआईआरों से जूझ रहे हैं. सही रास्ते पर चलने की उन्हें यह कीमत चुकानी पड़ रही है.

चतुर्वेदी की लड़ाई को सिर्फ एक अभ्यारण्य बचाने का जुनून या भ्रष्टाचार उजागर करने की कोशिश के तौर पर देखना भूल होगी. दरअसल यह यह उस चीज को बचाने की लड़ाई है जिसे वे बहुत पवित्र समझते हैं. यह चीज है अपने बुनियादी कर्तव्य को निभाने का अधिकार. चतुर्वेदी ने कभी अपने भाई राजीव (वे भी राजस्थान में तैनात आईएफएस अधिकारी हैं) से कहा था, ‘हम जनता के पैसे और प्राकृतिक संसाधनों के ट्रस्टी हैं.’ इसी सोच की वजह से चार साल के दौरान उनका 11 बार तबादला हो चुका है. किसी एक जगह पर उनका सबसे लंबा कार्यकाल साढ़े सात महीने का था. इन चार साल के दरम्यान वे जहां भी गए नई लड़ाई छेड़ते रहे.

कुरूक्षेत्र में अपनी पहली पोस्टिंग के साथ ही चतुर्वेदी की ख्याति एक ऐसे अफसर के रूप में फैल गई थी जिसे कोई भी लालच भ्रष्ट नहीं कर सकता. शायद इसीलिए यह मालूम होते हुए भी 110किमी लंबी हिसार-कुरूक्षेत्र नहर राज्य सरकार की प्रिय परियोजना है, उन्होंने निर्माण कार्य रोकने के आदेश दे दिए. 23 मई, 2007 को चतुर्वेदी ने एक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें अभ्यारण्य को नुकसान पहुंचाए बिना नहर के लिए वैकल्पिक रास्ते सुझाए गए थे. मगर अगले ही दिन जकाती ने इसे खारिज कर दिया.

इसके बाद हरियाणा के मुख्य सचिव (वन) एचसी दिसोदिया ने चतुर्वेदी को एक पत्र लिखा जिसमें उनके इस कदम को ‘दुर्व्यवहार’ करार दिया गया था. इस पत्र के शब्द थे, ‘आपको चेतावनी दी जाती है कि आप भविष्य में इस तरह की गतिविधियों में शामिल न हों.’ चतुर्वेदी के तबादले के बाद वन विभाग ने अभ्यारण्य के भीतर पड़ने वाले नहर के हिस्से को वन्य जीवों के लिए जल स्रोत घोषित कर दिया जबकि इसमें पानी ही नहीं था. इसके बाद हरियाणा सरकार ने इसे आरक्षित वन भूमि के दायरे से बाहर कर दिया.

अगस्त 2007 में भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट नाम के एक गैरसरकारी संगठन ने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय अधिकार प्राप्त (सीईसी) में एक याचिका दायर की. इस पर अपने बचाव में हरियाणा सरकार का कहना था कि ‘जो उल्लंघन हुए हैं वे तकनीकी प्रकृति के थे और जानबूझकर नहीं किए गए थे. सरकार ने हमेशा वन और वन्यजीवों के बेहतर प्रबंधन के लिए काम किया है.’ मगर अपने फैसले में सीईसी ने कहा कि ‘वन संरक्षण कानून के तहत जरूरी मंजूरी लिए बिना निर्माण कार्य शुरू कर दिए गए जो वन्यजीव सुरक्षा कानून का उल्लंघन है.’ मगर चूंकि अब भूमि को आरक्षित वन भूमि की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था इसलिए सीईसी की नजर में दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई का कोई अधिकार नहीं बनता था. हरियाणा सरकार पर एक करोड़ रुपए का जुर्माना लगाकर मामला खत्म कर दिया गया.

