ताल्लुक बोझ बन जाए तो..

ऐसा सोचना ठीक नहीं होगा कि संघ और भाजपा द्वारा शिवसेना के शगूफे मुंबई मराठियों के लिएकी आलोचना सिर्फ अक्तूबर में होनेवाले बिहार विधानसभा चुनावों के मद्देनजर की जा रही है. चिंताएं दरअसल कहीं व्यापक हैं. उत्तर प्रदेश की तरह ही बिहार से भी हजारों लोग रोजी-रोटी के लिए हर साल मुंबई जाते हैं. हाल के महीनों में शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) में बंटे ठाकरे परिवार के बीच जिस तरह उत्तर भारतीयों पर हमले करने की होड़ लगी है उससे दोनों राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के लिए परेशानियां खड़ी हो गई हैं.

भाजपा के लिए मनसे-शिवसेना से दूरी बनाना मध्यवर्ग में अपनी पैठ फिर से जमाने के लिए जरूरी है, जो उससे छिटक गया है. यह एक लंबा और मुश्किल काम है

कांग्रेस तो पूरी तरह ऊहापोह की स्थिति में है कि वह क्या रुख अपनाए. महाराष्ट्र में सबको पता है कि 2009 में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अपने फायदे के लिए कांग्रेस ने मनसे और राज ठाकरे को बढ़ावा दिया. मराठी मानुस की राजनीति में ताजा पन्ना राज्य की कांग्रेस सरकार ने ही जोड़ा जब उसने कहा कि वह सिर्फ मुंबई के निवासियों और मराठी बोलने वालों को ही टैक्सी ड्राइवर परमिट देगी. हालांकि इस अजीबोगरीब नीति को बाद में सुधार लिया गया लेकिन फिर भी यह छिपा नहीं कि कांग्रेस दो नावों (या शायद दो टैक्सियों) की सवारी कर रही है. मुंबई में यह क्षेत्रीय आधार पर लोगों को डराने-धमकाने की राजनीति करनेवालों का तुष्टिकरण करती है तो दूसरी तरफ बिहार में राहुल गांधी राज ठाकरे की आलोचना करते हुए महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के योगदान की सराहना करते हैं. उधर, दिल्ली में गृहमंत्री पी चिदंबरम दोनों सेनाओं और उनकी जहरीली बयानबाजियों को आड़े हाथों लेते हैं. ऐसा करते हुए दोनों ही आसानी से मुंबई में अपनी पार्टी के रवैये को भुला देते हैं. लेकिन एक समय आएगा जब कांग्रेस को अपना रवैया साफ करना होगा. अभी तो वह दोमुंहा रुख अपनाकर भी इसलिए बच जा रही है क्योंकि विपक्ष भी अपनी दुविधाओं और मुश्किलों से घिरा हुआ है.

उधर, भाजपा और संघ के लिए क्षेत्रीयता की संकीर्ण राजनीति कर रहीं मनसे और शिवसेना की हरकतें परेशानी का सबब बनने लगी हैं. राजनीतिक रूप से सेना हमेशा अपनी अहमियत को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाती रही है. लोकसभा चुनावों के पहले सीटों के बंटवारे के समय ठाकरे परिवार ने भी अड़ियल रवैया अपनाया. वह यह मानने को तैयार नहीं था कि पिछले एक दशक में उसका आधार कम हुआ है और सीट बंटवारे के अनुपात के मामले में पलड़ा अब भाजपा की तरफ झुक गया है. सेना की जिद के आगे भाजपा आखिरकार झुक गई. लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि बाल ठाकरे के रहते उनका रिश्ता नहीं टूटेगा. कांग्रेस-राकांपा की तरफ सेना के खुल्लमखुल्ला नर्म रुख के बावजूद भाजपा ने शांति बनाए रखी. लेकिन इससे पार्टी में सभी लोग खुश नहीं थे. महाराष्ट्र भाजपा के कई अहम नेता सेना के खिलाफ आवाज उठाना चाहते थे. नितिन गडकरी भी इनमें शामिल थे जो अब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

भाजपा के लिए मनसे-शिवसेना से दूरी बनाना मध्यवर्ग में अपनी पैठ फिर से जमाने के लिए जरूरी है, जो उससे छिटक गया है. यह एक लंबा और मुश्किल काम है. लेकिन इसकी शुरुआत तब तक संभव नहीं है जब तक पार्टी अपने उस सहयोगी के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार नहीं करती जिसने पिछले कुछ समय से भारत के एक बड़े फिल्मी सितारे, क्रिकेटर और उद्योगपति के खिलाफ मोर्चा खोलकर इसके लिए लगातार मुश्किलें खड़ी की हैं.

लेकिन यह सिर्फ राजनीतिक मुद्दा ही नहीं है. संघ उल्लेखनीय रूप से राष्ट्र की अपनी अवधारणा को लेकर उदार और व्यापक हो सकता है. जैसा कि एक वरिष्ठ भाजपा नेता कहते हैं कि 1970 के दशक में जब आर्य समाज ने हिंदू पंजाबियों को अपनी मातृभाषा पंजाबी की बजाय हिंदी घोषित करने को कहा तो संघ ने इसका विरोध किया था और कहा था कि इससे एक भाषा के रूप में पंजाबी का अपमान होगा, हालांकि कांग्रेस के एक धड़े की शह पाकर आर्य समाज अपने रुख पर अड़ा रहा. इसकी वजह से सिख भड़क गए और 15 साल तक पंजाब जलता रहा.

हालांकि शिवसेना-मनसे परिवार की लड़ाई बिलकुल 1980 के दशक की अकाली दल-भिंडरावाले की लड़ाई जैसी नहीं है. फिर भी इसमें कांग्रेस की लापरवाही और आरएसएस की सतर्कता जैसी उल्लेखनीय समानताएं तो दिखती ही हैं. हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि वैसी त्रासदी फिर दोहराई न जाए. 

अशोक मलिक