औघट घाट का कबीर

प्रभाषजी राजनीति के धर्मनिरपेक्ष होने को ही इसका सबसे बड़ा धर्म माना करते थे और इससे जरा-सी भी आड़ी-तिरछी जाने वाली राजनीति को देश के लिए कतई शुभ नहीं मानते थे

प्रभाषजी के अंतिम दर्शन के बाद उनके वसुंधरा वाले घर से लौटते हुए मुझे वहां जाने-आने का सबसे आसान रास्ता मिला. सूर्या मार्बल्स के बाद जैन मार्बल्स और फिर तुरंत ही दाएं मुड़ कर करीब एक किमी चलने पर बाबूजी (मैं उन्हें बाबूजी ही कहता था) का घर आ जाता है. मैं पिछले दो सालों से वहां भूल-भुलैया रास्तों से जाता रहा और अब जब वहां जाने की एक प्रकार से वजह ही खत्म हो गई तो वहां का रास्ता मेरे लिए आसान हो गया था. प्रभाष जी अपने निर्माण विहार वाले घर से वसुंधरा ज्यादातर तब जाते थे जब उन्हें कोई लेख लिखना या एकाग्रचित्त होकर कुछ करना होता था. 5 नवंबर को भी वे वहां इसीलिए गए थे. पहले तो वहां उन्हें अपने बड़े और बढ़िया से सोनी के होम थियेटर पर भारत-ऑस्ट्रेलिया का मैच देखना था, फिर बाद में उसके बारे में अपने खड़े किए अखबार ‘जनसत्ता’ में लिखना भी था.

छह तारीख का जनसत्ता मेरी याद में शायद पहला होगा जिसमें इतने कांटे के मैच के बाद पहले पन्ने पर क्रिकेट की कोई खबर ही नहीं थी. होती भी कैसे! उस खबर को लिखने वाला खुद ही खबरों में विलीन हो गया था.

प्रभाषजी को नजदीक से या उनके लेखों के जरिए जानने वाले तमाम लोगों में दो बातों को लेकर हमेशा काफी उत्सुकता, उलझन और हैरानी रही – इतने बड़े पत्नकार, इतनी उम्र और समझदारी के बाद भी वे एक खेल – क्रिकेट – के पीछे इतने दीवाने क्यों थे? और राजनीति या धर्म से संबंधित कोई भी लेख क्यों न हो उसमें संघ और भाजपा की बखिया उधेड़े बिना उन्हें चैन क्यों नहीं आता था?

प्रभाष जी मूलत: इंदौर के रहने वाले थे जहां क्रिकेट की गौरवशाली परंपरा रही थी और सीके नायडू, मुश्ताक अली तथा चंदू सरवटे जैसे कई दिग्गज खिलाड़ी भी यहीं के थे. प्रभाष जी को भी क्रिकेट खेलने-देखने का बड़ा शौक था और जैसा कि वे अपने कई लेखों और साक्षात्कारों में लिखते और बताते भी रहे हैं कि यदि वे एक पत्नकार न बनते तो निश्चित ही खेल की बारीक समझ रखने वाले एक महान क्रिकेट खिलाड़ी होते. साथ ही वे केवल वही काम किया करते थे जिनमें उनका जी लगता था और ऐसे कार्यों को वे पूरा रस लेकर किया करते थे, फिर चाहे वह खाना-पीना हो, या लिखना या फिर संगीत सुनना, मैच देखना और कभी-कभी संगीत सुनते-सुनते क्रिकेट मैच देखना, या फिर अपने सामाजिक दायित्वों को निबाहना. क्रिकेट के लिए उनकी दीवानगी का आलम यह था कि जो वे खुद नहीं कर सके वह अपने बेटे संदीप, जो कि एक रणजी खिलाड़ी रहे हैं, और पोते माधव के जरिए पूरा करने की कोशिश करते रहे.

बाद में उनके लेखों और भाषणों के प्रमुख विषयों में दो और जुड़ गए थे – अमेरिकावादी पूंजीवाद और बिल्कुल ही हाल में जुड़ा हिंदी मीडिया का चारित्निक पतन

जहां तक हिंदुत्व, संघ और भाजपा के विरोध की बात है तो प्रभाषजी धर्म और उससे जुड़ी परंपराओं और कर्मकांड के बिल्कुल भी विरोधी नहीं थे. उन्होंने ही नीतू (मेरी पत्नी) को पिछली दीपावली पर यह समझाया था कि उसे लक्ष्मी-गणेश की पूजा करते समय मंदिर में कुछ चांदी के सिक्के भी रखने चाहिए. वे अपने घर में हर साल गणपति की स्थापना किया करते थे, पितरों की शांति के लिए हर साल श्राद्धों का आयोजन करते थे और अपने छोटे भाई सरीखे अनुपम मिश्र जी की मां के देहावसान पर पिछले साल अनुपमजी के लाख मना करने पर भी उन्होंने ही सारे कर्मकांड संपन्न कराए थे.

मगर इतना धार्मिक होने के बावजूद वे धर्म के राजनीति में घालमेल के जबर्दस्त विरोधी थे. वे राजनीति के धर्मनिरपेक्ष होने को ही इसका सबसे बड़ा धर्म माना करते थे और इससे जरा-सी भी आड़ी-तिरछी जाने वाली राजनीति को देश के लिए कतई शुभ नहीं मानते थे.

