सीबीआई कह रही है कि आरुषि का कत्ल कृष्णा, राजकुमार और विजय ने किया, ड़ॉ राजेश तलवार ने नहीं. जबकि नोएडा पुलिस या कहना चाहिए कि लगभग पूरी यूपी पुलिस कह रही थी कि कत्ल डॉक्टर तलवार ने ही किया था. पुलिस ने सीबीआई द्वारा आरोपित तीनों लोगों पर कभी ढ़ंग से शक तक नहीं किया था. ज़ाहिर है कि सीबीआई या पुलिस में से एक तो ग़लत है.
अब अगर सीबीआई को सही मान लिया जाए तो यूपी पुलिस का अपराध, मुख्य अभियुक्त कृष्णा से भी बड़ा हो जाता है. एक पिता जिसने हाल ही में अपनी बेटी की नृशंस ह्त्या देखी हो, जिसने चंद दिनों पहले ही अपने जीवन का एकमात्र सहारा खो दिया हो और अभी इससे उबरने की कोशिश भी शुरू नहीं की हो, पुलिस ने उसे ही बेटी की ह्त्या का जिम्मेदार ठहरा दिया. ऐसा करते वक्त पुलिस आरुषि के कातिलों से कम नहीं बल्कि कई गुना ज्यादा नृशंस हो गई. वो न तो वर्तमान आरोपियों कृष्णा और उसके दोस्तों की तरह शराब के नशे में थी और न ही उनकी तरह कम पढ़ी-लिखी ही थी. इसके बावजूद उसने एक आदमी को फांसी पर लटकाने और उसके और उसके नज़दीकी कई परिवारों को ज़िंदगी भर जिल्लत की ज़िंदगी जीने का इंतजाम कर दिया. अपनी कहानी को सही साबित करने के लिए पुलिस यहीं नहीं रुकी. बड़ों और ज़िंदों से निपटने के बाद उसने वक्त से बहुत-बहुत पहले दुनिया छोड़ने को मजबूर की गई १३ साल की बच्ची की ओर रुख किया. शायद होश में आने के बाद आरुषि के कातिलों को भी सुबह कुछ अपराधबोध हुआ होगा. मगर पुलिस ने जिस बेशर्मी से आधिकारिक और अनाधिकारिक रूप से उसके चरित्र की बखिया उधेड़ी उससे ज़रा भी संवेदनशील हर व्यक्ति का सर शर्म से झुक गया होगा.
नोएडा पुलिस को दिए अपने इकबालिया बयानों में मोनिंदर सिंह पंधेर और सुरेन्द्र कोली ने अपने अपराधों को कुबूल कर लिया था. बाद में सीबीआई ने पंधेर को इस मामले में क्लीन चिट दे दी और केवल कोली को दोषी ठहराया.
दरअसल उत्तर प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण शहर और राजधानी के मुहाने पर होने के बावजूद नोएडा में क़ानून व्यवस्था की स्थिति बेहद शोचनीय है. लूटमार और एकाध कत्ल को तो पुलिस शायद ही तनिक भी गंभीरता से लेती हो. ऐसा ही शायद आरुषि के मामले में हुआ. एक बच्ची का कत्ल होना पुलिस के लिए बेहद मामूली बात रही होगी और उसने इसकी जांच अपने स्थाई चलताऊ तरीके से शुरू कर दी होगी. वो तो अगले दिन जब हेमराज का भी शव छत पर पड़ा मिला तो मामला राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया. जब पुलिस की काफी थुक्का फजीहत हुई और उस पर चौतरफा दबाव पड़ने लगा तो उसने निकृष्टता की सारी सीमायें लांघ दी.
तो अब जबकि सीबीआई ने तलवार, दुर्रानी और आरुषि पर लगाए सारे इल्जामों को खारिज कर दिया है, क्या नोएडा पुलिस के ही नहीं बल्कि राज्य स्तर के कई आला अधिकारियों पर सीआरपीसी की संगीन धाराओं के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? क्या उन्हें उनके कुकृत्यों का उचित फल नहीं दिया जाना चाहिए? मगर पिछला अनुभव ये चुगली करता है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला.
2006 के आख़िरी दिनों में जब निठारी का मामला सामने आया था तो नोएडा पुलिस को दिए अपने इकबालिया बयानों में मोनिंदर सिंह पंधेर और सुरेन्द्र कोली ने अपने अपराधों को कुबूल कर लिया था. बाद में सीबीआई ने पंधेर को इस मामले में क्लीन चिट दे दी और केवल कोली को दोषी ठहराया. तब भी ये सवाल उठा था कि अगर सीबीआई सही है तो इसका मतलब पुलिस ने पंधेर को बेवजह फंसाने की कोशिश की थी. हालांकि इस मामले में सीबीआई की भूमिका संदेह से परे नहीं थी मगर यदि सीबीआई ने पंधेर को क्लीन चिट दी थी तो उसे पंधेर को फंसाने वाले पुलिस अधिकारियों पर कुछ तो कार्रवाई करनी चाहिए थी मगर उनसे पूछताछ तक नहीं की गई.
पिछले दिनों दिल्ली से बोरिया-बिस्तर उठा नोएडा में शिफ्ट होने की सोच रहा था. मगर अब लगता है कि वहां अपनी और परिजनों की सुरक्षा का मसला तो है ही साथ ही कोई हादसा होने पर पुलिस प्रशासन से कोई उम्मीद करना भी बेकार होगा. और मीडिया या दूसरे तरीकों से पुलिस पर यदि कोई दबाव बनवाया तो बौखला कर न जाने पुलिस मामले का ऊंट किस करवट बिठा दे. फिर लेने के बजाय उल्टे देने भी पड़ सकते हैं.
संजय दुबे