छरहरे बदन और खुशनुमा मिजाज के चतुर्वेदी खुद के सरकारी अधिकारी होने का हवाला देकर पहले-पहल तहलका से बात करने से मना कर देते हैं. मगर हिसार में उनसे बार-बार मिलना ज्यादा मुश्किल नहीं है जहां वे फिलहाल डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर के रूप में तैनात हैं. जब हम उनसे कहते हैं कि वे एक योद्धा हैं तो वे हंसते हैं और कहते हैं कि उन्होंने खुद को कभी इस रूप में नहीं देखा. वे फर्ज के अपनी जवाबदेही में यकीन रखने वाले इंसान हैं और उन्हें लगता है कि अगर वे अपना दायित्व पूरा नहीं करते तो वे अपनी ही नजर में गिर जाएंगे. चतुर्वेदी के परिवार के लोग बताते हैं कि उनसे सुरक्षा लेने को कहा गया पर उन्होंने यह कहते हुए इससे मना कर दिया क्योंकि इससे यह संदेश जाता कि वे डरे हुए हैं. परिवारवालों के मुताबिक चतुर्वेदी ने उनसे कहा, ‘धर्म का अर्थ है बिना शिकायत अपना कर्तव्य पूरा करना, यह चिंता किए बिना कि इसके परिणाम क्या होंगे. मैं अपने काम का आनंद ले रहा हूं.’

कुरूक्षेत्र से चतुर्वेदी का तबादला एक दूरदराज के कस्बे फतेहाबाद कर दिया गया. यहां उन्हें पता चला कि उनका विभाग एक हर्बल पार्क के लिए दुर्लभ पेड़ों और जड़ी-बूटियों की खरीद पर करोड़ों रुपए खर्च कर रहा है. उन्हें यह भी जानकारी मिली कि यह पार्क सरकारी नहीं बल्कि एक निजी जमीन पर बनाया जा रहा है जो राज्य की वनमंत्री किरण चौधरी के करीबी बताए जाने वाले ताकतवर नेता प्रहलाद सिंह गिलाखेड़ा के परिवार की है. चतुर्वेदी ने तुरंत काम रोकने के आदेश दिए और इसकी जांच शुरू की कि इस काम के लिए पैसे की मंजूरी कैसे दी गई. मगर उनकी पीठ थपथपाने की बजाय 12 जुलाई, 2007 को हरियाणा के शीर्ष वन अधिकारी प्रधान मुख्य वन संरक्षक जेके रावत ने लिखा, ‘आदरणीय वन मंत्री इससे काफी नाराज थीं और उन्होंने मुझसे फौरन काम दोबारा शुरू करवाने के लिए कहा है.’ चतुर्वेदी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें तीन अगस्त 2007 को निलंबित कर दिया गया. अचानक उनके लिए यह अब निजी गरिमा का मामला बन गया. उन्होंने फैसला किया कि खुद को निर्दोष साबित करने तक वे चैन से नहीं बैठेंगे. उनके भाई राजीव याद करते हैं, ‘उन्होंने कहा कि ये सिर्फ छोटे-मोटे झटके हैं, वे मुझे नहीं हरा सकते.’

चतुर्वेदी जीत भी गए. सेवा नियमों के मुताबिक निलंबन के 15 दिन के भीतर राज्य सरकार को इसके बारे में एक रिपोर्ट बनाकर केंद्र को देनी चाहिए थी. मगर ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं भेजी गई. निलंबन आदेश में इस कार्रवाई की कोई वजह नहीं बताई गई थी. इसमें सिर्फ यही लिखा गया था, ‘अनदेखी और बढ़ावे की गतिविधियों के चलते आपको निलंबित किया जाता है.’ चतुर्वेदी ने सूचना का अधिकार कानून के तहत वन विभाग में आवेदन कर अपनी निलंबन फाइल पर लिखी गई टिप्पणी की जानकारी मांगी. विभाग ने यह कहते हुए इससे मना कर दिया कि ऐसा करने से जांच प्रक्रिया में बाधा आएगी. चतुर्वेदी ने हार नहीं मानी. कई और आवेदनों के बाद राज्य सूचना आयोग ने मामले में दखल देते हुए विभाग से उन्हें यह टिप्पणियां देने को कहा.

