पुस्तक : कब कटेगी चौरासी
लेखक : जरनैल सिंह
कीमत : 99 रुपए
प्रकाशक: पेंगुइन बुक्स
लेखन की सार्थकता अगर संवेदना को छूने में है तो कब कटेगी चौरासी इससे कुछ आगे निकल जाती है. इसलिए क्योंकि यह हमारी संवेदना को सिर्फ छूती ही नहीं बल्कि झकझोर देती है, सावधान भी करती है कि सभ्यता के विकास के तमाम दावों के बावजूद हम अब भी काफी हद तक अपनी आदिम पाशविक प्रवृत्तियों से बंधे हुए हैं. इसे पढ़ते हुए लगातार लगता है कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा और बरबस ही नाजी कैंपों और बंटवारे पर लिखी गई किताबों के अंश या इन घटनाओं पर बनी फिल्मों के दृश्य मन में कौंधते हैं. किताब की प्रस्तावना में चर्चित लेखक खुशवंत सिंह लिखते हैं कि यह उन सभी लोगों को पढ़नी चाहिए जो चाहते हैं कि ऐसे भयानक अपराध दोबारा न हों. उनकी बात बिल्कुल सही है. अगर इसे पढ़कर बतौर समाज हमें अपना अक्स धुंधला नजर आए तो कसूर इस आईने का नहीं बल्कि हमारे चेहरे पर पड़ी धूल का होना चाहिए.
कब कटेगी चौरासी के लेखक हैं कुछ समय पहले एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान गृहमंत्री पी चिदंबरम की तरफ जूता उछालकर चर्चा में आए पत्रकार जरनैल सिंह. उनके मुताबिक इसे लिखने का उद्देश्य 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिखों के नरसंहार की बर्बरता और उसके बाद भी अब तक लगातार जारी अन्याय का सच सामने लाना है. वे लिखते भी हैं, ‘जूते से विरोध प्रकट कर दुनिया को इस अन्याय की याद तो दिला दी पर इस अन्याय को किताब के तौर पर सामने लाकर दोषियों को शर्मिंदा करना होगा.’ इसके बाद जरनैल लिखते हैं,‘सिखों के साथ हुए अन्याय के खिलाफ उनके दर्द और रोष को अपने सांकेतिक विरोध के जरिए प्रकट करने के बाद मुझे तिलक विहार और गढ़ी में 1984 के पीड़ितों की विधवा कॉलोनियों में जाने का मौका मिला. उनकी दयनीय स्थिति को देखकर और दर्दनाक कहानियों को सुनकर दिल और ज्यादा दुख से भर गया. मैंने देखा कि 1984 के कत्लेआम को उस तरह से कवर ही नहीं किया गया जिस तरह से किया जाना चाहिए था..लगा कि इस दास्तान को दुनिया के सामने लाना बेहद जरूरी है.’
इस तरह देखा जाए तो यह एक तरह से भुक्तभोगियों द्वारा अपनी व्यथा का मार्मिक वर्णन है जिसके जरिए कुछ अहम सवाल उठाए गए हैं. चूंकि जरनैल पत्रकार हैं और बेहद आहत भी, इसलिए इस काम में उन्होंने अपनी पत्रकारीय प्रतिभा के साथ निजी भावनाओं का मेल भी कर दिया है जो किताब पढ़ते हुए महसूस भी होता है. दंगा पीड़ितों की जिंदगी के दुखद अध्याय के साथ चलती गई उनकी कलम ने अपने दिल का गुबार भी जी-भर उड़ेला है. उन्हीं के शब्दों में ‘अगर किसी भूकंप या तूफान में लोग मारे गए हों तो अलग बात है पर कत्लेआम को कैसे भूल जाएं? खासकर जब तक न्याय न हुआ हो..भूल जाना कोई हल नहीं है. इतिहास से सबक लिया जाता है न कि उसे भूला जाता है. सबक इसलिए ताकि वैसी गलतियां फिर न दोहराई जाएं. जरूरत भूलने की नहीं, न्याय करने की है.’
84 के पीड़ितों की कहानियां अखबारों या पत्रिकाओं के जरिए टुकड़ों-टुकड़ों में पहले भी कही गई हैं मगर हिंदी में उन्हें एक किताब के रूप में सामने लाने का शायद यह पहला प्रयास है. समीक्षा के लिहाज से देखा जाए तो इसमें कुछेक दोष जरूर हैं मगर जब त्रासदी इतनी विकराल और हृदयविदारक हो तो उसके वर्णन में हुए चंद भाषागत और भावनात्मक दोष ज्यादा मायने नहीं रखते.
महान कथाकार शैलेश मटियानी कभी कह गए थे कि समाज की संवेदना को बचाए रखने का काम ईश्वर और प्रकृति ने लेखक पर छोड़ा है. जरनैल ने अपनी यह जिम्मेदारी सच्चे मन और अच्छे ढंग से निभाई है.
विकास बहुगुणा