बाद में उनके लेखों और भाषणों के प्रमुख विषयों में दो और जुड़ गए थे – अमेरिकावादी पूंजीवाद और बिल्कुल ही हाल में जुड़ा हिंदी मीडिया का चारित्निक पतन. पिछले लोकसभा चुनावों में हिंदी के अखबारों में पैसा लेकर छापी गई खबरों और इसके देश पर पड़ने वाले असर को लेकर वे इतना सशंकित थे कि भारतीय प्रेस परिषद से लेकर हर उपलब्ध मंच से इसके खिलाफ जमकर अभियान चला रहे थे. इस संदर्भ में वे अक्सर मुझसे कहा करते थे कि महापंडित (उनके द्वारा मुझे दिया गया संबोधन), अपन ने सफलता से बड़ों-बड़ों को बदलते देखा है मगर तहलका से पूरे देश को बड़ी उम्मीदें हैं इसलिए बड़े ध्यान से मगर बहुत तेजी से अपना काम करने की जरूरत है.

पत्नकारिता में प्रभाष जी के सबसे बड़े अवदानों में से एक शायद यह रहा कि उन्होंने पत्नकारीय लेखन को वह भाषा दी जो हमारी जरूरतों के लिए जरूरी तेवरों वाली रोजमर्रा की हिंदी थी. कई बार जब मैं उनसे बात करता तो लगता कि जैसे मैं उन्हें सुन नहीं बल्कि पढ़ रहा हूं और कई बार उन्हें पढ़ते-पढ़ते उनके सामने होने का एहसास भी होता रहता था. उन्होंने लिखने और पढ़ने वाली हिंदी का एक तरह से फर्क ही खत्म कर दिया था.

करीब एक-सवा साल पहले किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय के हिंदुस्तानी मूल के हिंदी के प्रोफेसर का पत्न मेरे पास आया था जिसमें उन्होंने प्रभाष जी के लिखे इनने-उनने, अपन-तुपन और ओडीशा और अमदाबाद सरीखे शब्दों के गलत होने पर अपना तीखा विरोध जताया था. जब मैंने यह बात प्रभाषजी से कही तो उनका कहना था – हाल ही में इसपर उन्होंने एक लेख भी लिखा था – कि विभिन्न बोलियों और भाषाओं के हिंदी से पारिवारिक संबंध हैं और लोग अपने स्थान और संस्कृति से जुड़ी चीजों को जैसा उच्चारित करते हैं उसे वैसा ही लिखना गलत कैसे हो सकता है? बल्कि  गलत तो तब होगा जब इन शब्दों को अंग्रेजों द्वारा अपनी सुविधानुसार दिए उच्चारणों के मुताबिक लिखा-बोला जाए.

अगर क्रिकेट की बात करें तो उन्होंने इसके लेखन में भी हिंदी के मिजाज से मेल खाते तमाम नए और आसानी से जुबान पर चढ़ जाने वाले शब्दों को ईजाद किया. इनमें से सबसे ताजा उदाहरण है, ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट को उनका दिया नाम – बीसमबीस क्रिकेट. कम लोगों को पता है कि तहलका की हिंदी पत्निका आज जैसी है उसे वैसा बनाने में प्रभाष जी का बहुत बड़ा योगदान है. पत्निका के पहले संस्करण से पहले जब अपने कम अनुभव और लांच के बहुत जल्दी होने की वजह से अक्सर मेरे पसीने छूटे रहते थे, वे अक्सर कहा करते थे – महापंडित, चिंता मत करो जरूरत पड़ी तो पत्निका के पचास-साठ पन्ने अपन अकेले ही भर देंगे. अपने स्तंभ शून्यकाल सहित पत्निका के कई स्तंभों के अनोखे नाम उन्होंने ही सुझाए थे.

15 अक्टूबर 2008 को जब मैं तहलका का पहला अंक लेकर उनके पास गया तो खूब उलट-पुलटकर पत्रिका को देखने के बाद जो सबसे पहले शब्द उन्होंने कहे, वे थे – यार, यह तो मेरी उम्मीद से कहीं बढ़िया निकली है.

जिस दिन प्रभाषजी ने यह असार-संसार छोड़ा उस दिन सुबह-सुबह उन्होंने मुझे फोन किया था. वे बड़े मस्ती-मजाक के मूड में थे. मेरे बारे में पूछा, फिर तहलका के और फिर नीतू के बारे में. फिर उससे बात भी की और फोन पर ही मालवा का एक लोकगीत जैसा कुछ सुनाया जो सास अपनी बहू के आने पर गाया करती है. वे एक दिन पहले ही पटना, बनारस और आखिर में लखनऊ की यात्ना से लौटे थे और अगले दिन ही उनका मणिपुर जाने का कार्यक्रम था मगर कहा कि अब कुछ थक-से गए हैं इसलिए वहां नहीं जाएंगे और एक सप्ताह दिल्ली में ही रहेंगे. लखनऊ के बारे में मजाक-मजाक में बोले – यार, इस बार तो अपने को बिल्कुल पत्थरों का शहर लगा लखनऊ. अब कोई बहन मायावती से कह दे कि वे इसका नाम बदल कर माया नगरी रख दें और जान छोड़ें बेचारे शहर की. फोन रखने से पहले कहा कि वे आने वाले रविवार यानी कि 8 तारीख को हमारे घर आएंगे और मैं अनुपमजी को भी उस दिन अपने घर आने के लिए कह दूं.

मगर वे शायद अपने सबसे प्रिय मित्नों – राजेंद्र माथुर, शरद जोशी, रामनाथ गोयनका और कुमार गंधर्व से मिलने की शीघ्रता में थे. वे हमारे घर नहीं आए.

अब उनके जैसा कभी कोई आएगा भी नहीं. 

संजय दुबे