ये टिप्पणियां चौंकाने वाली थीं और इससे वन मंत्री चौधरी पर भी सवाल खड़े होते थे. पहले वन विभाग के शीर्ष अधिकारी रावत ने लिखा था, ‘अधिकारी को किसी भी क्षेत्रीय शाखा में रखना विभाग के हितों के लिए ठीक नहीं होगा जहां कई योजनाएं और परियोजनाएं चल रही हैं और लोगों से लेन-देन का काफी व्यवहार हो रहा है.’ इसमें आगे जोड़ते हुए चौधरी के शब्द थे, ‘वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ बार-बार की अनुशासनहीनता को देखते हुए अधिकारी (चतुर्वेदी)को निलंबित किया जा सकता है.’ इसके बाद मुख्यमंत्री कार्यालय ने पहले तो यह लिखा कि चतुर्वेदी को अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए मगर इसके बाद तुरंत ही यू टर्न लेते हुए फाइल पर लिखा गया, ‘पुनर्विचार के बाद मुख्यमंत्री ने प्रस्ताव ‘बी’ को मंजूरी दे दी है.’

चतुर्वेदी ने अपने निलंबन के खिलाफ अपील की. जब केंद्र ने राज्य सरकार से इस बाबत पूछा तो कोई जवाब नहीं आया. इसलिए जनवरी, 2008 में राष्ट्रपति के आदेश पर इस निलंबन को रद्द कर दिया गया. निलंबन के दौरान ही उनके खिलाफ एक फर्जी एफआईआर दर्ज कर दी गई थी. इसमें उन पर धमकी देने और कचनार के एक पौधे की चोरी के आरोप थे. यह चोरी मार्च, 2007 में फतेहाबाद में हुई दिखाई गई थी, जबकि उस समय उनकी नियुक्ति वहां थी ही नहीं. बाद में अदालत में पुलिस ने यह मानते हुए अपनी एफआईआर वापस ले ली कि यह भ्रामक तथ्यों पर आधारित थी.

इसके बाद एकता परिषद नाम के एक गैरसरकारी संगठन ने हर्बल पार्क के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की. इस पर अप्रैल, 2008 में हरियाणा सरकार को नोटिस जारी किया गया. निजी जमीन पर सरकार द्वारा पार्क बनाने की प्रक्रिया गैरकानूनी थी इसलिए इस पर पर्दा डालने के लिए इस जमीन को फरवरी, 2009 में संरक्षित वन घोषित कर इसका प्रबंधन वनविभाग के हवाले कर दिया गया. न कोई अपराधी साबित हुआ न किसी को सजा मिली. सिवाय चतुर्वेदी के जिन्होंने इस गड़बड़झाले को उजागर किया था. जनवरी, 2008 में बहाली के बाद उन्हें छह महीने तक बिना किसी नियुक्ति के रखा गया. और जब उन्हें नियुक्ति मिली तो यह उनके रैंक से नीचे की थी. वे इसके खिलाफ सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेशन ट्रिब्यूनल में गए और जीत गए.

सरकार हर तरफ से मुंह की खा चुकी थी. हारकर उसे चतुर्वेदी को झज्झर का डीएफओ बनाना पड़ा. यहां भी उन्होंने पांच करोड़ रुपए का घोटाला उजागर कर डाला जो फर्जी पौधारोपण पर खर्च किए गए थे.  चतुर्वेदी ने अपने विभाग के सैकड़ों लोगों को खुद पेड़ गिनने के लिए कहा.  इसके बाद उन्होंने विभाग के नौ अधिकारियों को निलंबित कर दिया और 40 लोगों को उनकी बर्खास्तगी के आदेश थमा दिए. फिर जैसी कि संभावना थी, उनका तबादला हो गया. चतुर्वेदी के घर की दीवारें और आलमारियां खाली हैं. ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं. कुरुक्षेत्र का यह योद्धा जानता है कि अगला तबादला भी जल्द ही हो सकता है.

भारत में संजीव चतुर्वेदी अकेले ऐसे  व्यक्ति नहीं हैं जो साहस की सलीब टांगे हुए व्यवस्था बदलने की राह पर हैं. यहां हम ऐसे ही कुछ और लोगों के बारे में बता रहे हैं जिन्हें इस राह पर चलते हुए अनगिनत मुसीबतें उठानी पड़ीं, पड़ रहीं हैं लेकिन उससे डिगना इनको मंजूर नहीं है – 

 सिपाही, जिसे मिली सचेत करने की सजा : सतीश शेट्टी, पुणे

सतीश शेट्टी साधारण व्यक्ति नहीं थे. होते तो उनके दुश्मनों की संख्या इतनी ज्यादा न होती. जाली राशन कार्ड बेचने वालों से लेकर अवैध तरीके से संपत्तियों पर कब्जा जमाकर बैठने और करोड़ों रुपए का घोटाला करने वालों तक उनके दुश्मनों की सूची बहुत लंबी थी. शायद यही वजह थी कि पुणो से सटे तालेगांव में पले-बढ़े शेट्टी को 39 साल की उम्र में ही अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा. 13 जनवरी, 2010 को दिनदहाड़े उन पर हमला हुआ और वह भी पुलिस स्टेशन के पास. अस्पताल पहुंचाए जाने के थोड़ी देर बाद उनकी मौत हो गई. शेट्टी का कसूर यही था कि वे गरीब किसानों को उनके साथ रहे धोखे से बचाना चाहते थे.

कई साल तक सबूत इकट्ठा करने के बाद शेट्टी ने इंस्पेक्टर जनरल ऑफ रजिस्ट्रीज (आईजीआर) तक शिकायत भेजी कि बडगाम-मवाल इलाके में जमीन की सैकड़ों अवध रजिस्ट्रियां हो रही हैं. नवंबर, 2009 में आईजीआर ने 2000 रजिस्टर्ड डॉक्यूमेंटों का ऑडिट शुरू किया जिसमें कम से कम 930 फर्जी पाए गए.चार भाई-बहनों में सबसे बड़े शेट्टी को आम तरीके से जीना कभी नहीं भाया. उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. न नौकरी की न शादी. पुणो की एक एडवरटाइजिंग फर्म में काम कर रहे उनके भाई संदीप कहते हैं, ‘समाज सेवा के पीछे वे पागल थे.’ बीस-इक्कीस साल की उम्र में ही वे समाज सेवा से जुड़ गए थे. रेलवे टिकट बुक करने से लेकर कर्ज लेने की प्रक्रियाओं में वे गांववालों की मदद करते. संदीप बताते हैं, ‘उन्हें हर जगह भ्रष्टाचार नजर आने लगा.’ जल्दी ही वे सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे द्वारा चलाए जा रहे भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से जुड़ गए. बाद में उन्होंने भ्रष्टाचार निर्मूलन समिति नाम का एक संगठन बनाया.

शेट्टी पहली बार तब सुर्खियों में आए जब 1996 में उन्होंने सार्वजनिक वितरण व्यवस्था में डेढ़ करोड़ के फर्जीवाड़े का पर्दाफाश किया. दरअसल इसमें एक राशन विक्रेता ने 200 जाली राशन कार्ड बना रखे थे. मामला सामने आने के बाद एक अदालत ने राशन विक्रेता का लाइसेंस रद्द करते हुए उस पर भारी जुर्माना लगाया. 2004 में शेट्टी के दुश्मनों की सूची में तब और इजाफा हुआ जब उन्होंने रेलवे की जमीन पर कब्जा किए बैठे कुछ ताकतवर लोगों का भांडाफोड़ किया. इनमें एक मेयर और कुछ नेता भी थे. मेयर को कुर्सी गंवानी पड़ी. रेलवे की जमीन पर अवैध रूप से बने सभी लोगों के बंगले गिरा दिए गए. ऐसे ही एक बंगले का मालिक और स्थानीय वकील विजय दाभाड़े अब शेट्टी की हत्या के मामले में एक अहम आरोपित है.

2005 में शेट्टी को सूचना का अधिकार (आरटीआई) के रूप में अपना सबसे मजबूत हथियार मिला. उस समय मुंबई-पुणो एक्सप्रेसवे की वजह से रियल एस्टेट की कीमतों में बहुत उछाल आया हुआ था. एक तरफ जमीन की कीमतें बढ़ रही थीं और दूसरी तरफ जमीनें कब्जाई जा रहीं थीं. जमीन हड़पने की कई कहानियों के साथ तमाम छोटे-बड़े किसान शेट्टी के पास आने लगे. शेट्टी को पता चला कि नियमों में कुछ ऐसे झोल हैं जिनका फायदा उठाकर किसी की मर्जी के खिलाफ भी उसकी जमीन की रजिस्ट्री और खरीद-फरोख्त हो रही है. संदीप बताते हैं, ‘वे जमीन के एक ऐसे ही छोटे से टुकड़े की पड़ताल कर रहे थे कि उन्हें 3000 करोड़ रुपए के एक घोटाले की गंध मिली. शायद यही वजह है कि वे आज जिंदा नहीं हैं.’ 

कई साल तक सबूत इकट्ठा करने के बाद शेट्टी ने इंस्पेक्टर जनरल ऑफ रजिस्ट्रीज (आईजीआर) तक शिकायत भेजी कि बडगाम-मवाल इलाके में जमीन की सैकड़ों अवध रजिस्ट्रियां हो रही हैं. नवंबर, 2009 में आईजीआर ने 2000 रजिस्टर्ड डॉक्यूमेंटों का ऑडिट शुरू किया जिसमें कम से कम 930 फर्जी पाए गए. रजिस्ट्रार को निलंबित कर दिया गया. करोड़ों रुपए के कारोबार वाली कंपनी आइडियल रोड बिल्डर्स (आईआरबी) की तरफ उंगलियां उठीं. संदीप बताते हैं, ‘आईआरबी द्वारा अधिग्रहीत की गई 1800 एकड़ जमीन सवालों के घेरे में आ गई. कंपनी को काफी आर्थिक नुकसान तो हुआ ही, उसे काफी बदनामी भी झेलनी पड़ी.’ इसके बाद शेट्टी को आशंका हो गई थी कि उनकी जिंदगी को खतरा हो सकता है. 24 नवंबर, 2009 को उन्होंने पुलिस सुरक्षा मांगी. मगर उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया. अब पुलिस का कहना है कि उनके आवेदन पर कार्रवाई हो रही थी.

शेट्टी की मौत पुलिस अक्षमता से ज्यादा उस फर्ज की प्रति उदासीनता की उस व्यापक समस्या को दर्शाती है जिसकी जड़ें गहरे धंसी हुई हैं. शेट्टी व्यवस्था के झोल जनता के सामने लाना चाहते थे. मगर वे झोल ही शायद उनकी जिंदगी लील गए. उनकी हत्या की जांच अब लोनावाला के एक दूसरे पुलिस अधिकारी को सौंप दी गई है. पांच लोग गिरफ्तार हुए हैं. प्राथमिक आरोपित दाभाड़े को संतोष शिंदे नाम के एक सब्जी विक्रेता के बयान के आधार पर गिरफ्तार किया गया था. पुलिस के मुताबिक इस सब्जी विक्रेता ने खुद ही पुलिस से संपर्क साधकर माना था कि दाभाड़े ने उसे शेट्टी की हत्या की सुपारी दी थी जो उसने ठुकरा दी थी. शेट्टी के परिवार ने जो एफआईआर दर्ज करवाई है उसमें मुख्य रूप से आईआरबी पर शक जाहिर किया गया है. कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों से इस मामले में पूछताछ की गई है मगर गिरफ्तारी कोई नहीं हुई है.

फिलहाल तो शेट्टी के परिवार के लिए उम्मीद की किरण बांबे हाईकोर्ट ही है जिसने खुद ही इस मामले का संज्ञान लेते हुए शेट्टी द्वारा इकट्ठा किए गए आरटीआई दस्तावेज मांगे हैं. संदीप कहते हैं, ‘कम से कम कोई तो अब इन दस्तावेजों को देखेगा. मेरे भाई को मारने से इंसाफ की प्रक्रिया नहीं रुकने वाली.’